आपने पुरुषों के वर्चस्व वाली विधा आलोचना को अपनाया. क्या स्त्री होने के नाते इसमें परेशानियां उठानी पड़ीं आपको?
ऐसा तो नहीं है लेकिन हां, जितना काम मैंने किया है, अगर किसी पुरुष ने किया होता तो उसे बहुत प्रसिद्धि मिली होती. पुरुषों की एक-दो किताब आते ही उन पर व्यापक चर्चा आरंभ हो जाती है लेकिन इतना काम करने के बाद भी मुझे उतनी मान्यता नहीं मिली. मेरे स्त्री होने का जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ है, वो यही है. वैसे अधिकांश पुरुष मानते हैं कि महिलाओं की बुद्धि घुटने में होती है. बाद में ऐसा होने लगा कि जब सभा-सम्मेलनों में मैं उनके समकक्ष बोलती या चीजों की व्याख्या करती थी तब जाकर बड़ी मुश्किल से लोगों ने मानना शुरू किया कि मैं जानती हूं. हालांकि मुझे अपने परिवार से काफी सहयोग मिला. मेरे पति ने भी मुझे काफी सहयोग दिया. अमूमन लड़कियों को जो दिक्कतें आती हैं, मुझे वो कभी नहीं आईं. वैसे उनकी साहित्य में बिल्कुल रुचि नहीं थी. उन्हें हिंदी भी ठीक से नहीं आती थी, सिर्फ अंग्रेजी ही बोलते थे. वो ये समझ भी नहीं पाते थे कि मैं क्या काम कर रही हूं, फिर भी मेरे काम को हमेशा सराहते थे. इसलिए मैं हमेशा कहती हूं कि केवल सफेद और काला नहीं होता बीच में एक ग्रे एरिया भी होता है. कुछ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो आपको बढ़ावा दें मदद करें.
आपका परिवार व्यापार-कारोबार वाला रहा, फिर आपकी रुचि साहित्य में कैसे जगी?
पढ़ने में मेरी रुचि शुरू से थी, लेकिन जब स्नातक में आई तो साहित्य में रुचि जगी. कॉलेज में साहित्यिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगी तो प्रशंसा मिलने लगी. इस तरह भागीदारी भी बढ़ने लगी. मैंने जब पढ़ाना शुरू किया तो मेरी पहली ही नियुक्ति लेडी श्रीराम कॉलेज में सीधे विभागाध्यक्ष के पद पर हुई. 14 साल तक उस कॉलेज में रहने के बाद यूनिवर्सिटी में आ गई और यहां भी शीर्ष पर रही. मेरे विभाग में 18 पुरुष थे और उनके बीच मैं अकेली स्त्री. 18 पुरुषों के बीच मैं लगातार रहती थी, काम करती थी. मैं वहां लगभग पुरुषवत ही रहती थी, मतलब मुझे कभी ऐसा लगता ही नहीं था कि मैं स्त्री हूं और इतने पुरुषों के बीच अकेली रहती हूं.
क्या तब से अब तक पुरुषों के नजरिये में बदलाव आया है?
पूरे समाज के बारे में एक सामान्य धारणा बनाना सही नहीं है. अलग-अलग वर्गों-समुदायों के पुरुषों में उनकी शिक्षा के अनुसार फर्क तो निश्चित रूप से आया है. अब स्त्रियों की क्षमता को पुरुष पहचानने लगे हैं. दूसरा, स्त्री को अपने अधीनस्थ मानने की प्रवृत्ति जो थी, उसमें भी फर्क आया है. एक तीसरा पक्ष भी है जो स्याह है. वो ये की अब पुरुषों की रुचि स्त्री की कमाई में होने लगी है. देखिए, शादी के लिए लड़की खोजने निकलते हैं तो उन्हें कामकाजी लड़की चाहिए. इसके पीछे सोच ये नहीं होती कि लड़की आत्मनिर्भर होगी, समझदार होगी बल्कि ये कि वह पैसे कमाएगी. वे कामकाजी लड़की इसलिए नहीं खोजते कि एक पढ़ी-लिखी, समझदार व बराबर की भागीदारी निभाने वाली लड़की घर में आएगी, बल्कि वे स्त्रियों से दोहरा काम लेने की कोशिश करते हैं.
आलोचक की पाठक और रचनाकार के बीच में क्या भूमिका है?
आलोचक की ऐसी कोई भूमिका नहीं होती है. वह बस रचना को जैसा समझता है, उसका विश्लेषण कर देता है. अब ये पाठक पर है कि वो चाहे तो विश्लेषण को पढ़ कर कोई दृष्टि विकसित कर ले रचना को समझने की. कभी-कभी हम समीक्षा को पढ़ कर उपन्यास या कहानी या कोई रचना पढ़ते है किंतु कभी-कभी सीधे रचना को ही पढ़ना पसंद करते हैं. विजय नारायण साही कहा करते थे कि जैसे रेडियो में कांटा घुमा-घुमा कर सही जगह पर टिका देते हैं और संगीत सुनाई देने लगता है, उसी तरह सही आलोचक का काम भी यही है कि वह पाठक की सुई को सही रचना पर टिका दे. पाठक की रुचि को सही दिशा प्रदान करने में स्वरूप प्रदान करे. लेकिन अगर समझदार पाठक है तो अपनी समझ और सोच के अनुसार रचना को पढ़ेगा.
विमर्शों की बात करें तो एक खेमा कहता है- दलित की बात दलित ही लिख सकता है, आदिवासी की बात आदिवासी और महिला की बात महिला ही लिख सकती है…!
इस मसले पर मेरी राय शुरू से स्पष्ट है. मेरा मानना है कि कोई भी अपनी बात खुद लिख ही नहीं सकता. क्योंकि वो बड़ा सब्जेक्टिव लिखेगा. आपको ये फैसला करना है कि साहित्य को आप नितांत निजी तौर पर लिखते हैं या खुद को विषय से अलग करके लिखते हैं. अगर आप दलित हो कर दलित साहित्य लिख रहे हैं तो आपके अंदर जो दलित तत्व है उससे हटना होगा, बचना होगा. हटेंगे तभी आप निरपेक्ष होकर उसकी बात करेंगे. आप अपनी बात जब भी कहेंगे, बढ़ा-चढ़ा कर कहेंगे. आप को अपना दुख सारे संसार से ज्यादा बड़ा लगेगा. जब तक आप इससे ऊपर नहीं उठेंगे, अपनी बड़ी बात नहीं कह सकते. दलित रचनाकारों की रचना उठा के देखो, एक ही तरह की बातें लिखी मिलेंगी. स्त्रियों को ले लो, सब की रचना में एक ही तरह की बात पढ़ने को मिलेगी. ऐसा नहीं है कि दुख सिर्फ दलितों, आदिवासियों या महिलाओं के हिस्से में ही आए हैं, दुखों के अपने-अपने अलग रूप होते हैं. मैं इस समस्या को इस नजरिये से देखती हूं कि दो हिस्से की लड़ाई है ये. जिसमें एक को तरक्की के ज्यादा अवसर मिले और एक को कम.
आपके पसंदीदा कवि कौन हैं?
कोई एक पसंद हो तो बताऊं. मुझे अलग-अलग कारणों से कई कवि पसंद हैं. रचनाकारों में रेणु मुझे मुकम्मल तौर पर पसंद हैं. अज्ञेय जी की भी कई कविताएं काफी पसंद हैं. कुछ रचनाकार कुछ खास चीजों के लिए पसंद होते हैं. मुक्तिबोध अपनी गहरी वैचारिकता के लिए पसंद हैं. अज्ञेय विषयों को बड़ी पैनी नजर से पकड़ते हैं, उसके लिए पसंद हैं. अज्ञेय के अंदर एक आलोचक बैठा रहता है. अज्ञेय ने हिंदी की शब्दावली को काफी समृद्ध किया है. आलोचना को कई नए शब्द अज्ञेय ने दिए हैं. कई मारक सूक्तियों की रचना की है एवं बड़े ही सलीकेदार इंसान रहे हैं. आपके पूरे भाषण को अपने एक वाक्य से ध्वस्त करने की कला अज्ञेय में लाजवाब है.
नंदकिशोर नवल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि धूमिल के बाद कोई मुकम्मल कवि नहीं हुआ. आप क्या कहेंगी?
ये तो पराकाष्ठा है. वे स्पष्ट करें मुकम्मल होना क्या होता है. कवि तो कवि होता है. धूमिल के बाद तो नागार्जुन भी हुए हैं. धूमिल ने तो एक ही ढर्रे की कविताएं लिखी हैं. पर धूमिल का प्रोपेगेंडा के तहत प्रचार बहुत किया गया. अगर आप किसी वाद से जुड़े होते हैं तो बहुत तारीफ की जाती है और कम उम्र में मृत्यु हो जाए तो उसे शहादत का दर्जा दे दिया जाता है. इस कारण से भी उन्हंे प्रसिद्धि मिली. बहुत-से कवियों ने उनके बराबर की कविताएं लिखी हैं.
हिंदी में साहित्यकार बनकर आप जीवन की गाड़ी नहीं खींच सकते, जबकि भारत में ही दूसरी भाषाओं के रचनाकारों के साथ ऐसी स्थिति नहीं?
यह समस्या लेखक की नहीं है. यह समस्या खरीदारों की है. अन्य भाषाओं की रचनाओं के खरीदार सोच से समृद्ध हैं, जबकि हिंदी के पाठक उधार की किताब लेकर पढ़ लेंगे पर खरीदकर नहीं. पटना के पुस्तक मेले में मैंने देखा है कि मैले-कुचैले कपड़े पहनने वाला व्यक्ति भी एक-दो किताबें खरीद कर ही निकलता है. बड़े शहरों के पाठक पुस्तक मेले को एक पिकनिक की तरह लेते हैं. जाते हैं, घूम-फिर कर, खा-पीकर और मौज-मस्ती कर वापस हो लेते हैं. हां! कोई सनसनीखेज किताब आए तो खरीद लेते हैं. तस्लीमा नसरीन की ‘लज्जा’ को ही ले लो, एक दिन में तीन हजार प्रतियां तक बिकी हैं. अश्लील या सनसनीखेज लिखो तो खरीदार मिल जाएंगे.
आलोचना दो कसौटियों पर कसी जाती है, एक सौंदर्यशास्त्र पर और दूसरी रस सिद्धांत पर. आपको क्या लगता है, नई विमर्श और नए अस्मिताओं के उभार के दौर में कसौटी बदलने की जरूरत है?
कसौटी तो इस बात से तय होती है कि रचना किस तरह की मांग करती है. अगर रचना सौंदर्यशास्त्र की है तो आप उसे कसौटी पर कस सकते हैं. पर नागार्जुन की रचना को किस कसौटी पर कसेंगे? मैंने लिखा भी है कि आलोचना के प्रतिमान रचना की प्रकृति से तय होते हैं. आलोचना की कसौटी पर बिना किसी हथियार के रचना में प्रवेश करना चाहिए. अगर पहले से ही आप तय कर और कसौटी पर कसने कि कोशिश करेंगे तो आप उस रचना के साथ न्याय नहीं कर सकते. जिसमें परंपरागत सौंदर्य है ही नहीं, उसमें सौंदर्य तलाशने लगें तो कहां से मिलेगा? बताइए.