मेरे प्रिय भाई ‘होरी’!
अबे तू उद्दंड काहे होता जा रहा है बे! सरकार जब-जब तेरी जमीन का अधिग्रहण करने जाती है, तब-तब तू बवाल काटता है, फिर शिकायत करता है कि पुलिस-प्रशासन ने तुझे पीटा. उद्दंड को दंड नहीं तो क्या पेड़ा मिलेगा! साले आसानी से जमीन क्यों नहीं छोड़ देता? जमीन में तेरी नाल गड़ी है क्या? जमाना चांद से मिट्टी खोद ला रहा है, एक तू है कि आज भी जमीन को अपनी मां कहता है. जमीन के एक छोटे-से टुकड़े के लिए अपनी मिट्टी पलीद कराने पर क्यों लगा है!
मैं पूछता हूं कि उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक का फैसला करने वाला तू कौन होता है? नीतिगत मामले में अपनी सूखी टांग न अड़ा. तू भूल रहा है तूने इन सब कामों के लिए चुनाव में अपना नुमाइंदा छांटा है. और वह ‘छंटा हुआ’ तेरा नुमाइंदा विधानसभा-संसद में तेरे लिए चिंतामग्न है. अरे, तुझे तो गांव का महाजन ही सारी उम्र सूद की चक्की में पीसता रहता है. उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं पाता और चला है सरकार से पंगा लेने. अरे, तेरी अक्ल ठिकाने लगाने के लिए तो लेखपाल-कानूनगो ही काफी हैं.
एक बात बता.. इस देश में किसान की जरूरत क्या है? यह सही है कि खेती किसान करता है, मगर क्या सिर्फ इतनी-सी बात पर सर माथे धर लिया जाए? अगर वह खेती नहीं करेगा तो मगरमच्छनुमा बड़ी-बड़ी कंपनियां करेंगी. कर ही रही हैं. तू शायद इस मुगालते में है कि कृषि प्रधान देश को तेरी बहुत जरूरत है. बेशक भारत एक कृषिप्रधान देश है. मगर यहां का इतिहास क्या कहता है, यह भी तो जानो मेरे मिट्टी के माधव. यहां मजे में प्रधान रहता है या तो किसान नेता. किसान तो आयोगों में रहता है. रपटों में रहता है. योजनाओं में रहता है. कर्ज में रहता है. अगर तू मजे में दिखना चाहता है तो सरकारी विज्ञापन या ट्रैक्टर के विज्ञापन में दिख. खेत में तू बेजार ही दिखेगा, अभागे.
तुझ पर किसी कवि ने कविता ‘हे कृषक देवता नमस्कार’ क्या लिख मारी, तू अपने को देवता समझ रहा है! तेरी शान में किसी शायर ने ‘जिस खेत से दहका को मयस्सर न हो रोटी, उस खेत के हर खोश-ए-गंदुम को जला दो’ शेर दे मारा, तो तू हवा में उड़ने लगा है क्या! बहुत पहले किसी बूढ़-पुरनिया ने ‘उत्तम खेती मध्यम बान’ की कहावत चला दी, तो तू कल्पनालोक में भ्रमण करने लगा है क्या! किसी गीतकार ने ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरा मोती’ क्या लिखा, तू सच मान बैठा है क्या! किसी राजनेता के नारे में तुम्हारी जय क्या हो गई, तू अपने को खुदमुख्तार समझने लगा है क्या!
अबे, तू समझता क्यों नहीं! वास्तविकता से आंख मिला. देखता नहीं सरकारी गोदामों में पडे़-पडे़ करोड़ों टन अन्न सड़ रहा है. यहां न अन्न की कदर है, न उसको उगाने वाले की. यहां कद्र है तो बस क्रिकेट की और क्रिकेटरों की. देखता नहीं, रत्ती भर मुआवजा मिलने के इंतजार में विस्थापितों की पहाड़ जैसी जिंदगी कट जाती है, मगर क्रिकेटरों के ऊपर इनाम की बारिश पल भर में हो जाती है. अबे गंवई ! तू राई है और रोड़ा बनने की जुर्रत करता है! और उस विकास की राह में, जिसे बनाने के लिए सरकार पूरी तरह से कटिबद्ध है. तू अपनी जमीन दे और विकास का एक हिस्सा बन, मगर तू तो विकास में से हिस्सेदारी मांग रहा है. अबे! ऐसे में तुझे कौन छोडे़गा? कमबख्त तू पिटेगा ही पिटेगा.
अनूपमणि त्रिपाठी