देश आज जहां गवाह बन गया है ‘मी टू’ आंदोलन का। ज़्यादातर मीडिया भी उसी और झुक गया है। इस हंगामें के बीच एक खबर जो कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है वह है मौसम परिवर्तन पर। इंटर गवर्नमेंटल पैनेल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की इसी महीने अक्तूबर 2018 में जारी इस रपट की मीडिया में कोई खास चर्चा नहीं हुई।
तहलका का संपादकीय आईपीसीसी की चेतावनी पर केंद्रित (फोकस) है क्योंकि इसमें चेतावनी दी गई है कि सारी दुनिया में तापमान बढ़कर औद्योगिक स्तर के निचले पर तीन डिग्री सेंटीग्रेड तक जा सकते हैं। यानी उस स्तर तक तापमान बढऩे का नतीजा यह होगा कि कई कीेड़े-मकौडे और पौधे गायब हो जाएंगे। साथ ही मालद्वीप, मियामी, शंघाई का बचे रहना कठिन हो सकता है। क्योंकि समुद्री किनारा सिकुड रहा है। जिसके कारण दुनिया के कई हिस्सों में सूखे की स्थिति है कई शहर समुद्र के स्तर से नीचे पहुंच गए हैं।
वैश्विक तापमान अगस्त 2018 में पांचवां सबसे ऊँचा अगस्त तापमान कहलाता है। इसके बाद 1980 से वैश्विक रिकार्ड रखने की शुरूआत हुई। जबकि दस सबसे गर्म वैश्विक भूमि और समुद्र की सतह के तापमान की जानकारी 2009 से हो रही है। पिछले पांच साल यानी 2014 से 2018 तो इस बात के गवाह हैं कि अगस्त में सबसे गर्म पांच अगस्त है जो रिकार्ड है।
1.5 सेंटीग्रेड का तापमान पेरिस में हुआ। क्योंकि वैज्ञानिकों को लगा कि यदि दुनिया इससे भी ज़्यादा गर्म हुई तो रहने का स्थान घटेगा, आहार असुरक्षा बढ़ेगी और बड़े पैमाने पर प्रवास होगा। इंटरनेशनल मोनेटरी फंड की निदेशक क्रिस्टीन लगार्दे ने इस पर कहा,’गलतियों से बचो, जब तक मिलजुल कर कार्रवाई नहीं होगी, इस ग्रह का भविष्य खतरे में ही है’।
आईपीसीसी संयुक्त राष्ट्रसंघ की इंटर गवर्नमेंटल इकाई है। यह पूरी दुनिया के मौसम परिवर्तन का वैज्ञानिक नजरिया उपलब्ध कराता है। इसकी चेतावनी को हल्के में नहीं लेना चाहिए। क्योंकि दुनिया के मौसम वैज्ञानिकों ने कहा है कि हमें मानव- लायक वैश्विक गर्माहट 11.5 सेंटीग्रेड तक लानी चाहिए।
चूंकि तीसरी दुनिया के देशों में प्रवाह (एमिसन) का जो स्तर है उससे उनका विकास ठहर जाएगा। विकासशाील देशों को विकसित देशो से धनराशि (फंड) की ज़रूरत होती है जिससे वे कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिए ज़रूरी उपाय कर सकें। यानी संदेश बहुत साफ है कि जो संपन्न हैं उन्हें सहयोग करना चाहिए क्योंकि वैश्विक गरमाहट से तकलीफ आती है। यह विकसित और अविकसित अर्थव्यवस्था वाले देशो पर समान असर डालती है।
भारत पेरिस प्रतिबद्धता का भागीदार है यह पहले ही 175 गिगावाटस की ऊर्जा रि न्यूएबल ऊर्जा की 2022 तक व्यवस्था करने वाला देश है। ये और ऐसे ही दूसरे प्रतिबद्ध कदमों को अमल में लाने के लिए ज़रूरत है अकूत धनराशि (फंड) की। हमारा ग्रह कंजूसी पर ध्यान टिकाए हुए है। यह समय कि अमीर देश उदारता से तीसरी दुनिया के देशो को सहयोग दें। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2015 में मौसम परिवर्तन पर हो रहे पेरिस समझौते से बाहर आने की घोषणाा यह कहते हुए की थी कि पेरिस समझौते से अमेरिकी अर्थव्यवस्था की अनदेखी होगी और इसका स्थायी नुकसान होगा। जबकि इससे निकल जाने पर अमेरिकी व्यापारियों और श्रमिकों को लाभ होगा। जो हो, पेरिस समझौते से बाहर निकल जाने का भी कोई लाभ नहीं हुआ। आज ज़रूरत है कि अमीर देश अपने बटुए को खोलें जिससे जो अनहोनी है उससे बचा जा सकें।