‘हर कारोबारी को 10 फीसदी मुनाफा दान करना चाहिए’

पिछले साल अन्ना हजारे और उनका जनलोकपाल आंदोलन मीडिया की सुर्खियों में छाया रहा. इस आंदोलन ने आम जनता में एक तरफ जितनी तारीफ बटोरी उतना ही इसे विवादों में घसीटने की कोशिश भी होती रही. इसी दौरान अन्ना हजारे को 25 लाख रुपये का ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ पुरस्कार मिला. जाहिर है जब राजनीतिक स्तर पर इस आंदोलन को बदनाम करने की कुछ सचेत कोशिशें चल रही हों तब पुरस्कार के भी कई निहितार्थ निकाले गए. इस पुरस्कार को देने वाला ‘सीताराम जिंदल फाउंडेशन’ भी उस समय फिर चर्चा में आया और उसके संस्थापक व इस्पात दिग्गजों में शुमार सीताराम जिंदल भी. वे भारत में भ्रष्टाचार-विरोधी लोकपाल बिल का सार्वजनिक तौर पर सबसे पहले समर्थन करने वाले चुनिंदा कारोबारियों में शामिल हैं. जिंदल बताते हैं, ‘अन्ना का समर्थन करने पर मेरे कई कारोबारी मित्र मुझसे नाराज हो गए थे. मुझे इसके लिए धमकियां भी दी गईं.’ 

यह पहला मौका होगा जब शायद इस कारोबारी को किसी सरोकारी काम के लिए धमकियां मिली हों. लेकिन उन्होंने इस बार भी दिल की आवाज सुनी और वे लोकपाल सहित अन्ना आंदोलन के समर्थन पर अड़े रहे. यहां उनके व्यक्तित्व की वही खूबी दिखाई दी जिसकी वजह से वे भारत के सबसे सरोकारी कारोबारियों में गिने जाते हैं. वह खूबी है, भले की बात एक बार तय करना और जब इस पर भरोसा जम जाए तो उसे हर कीमत पर आगे बढ़ाना. इस सोच वाले ‘जिंदल अल्युमिनियम लिमिटेड’ के  इस संस्थापक का जनकल्याण और परोपकार की तरफ झुकाव उसी दौर में शुरू हो गया था जब ज्यादातर कारोबारियों का ध्यान किसी भी तरह मुनाफा बढ़ाने की तरफ होता है. सन 1932 में हरियाणा के हिसार जिले में पैदा होने वाले सीताराम जिंदल ने जब भारत के प्रसिद्ध जनकल्याण ट्रस्ट ‘सीताराम जिंदल फाउंडेशन’ की स्थापना की तब उनकी उम्र मात्र 37 साल थी. आज देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे ही लगभग 19 जनकल्याण ट्रस्टों की स्थापना करवा चुके सीताराम जिंदल ने दक्षिण भारत के 100 पिछड़े गांवों को भी गोद लिया है. जिंदल के ट्रस्ट इन सभी गांवों में लोगों को साफ पानी, भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने के साथ-साथ इनको रोजगार दिलवाने के लिए जरूरी प्रशिक्षण भी देते हैं. इस्पात और अल्युमिनियम के कारोबारी होने के बावजूद प्रकृति से प्यार करने वाले जिंदल ने सन 1979 में बेंगलुरु में ‘जिंदल नेचरकेयर संस्थान’ की स्थापना भी की. यहां लोगों का प्राकृतिक पद्धतियों से इलाज होता है. 

जनकल्याण की तरफ अपने शुरूआती दौर याद करते हुए जिंदल बताते हैं, ‘हमारी पैदाइश हिसार के छोटे-से गांव नवला में हुई थी. बचपन से अपने चारों तरफ गरीब मजदूरों, औरतों और बच्चों की खराब हालत देखकर मुझे हमेशा दुख होता था. हमेशा लगता था कि ईश्वर ने हमें इतना दिया तो यह ऊपरवाले का करम है पर हमारे आस-पास बहुत सारे लोग हैं जो बहुत बदतर जिंदगी जी रहे हैं. मैं हमेशा सोचता था कि अगर जिंदगी में मौका मिले तो दूसरों के लिए जरूर कुछ करना चाहिए. फिर जब 1961 में हमने अपनी पहली फैक्ट्री डाल कर काम शुरू किया तो हमें बहुत जल्दी मुनाफा होने लगा. हमने दो  साल के भीतर ही वहां एक बड़ा अस्पताल बनवाया और बस शुरुआत हो गई.’ 

इसके बाद सन 1978 में ‘सीताराम जिंदल फाउंडेशन’ की स्थापना हुई और दिल्ली-बेंगलुरु सहित देश के कई शहरों में जिंदल फाउंडेशन के स्कूल,अस्पताल और कल्याणकारी आश्रम बनवाए गए. अब जिंदल फाउंडेशन हर साल आर्थिक रूप से कमजोर और मेधावी बच्चों के लिए 10,000 छात्रवृत्तियां जारी करता है. साथ ही मानवता के लिए, भ्रष्टाचार के खिलाफ और ग्रामीण विकास के लिए काम करने वाले जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए भी संस्थान ने कई पुरस्कार घोषित किए हैं. 

दुनिया के सबसे अमीर व्यापारियों में शुमार होने के बाद भी भारतीय व्यापारियों में बिल गेट्स या वारेन बफेट की तरह जनकल्याणकारी अभियान चलाने का कोई ट्रेंड नजर क्यों नहीं आता? आम जनता के मन में गाहेबगाहे उठने वाले इस सवाल पर जिंदल कहते हैं, ‘ हमारे यहां लोग किटी पार्टियों और शराब में करोड़ों रुपये खर्च करने में कोई गुरेज नहीं करते पर गरीब को एक रुपया देने में जान निकल जाती है. मेरा मानना है कि बड़े कारोबारियों को अपने मुनाफे का 10 प्रतिशत तो दान करना ही चाहिए.’ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के लिए लोकपाल बिल का पुरजोर समर्थन करते हुए वे कहते हैं, ‘सभी राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति करवाने और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने वाला एक मजबूत लोकपाल बिल बहुत जरूरी है वरना संविधान की आड़ में हमारे नेता इस देश को लूटते रहेंगे. मुझे सच में लगता है कि अगर एक मजबूत लोकपाल बिल पास नहीं हुआ तो अगले 10 सालों में हमारी संसद पूरी तरह गुंडों से भरी होगी.’ 

साथ ही नई फैक्ट्रियां डालने के लिए भारत के कई कॉरपोरेट संस्थानों द्वारा आए दिन किए जा रहे भूमि-अधिग्रहण को लेकर अपना रुख साफ करते हुए वे कहते हैं कि स्थानीय लोगों की सहमति के बिना उनकी जमीनें हड़पने से ही हमारे आसपास यह सारा संघर्ष हो रहा है. एक समावेशी भू-अधिग्रहण नीति की दरकार पर जिंदल जोर देते हैं, ‘विकास और कारखाने हमारे लिए बहुत जरूरी हैं. पर जिन लोगों की जमीने जाएं, उनकी सहमति होनी चाहिए. फिर उन्हें मुआवजे के साथ-साथ विस्थापित करने और उनके परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी देने की जिम्मेदारी कंपनी की होनी चाहिए.’