एक ही सड़क। उस पार है वह गली रामदुलाल सरकार दूसरी ओर है बेथुन रो। तकरीबन डेढ सौ साल से भी ज़्यादा हुआ। मैं यहां आकर खड़ा हूं। बेहद अचंभित। मकान नंबर है 133, भव्य लाल रंग और ऊँचा। इस पुराने मकान से जुड़ी न जाने कितनी होंगी कहानियां। बाहर से बंद दिखता है मकान। मुखौटे से लगती हैं इसकी बंद हरी खिड़कियां। शायद इन्हें बंद किया गया है। जिससे चहचहाती गौरैया अंदर न आ जाए। धूप और गर्मी न आए। बाहर सड़क से गुजरने वाले लोग अंदर न झांकने लगें।
दरवाजे के अंदर मैं कदम रखता हूं। लगता है धीरे-धीरे मैं प्रेमिका के कदमों की आहट पर पीछे-पीछे चल रहा हंू। क्या बढिय़ा महक है पक रहे गोश्त की। मसालों की सुंगंध नाक में समा जाती है। न जाने कितनी तरह के मसाले उसमें पड़े होंगे। गहरी सांस लेता हूं। तकरीबन डेढ़ सौ साल से पहले ऐसी ही सांस ली थी शायर गालिब ने जब वे यहीं होते थे।
धूल भरे शहरों में धोड़े पर सवार मिजऱ्ा ग़ालिब अपनी बकाया पेंशन लेने जाते थे।। लखनऊ से पहले, जहां तब निखालिस उर्दू बोली जाती थी। एकदम अलग, दिल्ली की उर्दू जबान से। न जाने कितने मसखरे तब होते थे जो अपनी सांस्कृतिक पहचान के दीवाने थेे और वे तो बुरा सलूक कर बैठते थे शायर मीर तकी मीर से भी।
फिर वह काशी जिसे ग़ालिब काबा-ए-हिंदोस्तां कहते थे। इसी शहर के नाम पर उनकी गज़ल भी है। यहां वे लोग भी आते थे जो अपने सुलगते दिलों के साथ यहां की वेश्याओं की लचकती कमर का बोशा लेने आते थे।
सूरज के शीशे में बनारस की छाया नाचती हुई लगती है। उन्होंने चिराग-ए-दैर (मंदिर का दिया) में प्रार्थना की है कि ‘अल्लाह, बनारस की रक्षा करना। यहां स्वर्ग के बाग हैं। इसे बुरी निगाहों से बचाना।’
कलकत्ता में उन्होंने फारसी में अपनी काबिलियत से क्या हंगामा मचा रखा था। इस शहर में उनका समय दो तरह की चिंता में ऐसे गुजऱता था मानों उनके सिर पर दो तलवारें एक दूसरे से टकरा रही हों। परंपरा और शैली में प?? उनके परिंदों के परों को छूती हुई मुहावरों से ही पली-बढ़ी चिडिय़ां सर्र से निकल जाती थीं। कोई भी नहीं टिकती थी।
ऐसे में उनकी तकलीफ को थोड़ा बहुत सुकुन मिलता था। किफायत खान भी उनके लिए राहत का काम करते थे जो ईरान से आए एक दूत थे। लेकिन इन सबसे भी उन्हें कोई लाभ नहीं था। उनका हाल आधे-अधूरे दिल से मांगी गई माफी की तरह था। बेवजह छोटे पंखों वाली रंगीन पंछियों को ललचाने सा। न तो किस्मत थी और न नियति कि ब्रिटिश लार्ड की जिं़दगी ही मददगार हो। वाद-ए-मुखालिफ (हवा का विरोध) व्यंग्य से कम न थी उनकी क्षमायाचना भी। उनकी याचिका खाती रही धूल और बगल में बहती रही गंगा। प्रतिकूल घटनाओं के चलते तकलीफ वैसे ही पीछा करती जैसे नदियां।
हमेशा वे गंगा पर ध्यान जमाए बैठे रहना चाहते थे। लेकिन वे लौट आते बीच रास्ते से ही, वापस दिल्ली को। इच्छा अधूरी ही रह जाती। उनकी शायरी धड़कन थी उनके दिल की। उनकी निराशा उनकी नियति थी। उनकी किस्मत दुख में भी उनके साथ थी। सारा कुछ उनकी काबिलियत पर आधारित था। गालिब कभी व्यंग्य से मुक्त नहीं हो पाए।
पसीने से तरबतर अपने दो गमछों को दो मज़दूरों ने अपने कंधों पर फैला रखा था। ऐसा लग रहा था मानों दो बिल्लियो हरे रंग के दरवाजे के पास बैठी गुर्रा रही हैं। गोया उन्होंने मेरी आवाज़ सुनी। थोड़े अनमने भाव से। इस पुराने मकान को देखने आया था एक ऐतिहासिक यात्री। मेहनत की जिंदगी में फुरसत कहां होती है इतिहास जानने की। और फिर शायरी के लिए तो और भी नहीं।
लेकिन उन्हें पता था कि इस पुराने मकान में एक कुत्ता ज़रूर है। कुत्ता भला क्यों? क्या उस महक पर कुत्ता पहरा देता था। मैं अंधेरे में ऊपर की ओर जाती सीढिय़ों को देखता रहा। इन पर लोहे के जंगले लगे हुए थे। मैं सोचता ग़ालिब कितने आहिस्ता-आहिस्ता इन सीढिय़ों से नीचे-ऊपर चढ़ते-उतरते होंगे। गरीबी और शायरी के बीच उनके मुश्किल दिन कैसे गुजऱते होंगे। बीच-बीच में कैसे वे कहराते दुख की फांक लगाते हुए कैसे हलक से उतारते होंगे पसंदीदा शराब का कड़वा जाम।
जब उन्होंने छोड़ा (अगस्त 1829) तो एक शेर में लिखा कि चलिए, हम खुशकिस्मत हैं कि पहुंच गए कलक दूरी का जख्म भुलाते हुए, अजीज लोगों के साथ पीते हुए शराब । एक खत में तो उन्होंने तारीफ भी है,’हर किसी को शुक्रगुजार होना चाहिए कि ऐसा भी एक शहर, एक शहर, जहां उन्हें ढेरों दुश्मन और कुछ एक ही दोस्त मिले। इनमें कुछ तो बेहद अनोखे थे। जो एक साथ सौ साल पहले और सौ साल बाद की बात करते थे। एक ऐसा शहर जहां बीते हुए कल के सपने देखता है भविष्य।
अचानक नथुनों में फिर आई महक। ताजी हवा की तरह। मुझे भी उड़ा ले चली हवा के झोंके के साथ यादों की ओर। एक भूखे कुत्ते की तरह, वहीं जहां कभी किसी समय गालिब ने भी ली थी सांसे।
मानस फिराक भट्टाचार्य
साभार: बायर इन