किसी ने सोचा नहीं था कि 15 साल तक दिल्ली पर राज करने वाली शीला दीक्षित का सियासी सितारा इस तरह डूबेगा. लोगों को यह तो जरूर लगता था कि कांग्रेस के प्रति लोगों में गुस्सा है, लेकिन साथ ही यह बात भी थी कि दीक्षित ने दिल्ली में काफी काम किए हैं और हो सकता है कि एक बार फिर से दिल्ली की सत्ता में उनकी वापसी हो जाए.
लेकिन 70 सदस्यों वाली विधानसभा में उनकी पार्टी आठ पर सिमट गई. और दीक्षित के लिए सबसे ज्यादा झटका देने वाली बात तो यह हुई कि वे अपना चुनाव उस अरविंद केजरीवाल से हार गईं जिसके बारे में उन्होंने चुनाव के दिन यह पूछा था कि यह कौन है. वे जिस नई दिल्ली सीट से चुनाव लड़ती हैं वहां सरकारी कर्मचारियों की बड़ी संख्या में मौजूदगी की वजह से भी यह लग रहा था कि कम से कम शीला दीक्षित अपनी सीट तो निकाल ही लेंगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और वे बड़े अंतर से पराजित हुईं.
अब हर तरफ यह सवाल उठने लगा है कि लगातार 15 साल तक देश की राजधानी में कांग्रेस का झंडा बुलंद रखने वाली दीक्षित का सियासी सफर अब यहां से आगे किधर जाएगा.
जानकारों की मानें तो यहां से दीक्षित के लिए तीन रास्ते हैं. इसमें सबसे पहला तो यह है कि उनकी उम्र को देखते हुए कांग्रेस पार्टी उन्हें घर बैठा दे और अगला विधानसभा चुनाव किसी नए नेता के नेतृत्व में लड़ने की योजना बनाए. दूसरा रास्ता यह है कि उनको पार्टी के केंद्रीय ढांचे में कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दे दी जाए और लोकसभा चुनावों में उनके अनुभव का इस्तेमाल किया जाए. लेकिन शीला दीक्षित के लिए व्यक्तिगत तौर पर इसमें दिक्कत यह है कि केंद्र में कांग्रेस की वापसी की संभावना बेहद कम है और ऐसे में उनके लिए कुछ खास करने को बचेगा नहीं. इसमें कांग्रेस की मुश्किल भी यह है कि वह बुरी तरह से हारे हुए नेता को आगे रखकर कोई योजना नहीं बना सकती.
एक विकल्प यह भी है कि शीला दीक्षित को कांग्रेस में राष्ट्रीय स्तर का कोई पद दे दिया जाए और किसी राज्य का प्रभारी बना दिया जाए और धीरे-धीरे वे अपने राजनीतिक जीवन के अवसान की ओर बढ़ चलें. जो लोग दीक्षित को जानते हैं, उनका यह मानना है कि दीक्षित इन विकल्पों में से किसी के लिए भी स्वेच्छा से तो तैयार नहीं होंगी. अगर कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व या यों कहें कि सोनिया गांधी उन पर दबाव डालती हैं तब ही वे ऐसा करेंगी.
तो फिर ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर शीला दीक्षित करेंगी क्या. यहीं से तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण रास्ते की जमीन तैयार होती है. एक ऐसे समय में जब दिल्ली विधानसभा में सबसे अधिक सीटें पानी वाली दोनों पार्टियों में से कोई भी सरकार बनाने के लिए तैयार नहीं है तो दोबारा चुनाव ही एकमात्र रास्ता बचता है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि ऐसी स्थिति में शीला दीक्षित सोनिया गांधी को इस बात के लिए तैयार करने की कोशिश करेंगी कि उन्हें दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाए और कांग्रेस अगला चुनाव उनकी अगुवाई में ही पूरा जोर लगाकर लड़े. हो सकता है कि शीर्ष नेतृत्व के सामने और कोई विकल्प नहीं होने की स्थिति में शीला दीक्षित की यह बात मान ली जाए ताकि अगली बार उनकी यह शिकायत नहीं रहे कि कांग्रेस संगठन ने चुनाव में उनका साथ नहीं दिया. ऐसा करके दीक्षित का लक्ष्य यह नहीं होगा कि वे फिर से दिल्ली की मुख्यमंत्री बन जाएं बल्कि उनकी कोशिश यह होगी कि पार्टी को दिल्ली में एक सम्मानजनक स्तर पर पहुंचाया जाए.
जानकारों के मुताबिक इससे शीला दीक्षित के दो मकसद सधेंगे. पहला तो अगर वे ऐसा करने में सफल रहती हैं और कांग्रेस 2014 में केंद्र की सत्ता से बेदखल हो जाती है तो फिर ऐसे में उन्हें पार्टी के केंद्रीय ढांचे में निश्चित तौर पर कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलेगी. ऐसा होने पर उनके लिए खुद को राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक रखना आसान हो जाएगा और राज्यसभा में पहुंचकर सियासत में वे अपना दखल बनाए भी रख सकती हैं. दिल्ली में कांग्रेस को सम्मानजनक स्थिति में लाने का सबसे बड़ा लाभ शीला दीक्षित को यह होगा कि अगर अगले लोकसभा चुनाव में उनके बेटे संदीप दीक्षित चुनाव हार भी जाते हैं तो उनके राजनीतिक भविष्य पर ग्रहण नहीं लगेगा बल्कि खुद केंद्रीय नेतृत्व में रहकर शीला दीक्षित उन्हें कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दिलाने की कोशिश करेंगी. और अगर संदीप दीक्षित अपनी पूर्वी दिल्ली की लोकसभा सीट बरकरार रखने में सफल हो जाते हैं तो भी शीला दीक्षित की मौजूदगी से उन्हें मजबूती ही मिलेगी.