हिमाचल में विधानसभा चुनाव में हार के बाद प्रदेश कांग्रेस में जंग अभी तक के सबसे खतरनाक मोड़ पर है। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पूरी ताकत से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंदर सुक्खू को हटाने में जुट गए हैं वहीं सुक्खू Óअभी नहीं तो कभी नहीं’ की तर्ज पर वीरभद्र सिंह के मुकाबला कर रहे हैं। सुक्खू पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं जो इतनी मजबूती से वीरभद्र सिंह से टक्कर ले रहे हैं जबकि पूर्व में प्रदेश अध्यक्ष भले कोई रहा हो, चलती वीरभद्र सिंह की रही है।
सुक्खू समर्थकों का कहना है कि यह आर-पार की लड़ाई है और वे 85 साल के हो चुके वीरभद्र सिंह के सामने घुटने नहीं टेकेंगे। इन समर्थकों का आरोप है वीरभद्र सिंह प्रदेश कांग्रेस को अपना जेबी संगठन बनाकर रखना चाहते है लेकिन वे ऐसा नहीं होने देंगे। उनके मुताबिक पार्टी आलाकमान ने सुक्खू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का जिम्मा सौंपा है और वे पूरी ताकत से राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी को प्रदेश में मजबूत करते रहेंगे।
उधर वीरभद्र सिंह खेमे का कहना है कि सुक्खू अप्रभावी प्रदेश अध्यक्ष हैं और उनके नेतृत्व में प्रदेश में कांग्रेस का भ_ा बैठ रहा है। समर्थकों के मुताबिक सुक्खू का कोई जनाधार नहीं और वे संगठन को गति नहीं दे पा रहे जिसकी हार के बाद सबसे ज्यादा ज़रूरत है।
प्रदेश कांग्रेस की नई प्रभारी रजनी पाटील पार्टी में इस गुटबाजी से बहुत परेशान हैं। वे लगातार प्रदेश के दौरे कर रही हैं लेकिन हर एक बैठक में उन्हें पार्टी को मजबूत करने से ज़्यादा गुटबाजी पर फोकस करना पड़ रहा है। कमोवेश हर बैठक में उन्होंने पार्टी जनों को गुटबाजी से बचने की सलाह दी है, लेकिन नेता हैं कि पूरी शिद्दत से अपने ÓकामÓ में जुटे हैं। बड़े नेताओं के खुले रूप से एक दूसरे के खिलाफ आ जाने से छोटे कार्यकर्ता भी जमकर बयानबाजियां कर रहे हैं इससे पार्टी की जमकर भद्द पिट रही है।
प्रदेश कांग्रेस की लड़ाई देखने से लगता ही नहीं कि बड़े नेताओं का लक्ष्य 2019 के लोक सभा चुनाव जीतना और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना है। इसे देखकर तो लगता है कि वे अपनी मनमर्जी करके अपने स्कोर सेटल करने में जुटे हैं।
प्रदेश कांग्रेस के सबसे बड़ी खामी यही है कि वे पिछले तीन दशक से पूरी तरह वीरभद्र सिंह पर निर्भर रही है। आलाकमान ने भी इस पर कभी चिंतन नहीं किया की प्रदेश में नेतृत्व के गुणों वाले दूसरे नेता भी पैदा किये जाएं। बस वीरभद्र सिंह के सहारे चुनाव जीतने का लक्ष्य ही हावी रहा। एकाध बार जब कोशिश भी हुई या वीरभद्र सिंह की मर्जी के बाहर के नेता को अध्यक्ष की कुर्सी सौंपी गयी तो वीरभद्र सिंह समर्थकों ने उस नेता को विफल करने में कसर नहीं छोड़ी। इसका नतीजा यह हुआ है कि पार्टी के पास जनाधार वाले नेताओं की ही कमी हो गई।
सुखविंदर सुक्खू जैसे पार्टी के हर स्तर पर काम कर चुके नेता को जब अध्यक्ष चुना गया तो वीरभद्र सिंह खेमे ने पहले ही दिन से उनकी मुखालफत शुरू कर दी। आज हालत यह है कि सुक्खू को काम ही नहीं करने दिया जा रहा। प्रदेश कांग्रेस में सुक्खू एक तरह से सुख राम और सत महाजन के बाद ऐसे पहले नेता हैं जिन्होंने वीरभद्र सिंह के सामने रीढ़ दिखाई है अन्यथा अन्य तो तिनके की तरह ही उड़ गए।
सुक्खू को कमजोर करने के लिए वीरभद्र सिंह उनके गृह जिले हमीरपुर में कुछ साल पहले ही भाजपा से कांग्रेस में आये राजेंद्र राणा को मजबूत कर रहे हैं। राणा सुक्खू की ही तरह राजपूत हैं, भले पार्टी में उन्हें ज्यादा लोगों का समर्थन हासिल न हो।
दो बड़े नेताओं की इस जंग के चलते पार्टी दोफाड़ होने जैसी हालत में है। वीरभद्र सिंह किसी भी सूरत में सुक्खू को अध्यक्ष पद से हटाना चाहते हैं। यह माना जाता है कि वे इस पद पर अपने समर्थक को बैठना चाहते हैं। यह भी चर्चा है कि वे अपनी पत्नी प्रतिभा सिंह को महिला और राजपूत होने के नाते अध्यक्ष पद पर बैठाना चाहते हैं। प्रतिभा दो बार मंडी सीट से सांसद रह चुकी हैं। ऐसा होने के स्थिति में संगठन पर भी वीरभद्र सिंह गुट का कब्ज़ा हो जाएगा जबकि कांग्रेस विधायक दल के पद पर वीरभद्र सिंह के ही कट्टर समर्थक ब्राह्मण नेता मुकेश अग्निहोत्री बैठे हैं।
वीरभद्र सिंह विरोधियों का कहना है यदि सुक्खू को उनके पद से हटाया जाता है तो इसका कार्यकर्ताओं में बड़ा गलत सन्देश जाएगा। जबकि वीरभद्र सिंह समर्थकों का आरोप है कि यदि सुक्खू को अध्यक्ष बनाकर रखा गया तो लोक सभा चुनाव में कांग्रेस के जीतने की कोई गारंटी नहीं होगी। हालाँकि सुक्खू समर्थक कहते हैं कि वीरभद्र सिंह के जिस जनाधार का ढिंढोरा उनके समर्थक पीटते हैं वह 2017 के विधानसभा चुनाव में कहाँ था जबकि वीरभद्र सिंह को ही मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बनाकर चुनाव लड़े गए थे।
ख्बाहिशों की कतार
प्रदेश कांग्रेस में मुखर भले दो गुट – वीरभद्र सिंह और सुखविंदर सुक्खू – के हों, परदे के पीछे पांच और बड़े नेता मुख्यमंत्री बनने की ख्बाहिश रखते हैं। इनमें सबसे पहला नाम आशा कुमारी है जो एआईसीसी की सचिव और पंजाब की प्रभारी हैं। कांग्रेस सरकारों में मंत्री रह चुकी हैं। उन्हें आलाकमान के भी नजदीक माना जाता है और चम्बा के डलहौजी से चार बार विधायक बन चुकी हैं और प्रदेश में पहचान रखती हैं। कौल सिंह तो 2012 में मुख्यमंत्री के पद के पास पहुंचकर भी चूक गए। आठ बार के विधायक कौल सिंह कई बार मंत्री रहे हैं और मंडी जिले से ताल्लुक रखते हैं। लगातार आठ बार जीतने के बाद इस बार चुनाव हार गए हालाँकि प्रदेश में पहचान रखते हैं। जीएस बाली काँगड़ा जिले के हैं और इस बार अपना चुनाव हार गए। पार्टी में वरिष्ठ नेताओं में शामिल हैं हालाँकि अपना कोई मजबूत समर्थक वर्ग नहीं। दिल्ली में कुछ बड़े नेताओं से पहचान रखते हैं। इसी जिले के सुधीर शर्मा भी इस बार अपना चुनाव हार गए। सुधीर को पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के करीब माना जाता है। सुधीर की गिनती प्रदेश कांग्रेस के भविष्य के नेताओं में की जाती है। मुकेश अग्निहोत्री ऊना जि़ले के हरोली से चौथी बार विधायक बने हैं। वीरभद्र सिंह के करीबी मुकेश कांग्रेस विधायक दल के नेता हैं और पार्टी में उनके मुरीद उन्हें भविष्य का मुख्यमंत्री बताते हैं। आलाकमान के कई बड़े नेताओं के करीबी हैं जिनमें सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल भी शामिल हैं।