हिंदी फिल्म उद्योग में असफलता की कहानियां इन फिल्मों की तरह ही नाटकीय और मनोरंजक हैं. कागज के फूल के असफल होने (कहा जाता है कि कुछ दर्शकों को यह फिल्म इतनी बुरी लगी कि उन्होंने टॉकीजों के पर्दे पर पत्थर बरसाए थे) पर गुरुदत्त का निर्देशन से मोहभंग होना या राजकपूर की अति महत्वाकांक्षी फिल्म मेरा नाम जोकर पर दर्शकों की ठंडी प्रतिक्रिया के बाद उनका अभिनय छोड़ना और स्टूडियो गिरवी रखने के लिए मजबूर होना, ऐसी ही कहानियां हैं. उस दौर में निर्देशक जी-जान लगाकर फिल्में बनाते थे और उनकी किस्मत सर्वशक्तिमान दर्शकों के हाथ में होती थी.
लेकिन इस बीच फिल्म उद्योग काफी समझदार हुआ. इसने समझा कि दर्शक ही मनोरंजन के इस कारोबार के विधाता हैं. यह भी कि जब ऐसा है तो इस अबूझ पहेली पर इतना भरोसा क्यों किया जाए. इसी सोच का नतीजा है कि आज फिल्म उद्योग के इस विधाता की ताकत आधी से भी कम हो चुकी है. कुछ मामलों में तो दर्शकों को बिलकुल भुला ही दिया गया है. वे अब निर्माता-निर्देशकों-कलाकारों की जेब को प्रभावित करने की ताकत नहीं रखते. फिल्मी कारोबार में कमाई के नए तौर-तरीके ईजाद होने के बाद फिल्म की कमाई का आधा हिस्सा बॉक्स ऑफिस से आता है तो बाकी फिल्म रिलीज होने के पहले ही उसके गीत-संगीत और प्रसारण के अधिकारों की बिक्री से. और यदि फिल्म में खान तिकड़ी में से कोई एक काम कर रहा है तो फिल्म की शूटिंग के पहले ही वह मुनाफा कमा लेती है. जैसे कुछ खबरों के मुताबिक स्टार नेटवर्क ने दबंग-2 के अधिकार पहले ही 50 करोड़ में खरीद लिए हैं.
फिल्मों के बदले कारोबार का एक पहलू और भी है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में एक सिनेमाघर के मालिक बहुत नाराज हैं. उन्होंने रा.वन के लिए पांच लाख रुपये दिए थे. पहले हफ्ते में उन्हें डेढ़ लाख रुपये वापस मिले. दूसरे हफ्ते तक फिल्म पिटने लगी. नतीजा? इस हफ्ते उनकी कमाई 50 हजार रुपये तक सिमट गई और तीसरे हफ्ते उनके शो देखने कोई नहीं आया. उन्हें इस फिल्म में लगभग तीन लाख रुपये का घाटा हुआ और वे आज भी शाहरुख खान को कोस रहे हैं.
वहीं दूसरी तरफ मुंबई में शाहरुख ने रा.वन हिट होने की खुशी में एक पार्टी आयोजित की थी. अखबारों में एक पृष्ठ के विज्ञापन के साथ यह घोषणा भी की गई कि फिल्म का सीक्वेल बनाने की तैयारी चल रही है. उत्तर प्रदेश के सिनेमाघर मालिक से उलट मुंबई में शाहरुख के घर पर हुई इस पार्टी की अपनी वजहें थीं. 150 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने रिलीज के पहले ही न सिर्फ अपनी लागत वसूल कर ली बल्कि कुछ करोड़ का मुनाफा भी बटोर लिया था. रा.वन ने रिलीज के पहले ही वितरण अधिकार बेचकर 77 करोड़, टीवी प्रसारण अधिकार से 35 करोड़ और संगीत अधिकार से 15 करोड़ रुपये कमा लिए थे. 10 करोड़ की अतिरिक्त कमाई म्यूजिक लॉन्च के प्रसारण अधिकार से भी हुई और 50 करोड़ की कमाई विभिन्न ब्रांडों से टाइअप से हुई. इन आंकडों की एक चौंकाने वाली व्याख्या यह है कि जब शाहरुख खान और उनकी टीम के पास इतना पैसा पहले ही आ चुका था तब भारत में यदि एक भी आदमी उनकी फिल्म देखने नहीं जाता तो भी वह हिट थी.
शाहरुख की हालिया फिल्म डॉन 2 की लागत भी 75 करोड़ रुपये थी. इसे रिलायंस एंटरटेनमेंट ने 80 करोड़ रुपये में खरीदा और फिल्म ने 37 करोड़ रुपये टीवी अधिकार बेचकर हासिल किए और 10 करोड़ रुपये संगीत अधिकार के जरिए.
जिस व्यापार में कम जोखिम पर अच्छा मुनाफा होगा, वहां जाहिर है कई कारोबारी भी आएंगे. हिंदी फिल्म उद्योग में भी यही हो रहा है
कुछ इसी तरह की खबरें सलमान खान की एक था टाइगर के टीवी प्रसारण अधिकार के बारे में भी आ रही हैं. आमिर खान की तलाश, जिसका बजट 40 करोड़ रुपये है, के बारे में कहा जा रहा है कि अपनी लागत के बराबर राशि में ही फिल्म के टीवी प्रसारण अधिकार बिके हैं और रिलायंस एंटरटेनमेंट ने इसे 90 करोड़ में खरीदा है.
फिल्मी कारोबार का यह नया गणित किसी को भी हैरान कर सकता है. यूटीवी मोशन पिक्चर्स में इंटरनेशनल डिस्ट्रीब्यूशन एंड सिंडीकेशन की उपाध्यक्ष अमृता पांडे कहती हैं, ‘दस साल पहले तक बॉक्स ऑफिस से होने वाली कमाई किसी फिल्म के कारोबार का 90 फीसदी होती थी. अब ये 40-50 फीसदी तक सिमट गई है.’ एक मोटे अनुमान के मुताबिक किसी फिल्म के टीवी प्रसारण अधिकार से फिल्म की कमाई का तीस फीसदी मिल जाता है. बीस फीसदी हिस्सा फिल्म के विदेशों में प्रसारण, संगीत और इंटरनेट अधिकार की बिक्री से निकल आता है. पिछले दस सालों में फिल्मों से कमाई के ढेरों तैयार हुए हैं. अकेले संगीत प्रसारण से कमाई के अब कई विकल्प हैं जैसे रेडियो, केबल व टीवी प्रसारण अधिकार और मोबाइल रिंगटोन. हिंदी फिल्मों को अब नए बाजार भी मिल रहे हैं. ब्रिटेन और अमेरिका जैसे परंपरागत विदेशी बाजारों के अतिरिक्त हिंदी फिल्मों का भावनात्मक पक्ष ब्राजील, पोलैंड ओर चेकोस्लावकिया के दर्शकों को भी लुभा रहा है. पांडे स्वीकार करती हैं, ‘अगर फिल्म थियेटरों में न चले तब भी हमारे पास कई तरीके हैं जिससे हम कोशिश करते हैं दर्शकों के मनचाहे समय और जगह पर हम इसे उपलब्ध करा दें, इसके लिए टीवी, इंटरनेट और वीडियो ऑन डिमांड जैसे विकल्प हैं.’
फिल्मों के कारोबार से जुड़े वित्त विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हर एक विकल्प के माध्यम से ही फिल्म को पांच फीसदी दर्शक मिल जाएं तो फिल्म मुनाफा कमा लेती है. यही वह तरीका है जिसकी बदौलत यूटीवी ने पिछले दिनों तीस मार खां, वी आर फैमिली और आई हेट लव स्टोरीज जैसी फिल्मों के बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट जाने के बावजूद मुनाफा कमाया था.
तो आखिर बॉलीवुड में इस बदलाव का निर्णायक मोड़ कहां था? असल में फिल्मों से जुड़े जोखिम को खत्म करने की शुरुआत आज से बारह-पंद्रह साल पहले मानी जा सकती है. तब बॉलीवुड में व्यावसायिक साझेदारी और समझदारी से फिल्में बनने की शुरुआत हुई. इससे पहले माना जाता था कि हिंदी फिल्मों में कहीं न कहीं संदिग्ध फायनेंसरों और माफिया समूहों का पैसा लगा हुआ है. कंपनियों के फिल्म निर्माणक्षेत्र में उतरने के बाद वितरण और मार्केटिंग में भी व्यावसायिकता दिखने लगी. पहले किसी फिल्म के 400 प्रिंट रिलीज होना एक बड़ी बात मानी जाती थी. आज रा.वन और अग्निपथ जैसी फिल्में शुरुआती 4,000 और 2,700 प्रिंटों के साथ रिलीज हो रही हैं. आज फिल्मों की लागत का एक तिहाई हिस्सा उसकी मार्केटिंग पर खर्च होता है. जाहिर है ये किसी रोजमर्रा की वस्तु मार्केटिंग नहीं है जिसे सालों तक के लिए अपना बाजार बनाकर रखना है. इसलिए फिल्म की अपने बजट के हिसाब से इतनी आक्रामक मार्केटिंग होती है ताकि कम से कम पहले हफ्ते के आखिरी तीन दिन तो दर्शकों को बॉक्स ऑफिस तक लाया जा सके. फिल्म कारोबार विश्लेषक इंदु मिरानी बताती हैं, ‘आज फिल्मों का धंधा इतना सुरक्षित हो गया है कि किसी निर्माता की फिल्म फ्लॉप होने की स्थिति में उसके दिवालिया होने की नौबत नहीं आती.’
जिस व्यापार में कम जोखिम पर अच्छा मुनाफा होगा, वहां जाहिर है कई कारोबारी भी आएंगे. हिंदी फिल्म उद्योग में भी यही हो रहा है. अब हमारे यहां थोक में फिल्में (हर साल लगभग 1,000 फिल्में) बन रही हैं. इनमें से ज्यादातर में इस फॉर्मूले का ध्यान रखा जा रहा है कि दर्शकों को रिझाने के लिए ऐसा कोई आकर्षण जरूर हो जिससे फिल्म रिलीज होने के कम से कम दो दिन बाद तक ये थियटरों में भीड़ जुटाती रहे. आइटम नंबर, फाइट सीक्वेंस और नायक की बजाय महानायक की उपस्थिति इन फिल्मों की जान है (बॉडीगार्ड, सिंघम, अग्निपथ और आने वाली फिल्में राउडी राठौर, एक था टाइगर, दबंग 2 और धूम 3).
फिलहाल ज्यादातर प्रोडक्शन हाउसों ने अपने निवेश को तीन तरह की फिल्मों के लिए बांट कर रखा है. बिग, मीडियम और स्मॉल बजट फिल्में. सबसे ज्यादा निवेश बड़े सितारों वाली और एक्शन थीम की फिल्मों के लिए रखा जाता है. मीडियम बजट कॉमेडी और बॉलीवुड की परंपरागत रोमांस वाली फिल्मों के लिए होता है. इनके बारे में समझा जाता है कि इनमें निवेश अधिक सुरक्षित है. छोटा निवेश प्रयोगवादी फिल्मों के लिए होता है. वायाकॉम 18 ने बड़े बजट की फिल्म प्लेयर्स (हाल की सबसे फ्लॉप फिल्म) बनाई थी लेकिन इसका घाटा सुजॉय घोष की कहानी से पूरा कर लिया. यूटीवी अक्षय कुमार की राउडी राठौर बना रहा है. लेकिन इसी प्रोडक्शन हाउस ने पान सिंह तोमर भी बनाई थी. इसी तरह से यशराज फिल्म्स आमिर खान के साथ धूम 3 बना रहा है और इसके साथ ही नए निर्देशक हबीबी फैजल की पहली फिल्म इशकजादे का भी निर्माता है.
फिल्म लेखिका नंदिना रामनाथ कहती हैं, ‘फिल्मों में एक बड़ा बदलाव उनके बजट में आया है. आजकल एक औसत बजट की फिल्म से आप बेहतर बिजनेस की उम्मीद कर सकते हैं. एक ऑफबीट फिल्म के लिए एक 300 सीट के मल्टीप्लेक्स को भरना आसान है बजाय 900 सीट के एक सिंगल स्क्रीन के. लेकिन मल्टीप्लेक्स अपने भारी खर्चे की वजह से बड़ी फिल्मों को दिखाने में ही दिलचस्पी दिखाते हैं.’
फिल्मों के इस बदलते कारोबार में बेशक दर्शक हाशिये पर पहुंच रहे हैं लेकिन आज भी एक बात जो नहीं बदली वह यह कि उनके लिए फिल्में एक टाइमपास हैं. और वह उन्हें नहीं मिलेगा तो उनके पास भी अब टीवी शो- क्रिकेट सहित कई विकल्प हैं.