साइरस मिस्त्री ने जैसे ही टाटा समूह के अध्यक्ष रतन टाटा को झटका दिया, वैसे ही उच्चतम न्यायालय ने नेशनल कम्पनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के आदेश पर रोक लगा दी। एनसीएलटी का फैसला साइरस मिस्त्री के पक्ष में था। अगर पूरे मामले पर नज़र डालें तो भारतीय कॉरपोरेट घरानों में यह लड़ाई काफी लम्बी, लेकिन रोमांचक है। इसमें हर चाल की कानूनी पड़ताल अपनी नाटकीयता के साथ ज़बरदस्त है।
टाटा इस लड़ाई में तब खासे अपने जब नेशनल कम्पनी ला ट्रिब्यूनल ने साइरस मिस्त्री को टाटा सन्स के अध्यक्ष पद से हटाने के मामले में सारी याचिकाएँ रद्द कर दीं। साथ ही कम्पनी के बोर्ड में टाटा के नाजायज़ दखल के अरोपों पर ध्यान नहीं दिया। सबको लग रहा था कि अब मुकाबले में बचा ही क्या? लेकिन तभी नेशनल कम्पनी लॉ एपेलेट ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) का फैसला आया। इसके तहत साइरस न केवल क्यूटिव चेयरमैन एमेरिटूस के रूप में मान्य किया बल्कि टाटा सन्स को पाठलक कम्पनी से प्राइवेट बनाने को गैर-कानूनी और छोटे निवेशकों के लिहाज़ से घातक भी ठहराया। टाटा ने अब देश की सुप्रीम अदालत की एपेक्स कोर्ट का दरवाज़ा खटखटवाया है। उनके अनुसार, एनसीएलएटी के आदेश से टाटा संघ के कामकाज में अफरा-तफरी मच जाएगी। टाटा ट्रस्ट के अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने कभी अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल नहीं किया। टाटा समूह के अध्यक्ष के साथ ही टाटा ट्रस्ट के ट्रस्टी रेणु ने भी याचिका दायर की। इसमें अपील की गयी है कि एनसीएलएटी के 18 दिसंबर के आदेश को अमल में न आने दिया जाए। पिछले साल 18 दिसंबर के फैसले में एनसीएलएटी में टाटा एनए सूनावाला (टाटा ट्रस्ट के पूर्व ट्रस्टी) और नितिन नोहरिया (ट्रस्ट की ओर से मनोनीत निदेशक) अपने अधिकारों के बेजा इस्तेमाल करने का दोषी माना था। इन पर यह रोक लगायी गयी कि वे ऐसा कोई फैसला न ले, जिसमें निदेशक बोर्ड के बहुतायत सदस्यों की सहमति ज़रूरी होगा आम बैठक बुलायी हो। टाटा ने अपनी याचिका में लिखा है कि एनसीएलएटी में फैसला गलत भूलभरा और रिकॉर्ड के िखलाफ है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट इस पर विचार करें।
टाटा टेलिसर्विसेज ने कहा कि कम्पनी किसी भी विवाद में नेशनल कम्पनी लॉ ट्रिब्यूनल या एनसीएलएटी में कभी साझीदार नहीं थी। फिर भी अपोलो ट्रिब्यूनल में कहा है कि साइरस मिस्त्री को पुनर्बहाल किया जाये, जिन्हें टाटा सन्स के चेयरमैन मद से हटाया गया था। कम्पनी को अपने फैसले की वजहें बताने का भी मौका नहीं दिया गया। इसी तरह एनसीएलएटी ने टाटा सन्स को पब्लिक से प्राइवेट करने को भी गलत बताया।
साइरस मिस्त्री और रतन टाटा के बीच विवाद के कारण अक्टूबर 2016 को मिस्त्री को टाटा सन्स के बोर्ड ने उन्हें इन्कंपीटेंस के आधार पर पद मुक्त किया था। मिस्त्री के परिवार की निवेश कम्पनियों का टाटा सन्स में 18.5 फीसद हैं। बाद में मिस्त्री की कम्पनियों ने एनसीएलएटी में याचिका लगायी, जिसमें यह आदेश आया कि टाटा सन्स में उन्हें एक्जक्यूटिव चेयरमैन के रूप मेें बहाल किया जाए। टाटा सन्स ने टाटा ट्रस्ट का 66 फीसद निवेश है। बाकी निवेश छोटे-मोटे निवेशकों का है। इनमेें टाटा समूह की कम्पनियाँ भी हैं। टाटा का तर्क है कि एनसीएलएटी का फैसला इस आधार पर हुआ कि टाटा सन्स के मालिक दो समूह हैं। जबकि मिस्त्री समूह और टाटा समूह के बीच कोई भागीदारी नहीं है। साइरस मिस्त्री को सिर्फ पेशेवर आधार पर टाटा सन्स में एक्जक्यूटिव चेयरमैन बताया गया था। उन्हें एसपी समूह के प्रतिनिधि तौर पर तो कतई नहीं। मिस्त्री एसपी समूह की पारिवारिक निष्ठा से अलग नहीं हो पा रहे थे, जबकि उनकी नियुक्ति में यह आवश्यक शर्त थी। उन्होंने पद सँभालने के बाद सारे अधिकार अपने हाथों में ले लिए जिसकी वजह से समूह और समूह की कम्पनियों के कई वरिष्ठ अधिकारी अलग-थलग पड़ गये।
इसी तरह जापानी टेलिकॉम कम्पनी डोकोमो को कानूनी तौर पर जो रकम टाटा को चुकानी थी, उसे रोकने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभायी। चँूकि टाटा सन्स की खासियत रही है कि यह व्यावासायिक सम्बन्धों और लेन-देन में बहुत साफ रहा है और डोकोमो के साथ जो कुछ भी हुआ उससे टाटा सन्स का नुकसान भी हुआ और इसकी छवि पर भी असर पड़ा।
टाटा ने मिस्त्री को हटाने के बाद डोकोमो को उनकी सारी बकाया राशि चुका दी। जो भी समझौता दोनों कम्पनियों के बीच हुआ था, उसका पूरा पालन भी किया गया। नेशनल कम्पनी ला एपेलेट ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) ने टाटा सन्स और साइरस मिस्त्री मामले में हुए अपने फैसले को उचित माना है। यह समीक्षा एनसीएलएटी ने रजिस्ट्ररार ऑफ कम्पनीज की उस याचिका पर दी, जिसमें यह अनुरोध किया गया था कि टाटा सन्स पहले ‘पब्लिक’ कम्पनी थी, जिसे ज़ल्दबाज़ी में प्राइवेट कम्पनी के तौर पर बदल दिया गया। इसमें रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज से मदद ली गयी। अपने फैसले में एनसीएलएटी ने ‘अवैध’ शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसे हटाने पर रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज ने याचिका दायर की थी।
ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) का इस पर कहना था कि उसने सरकारी संस्था पर कतई कोई टिप्पणी अपने फैसले में नहीं की है। बल्कि जो कुछ हुआ उसका महज़ ज़िक्र है। यानी कम्पनी और उसके निदेशकों ने ज़रूर कुछ किया न कि रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनी ने। रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज ने अपनी याचिका में कहा था कि सेक्शन 43ए (2ए) के तहत एक ‘पब्लिक’ कम्पनी खुद को ‘प्राइवेट’ कम्पनी बना सकती है। यह कम्पनीज (एमेंडमेंट एक्ट 2000 के तहत सम्भव है। इसकी सिर्फ सूचना रजिस्ट्रार को देनी होती है। एनसीएलएटी ने अपने फैसले में लिखा है कि टाटा सन्स लिमिटेड ने रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज को सूचित किया है कि इसने 43ए (2ए) के तहत खुद को ‘प्राइवेट’ कम्पनी बना लिया है। इस कारण रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज को ज़रूरी बदलाव करने पड़े।
अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही एनसीएलएटी इस पूरे मामले पर फिर विचार करेगी। यह सही है कि एनसीएलएटी के फैसले से टाटा की अपनी छवि पर एक धब्बा लगा है। उन पर यह आरोप लगा कि चेयरमैन एमेरिटस खुद मामलों के दखल देते हैं और खुद को वे बोर्ड से ऊपर मानते हैं। एक यह आरोप भी है कि महत्त्वपूर्ण निदेशक जो टाटा ट्रस्ट में हैं, वे इसीलिए बैठक से उठ जाते हैं; जबकि दूसरे, टाटा के निर्देशों के इंतज़ार में बैठे रहते हैं। हालाँकि इस आरोप से टाटा के चेयरमैन एमेरिटस इन्कार करते हैं। लेकिन एक सवाल यह भी है कि एक होल्डिंग कम्पनी में जहाँ छोटे होल्डिंग भी जुडक़र काम कर रहे हैं, तो यह फैसला लेने का काम सिर्फ बड़ी कम्पनियों के पास क्यों? टाटा सन्स में दो-तिहाई शेयर ट्रस्ट के पास हैं। इसे बदलना चाहिए। दूसरी बात यह है कि टाटा सन्स की वैधानिक तस्वीर क्या है? क्या यह भागीदारों की कम्पनी है? यदि ऐसा है, तो इसे छोटे शेयर होल्डर शापूर जी पल्लन जी समूह (एसपी समूह) की भी सलाह लेनी चाहिए। या फिर उनकी जिसमें दोनों ही समूहों का भरोसा हो, जिससे एक एक्जीक्यूटिव चेयरमैन या निदेशक बन सके। एनसीएलएटी की यही सोच लगाती है कि सभी भागीदारों के हितों की रक्षा हो। हालाँकि ट्रिब्यूनल ने अपनी सोच की वजह साफ नहीं की है। लेकिन यह महत्त्वपूर्ण इसलिए है; क्योंकि यह यही उचित भागीदारी है जिस पर सोचा जाना चाहिए। मिस्त्री का कहना रहा है कि छोटे भागीदारों के अधिकारों की रक्षा हो। जिनके पास ज़्यादा शेयर हैं, वे उन्हें दबाकर न रखेें। उनकी भी आवाज़ सुनी जाए। भारतीय कॉरपोरेट के लोकतंत्र में क्या उपयुक्त होगा। इसका फैसला तो आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट को लेना है। लेकिन यह ज़रूरी है कि भारतीय कॉरपोरेट की हरियाली से छोटे पौधों की भी देखभाल उचित है, जो एक दिन खिली हुई शोभा बनते हैं।