बमुश्किल 70 छोटे पन्नों में समा जाने वाली एक पतली किताब जिसने सौ साल का सफर पूरा कर लिया हो और इस सफर में वह लगातार मोटी भी हो रही हो तो उसे अनदेखा करना मुश्किल है. इसलिए हिंद स्वराज्य की अनदेखी नहीं की जा सकती. मनुष्य और मनुष्य समाज की स्वतंत्रता व सार्थकता की खोज में रमा हुआ इसका एक-एक शब्द कालजयी है.
महात्मा गांधी ने बहुत ही कम किताबें लिखी हैं—गिनती की! बाकी जो कुछ अथाह साहित्य है उनका, वह सारा का सारा उनके पत्रों-भाषणों में से लेकर तैयार किया गया है. यह जानना भी दिलचस्प है कि अपनी कलम से जो कुछ भी लिखा है उन्होंने, वह सब महात्मा गांधी बनने से पहले के मोहनदास करमचंद गांधी ने ही लिखा है!
उनकी लिखी किताबों में ही एक है हिंद स्वराज्य !
1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए, पानी के जहाज के डेक पर बैठ कर, एक गहरे आध्यात्मिक अनुभव के वशीभूत इस छोटी सी पुस्तिका को लिखा उन्होंने, किताब 10 दिनों में, सीधे हाथ-कलम से गुजराती में लिखी गई. दाहिना हाथ थकता तो वे बाएं हाथ से लिखने लगते, क्योंकि यह किताब लिखी नहीं गई, किसी अज्ञात ने साधना के किन्हीं गहरे क्षणों में यह लिखवा ली. गांधीजी लिखते हैं: ‘बहुत सोचा, बहुत पढ़ा… और जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह लिखा… जो विचार यहां रखे गए हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं, वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूं; वे मेरी आत्मा में गड़े-जड़े हुए जैसे हैं. वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं, कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं. दिल में भीतर-ही-भीतर जो मैं महसूस करता था, उसका इन किताबों ने समर्थन किया.’
इंग्लैंड से चले पानी के जहाज ने जब दक्षिण अफ्रीका की धरती छुई, गांधी अपनी चेतना के उन्मेष का शिखर छू चुके थे. सबसे पहले गांधी ने इसका धारावाहिक प्रकाशन दक्षिण अफ्रीका से निकलने वाले अपने अखबार इंडियन ओपीनियन में किया. उनके मित्र केलनबैक को बहुत कौतूहल था कि इसमें लिखा क्या है, सो गांधीजी ने खुद ही अपने एक पाठक के लिए इसका अंग्रेजी अनुवाद भी किया. वह अंग्रेजी अनुवाद सालों बाद दुनिया के सामने तब आया जब, तब की मुंबई सरकार ने इसके प्रचार पर रोक लगा दी थी. तब इसका अंग्रेजी में प्रकाशन सत्याग्रह का एक रूप बनकर सामने आया था. बाद में इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ.
अपने जन्म से आज तक यह गहरे विचार और तुमुल विवाद का विषय बनी हुई है. इसके प्रारंभिक पाठकों में से एक थे गोपालकृष्ण गोखले. वे 1912 में मो. क. गांधी के आमंत्रण पर, उनका आंदोलन देखने दक्षिण अफ्रीका गए थे और तभी उन्हें यह किताब पढ़ने का मौका मिला. पढ़ कर उनके होश उड़ गए थे कि यह आदमी, जिसमें वे देश-समाज के भले की कई संभावनाएं देख रहे हैं, ऐसी उल्टी खोपड़ी के विचार रखता है! बहुत संभालकर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की: गांधीजी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही इस पुस्तक का नाश कर देंगे. उन्हें पक्का लगा था कि इस किताब में कालजयी कुछ भी नहीं है. (वे गलत साबित हुए. गांधीजी ने भारत आकर, सालों काम करने के बाद भी इस किताब को जलाने लायक नहीं समझा. किताब लिखने के छह साल बाद गोखले जी की और 38 साल बाद गांधीजी की चिता जली, किताब अभी भी बनी हुई है!). गांधीजी के एक मित्र ने, जिसका नाम उन्होंने बताया नहीं, इसे पढ़कर कहा: यह एक मूर्ख आदमी की रचना है. (वे भी गलत साबित हुए क्योंकि उस मूर्ख आदमी के पीछे, दुनिया भर में मूर्खाें का काफिला चलता-बढ़ता ही जा रहा है!)… और गांधी?… भारत आने और एक नहीं कई साल यहां बिताने के बाद उन्होंने लिखा: इसे लिखने के बाद के तीस साल मैंने आंधियों में बिताए हैं, उनमें मुझे इस पुस्तक में बताए हुए विचारों में फेर-बदल करने का कुछ भी कारण नहीं मिला.
वे हर मुद्दे पर बहस में उतरते हैं, कटाक्ष भी करते हैं, ललकारते भी हैं. वे उन सारी मान्यताओं की धज्जियां उड़ा देते हैं जो आज की सभ्यता की ध्वजा उठाए फिरती हैं
किताब संपादक व पाठक के बीच सवाल-जवाब की शैली में लिखी गई है और इसमें भारत की आजादी के सवाल से कहीं ज्यादा, मनुष्य-मात्र की आजादी के सवाल को उठाया गया है. सभ्यता के जिस संघर्ष की बात आज एकदम ही अलग ढंग से की जा रही है, गांधी ने उस संघर्ष को तभी पहचाना था और अपनी पूरी तीव्रता व गहनता से हमें समझाया भी था. यह वह दौर था जब मोहनदास करमचंद गांधी के भीतर ‘गांधी’ का बीजारोपण हो चुका था और वे अपनी जमीन मजबूत करने के दौर से गुजर रहे थे. दक्षिण अफ्रीका का अनोखा संघर्ष अपनी पांखे खोल रहा था. (‘मुश्किल से दो ही साल का बच्चा था!’) और गांधी पर, उनकी सोच पर चारों तरफ से हमले हो रहे थे. हमले में बाहर के आलोचक भी शामिल थे और उनके साथ लड़ रहे लोग भी. इतिहास, संस्कृति, लड़ाई, हथियार, सभ्यता, विकास आदि-आदि तमाम बातें थीं जिनकी परिभाषा भी उन्हें नई बनानी थी, उन्हें लोगों के सामने पूरी गहनता व तीव्रता से रखना था और लड़ाई के हथियारों के रूप में स्थापित भी करना था.
इस किताब में गांधी इन सारे रूपों में दिखाई देते हैं- अपनी स्थापनाओं के प्रति आग्रही भी, आक्रामक भी. वे हर मुद्दे पर बहस में उतरते हैं, कटाक्ष भी करते हैं, ललकारते भी हैं. वे उन सारी मान्यताओं की धज्जियां उड़ा देते हैं जो आज की सभ्यता की ध्वजा उठाए फिरती हैं. उन्हें इसका पूरा अंदाजा है कि औद्योगिक सभ्यता की तड़क-भड़क इतनी सम्मोहक है और उसकी पहुंच इतनी व्यापक है कि उस पर हमला करते हुए किसी संकोच से काम नहीं चलेगा. लेकिन वे जो लिखते हैं, वह उनकी गहरी समझ में से विकसित हुआ है: ‘लंदन में रहने वाले हर एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में मैं आया. उनकी शूर-वीरता का असर मेरे मन में पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उल्टी राह पकड़ ली है. मुझे लगा कि हिंसा हिंदुस्तान के दुखों का इलाज नहीं है, और उसकी संस्कृति को देखते हुए आत्मरक्षा के लिए कोई अलग व ऊंचे प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए.’
लेकिन यह किताब मात्र तो थी नहीं; थी यह गांधी की लड़ाई की गीता जिससे वे अपना महाभारत रचना चाहते थे. इसलिए विरोधी इसी किताब से उनकी पिटाई करते रहे थे. इसलिए 1921 में गांधी फिर इस किताब को सही संदर्भ में दुनिया के सामने रखते हैं: ‘मेरी राय में यह किताब ऐसी है कि वह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है. यह द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है… इस किताब में आधुनिक सभ्यता की सख्त टीका की गई है… क्योंकि… मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान आधुनिक सभ्यता का त्याग करेगा तो उससे उसे लाभ ही होगा… रेलों या अस्पतालों का नाश करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं जरूर उसका स्वागत करूंगा. रेल या अस्पताल दोनों में से एक भी ऊंची और बिल्कुल शुद्ध संस्कृति की सूचक नहीं है. ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकते हैं कि वह ऐसी बुराई हैं जो टाली नहीं जा सकतीं. दोनों में से एक भी हमारे राष्ट्र की नैतिक ऊंचाई में एक इंच की भी बढ़ती नहीं करती. उसी तरह से मैं अदालतों के स्थायी नाश का ध्येय मन में नहीं रखता, हालांकि ऐसा नतीजा आए तो मुझे अवश्य अच्छा लगेगा. यंत्रों और मिलों के नाश के लिए मैं उससे भी कम कोशिश करता हूं. उसके लिए लोगों की आज जो तैयारी है उससे कहीं ज्यादा सादगी और त्याग की जरूरत रहती है… हिंदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे, तो स्वराज्य स्वर्ग से हिंदुस्तान की धरती पर उतरेगा. लेकिन मुझे दुख के साथ इस बात का भान है कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है. ये वाक्य मैं इसलिए लिख रहा हूं कि आज के आंदोलन को बदनाम करने के लिए इस पुस्तक की बहुत सी बातों का हवाला दिया जाता मैंने देखा है. मैंने इस मतलब के लेख भी देखे हैं कि मैं कोई गहरी चाल चल रहा हूं, आज की उथल-पुथल से लाभ उठाकर अपने अजीब ख्याल भारत के सिर पर लादने की कोशिश कर रहा हूं और हिंदुस्तान को नुकसान पहुंचाकर, अपने धार्मिक प्रयोग कर रहा हूं. इसका मेरे पास यही जवाब है कि सत्याग्रह ऐसी कोई खोखली चीज नहीं है. इसमें कुछ भी दुराव-छिपाव नहीं है, उसमें कुछ भी गुप्तता नहीं है.’
बहुत बाद में, जब आजादी फलक पर किसी क्षीण रेखा सी दिखाई देने लगी थी और गांधी के लोग गांधी से अलग किसी भारत की रेखाएं खींचने की सोचने लगे थे, गांधी ने जवाहरलाल नेहरू को सीधे ही सामने खड़ा किया था. उन्होंने लिखा कि मैंने तुम्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है लेकिन मेरे-तुम्हारे बीच फासले बढ़ते ही जा रहे हैं और वे बहुत बुनियादी किस्म के हैं, इसिलए कहीं दुनिया में भ्रम न रह जाए, अत: मैं चाहता हूं कि भारत के भावी के बारे में हमारी-तुम्हारी साफ बात हो जाए. ऐसा कह कर वे फिर इसी पतली सी किताब की याद दिलाते हैं. जवाहर जवाब में लिखते हैं कि हां, ऐसी एक आपकी किताब थी तो जरूर जिसे मैंने सालों पहले पढ़ा था. उसकी कुछ धुंधली सी स्मृति है मुझे लेकिन वह तब भी मुझे किसी खास मतलब की नहीं लगी थी, और आज तो हालात एकदम ही बदल गए हैं. ऐसे में उस किताब की बात… गांधी तुरंत जवाब देते हैं: मैं आज भी अपनी उस किताब पर उसी तरह कायम हूं और जिसे तुम बदले हुए हालात कहते हो, उनमें मुझे ऐसा कुछ नहीं लगता है जिनके कारण मैं इस किताब में कुछ बदलूं… इसलिए जरूरी है कि हम समय निकालकर साथ बैठ लें और देश-दुनिया के सामने अपना नजरिया साफ कर दें. जवाहरलाल ने इस घनचक्कर के साथ किसी चक्कर में न पड़ना ही ठीक समझा और व्यस्तता आदि लिखकर इस किताब से छुटकारा पाया. बाद में तो देश ने गांधी से ही छुटकारा पा लिया !
1909 में लिखी गई इस किताब ने 100 साल का सफर पूरा किया है और आज भी हमारे बीच खड़ी है. किसी वैचारिक किताब की शताब्दी को लेकर देश-दुनिया में चर्चा हो रही हो, आयोजन हो रहे हों तो उसकी शक्ति समझी जा सकती है. यह किताब सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी (उ.प्र.) से प्राप्त की जा सकती है.
(कालजयी लेखन, 15 अप्रैल 2009 में प्रकाशित)