एनके भूपेश
किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं ने कृषि प्रधान देश भारत के वैश्विक आर्थिक ताकत के रूप में उभरनेवाली छवि पर करारा तमाचा जड़ा है. कुछ बड़े कारोबारियों, राजनीतिज्ञों और कॉरपोरेट मीडिया की ओर से गढ़ी गई इस छवि के साथ ये घटनाएं उस परीकथा पर भी सवाल उठा रही हैं, जिनके अनुसार 60 के दशक में आई हरित क्रांति से देश निरंतर सफलता के नए प्रतिमान गढ़ रहा है.
पंजाब, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमाम दूसरे राज्य इस समय कृषि संकट के शिकंजे में फंसे हुए हैं. इसलिए समय आ गया है हरित क्रांति का फिर से मूल्यांकन करने का, जिसके बारे में तमाम लोगों की सोच थी कि इससे भारत की खेती से जुड़ी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकड़े खुलासा करते हैं कि भारत में 2000 से 2013 के बीच 2,25,000 किसानों ने खुदकुशी कर ली. इस बीच भारत का खाद्य उत्पादन 2001-02 में 21,13,20,000 टन से बढ़कर 2013-14 में 26,43,80,000 टन हो गया. एक कृषि प्रधान देश के लिए ये शर्मनाक है कि किसान अपनी जिंदगी खत्म करने को मजबूर हो रहे हैं और दूसरी ओर खाद्य उत्पादन की दर लगातार बढ़ रही है. ये अांकड़े हमारी छिछली नीतियों का नंगा सच भी बयां करते हैं. हरित क्रांति की वजह से भारत 70 के दशक में खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर देश बन गया था. अब सवाल उठता है कि क्या हरित क्रांति, जिसकी बदौलत भारत भोजन को लेकर आत्मनिर्भर बना, वास्तव में एक सफल क्रांति थी?
1943 में एशिया के सबसे भयावह खाद्य संकट के बाद पसरी भुखमरी के कारण तकरीबन 30 लाख लोग मारे गए थे. आजादी के बाद भी कई वर्षों तक भारत में लोगों के लिए भोजन की कमी बनी रही. तब इस संकट ने निपटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्ववाली सरकार ने सार्वजनिक कानून 480 (पीएल 480) के तहत अमेरिका से गेहूं का आयात किया था. इस कानून से भारत, जिसके पास वैश्विक बाजार से अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं थी, को रुपये में भुगतान करने का अधिकार मिल गया. हालांकि यह एक अपमानजनक अनुभव था क्योंकि अमेरिका तीसरी दुनिया के आजाद मुल्कों में इस कार्यक्रम को अपना एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर रहा था. इसके अलावा आयात किया गया गेहूं भी कम गुणवत्तावाला था.
चारों तरफ से हो रही आलोचना के बाद नेहरू सरकार को यह महसूस करने के लिए बाध्य होना पड़ा कि भोजन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के अलावा और कोई चारा नहीं है. इसका सबसे आसान तरीका था, उपज बढ़ाने के तरीकों में बिना कोई क्रांतिकारी बदलाव लाए तकनीक की मदद से विश्व बैंक और फोर्ड फाउंडेशन जैसी संस्थाओं की मदद लेना.
इस दिशा में सबसे पहला कदम तब के खाद्य और कृषि मंत्री चिदंबरम सुब्रमण्यम ने उठाया. उन्होंने नोबल पुरस्कार विजेता अमेरिकी जैव विज्ञानी नॉरमन बारलॉग को भारत में आमंत्रित किया. बारलॉग को दुनिया में ‘हरित क्रांति का जनक’ कहा जाता है. उन्होंने बारलॉग से बीज की उच्च उपज की किस्मों (एचवाईवी) को लेकर सलाह की मांग की थी. तब तक बारलॉग दुनिया में मैक्सिको का सफल उदाहरण पेश कर चुके थे, जहां खेती की आधुनिकतम तकनीक और एचवाईवी बीज की मदद से भारी मात्रा में उपज पैदा की गई थी.
भारत में इसकी पहली प्रयोगशाला के रूप में पंजाब को चुना गया, जहां ब्रिटिश शासन के समय नहरों का सघन जाल बिछाया गया था. उच्च उपज क्षमतावाले बीज और आधुनिक तकनीक की मदद से अनाज उत्पादन में बढ़ोतरी दर्ज हुई. इस वजह से अगले कुछ सालों में इस कार्यक्रम को हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश के साथ देश के कुछ दूसरे हिस्सों तक फैला दिया गया. इस तरह पहले दस सालों में उपज 7 फीसदी से बढ़कर 22 फीसदी तक पहुंच गई, जिसे हरित क्रांति के नाम से जाना गया.
हालांकि यह कार्यक्रम आयातित बीजों से शुरू किया गया था. बाद में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने उच्च गुणवत्तावाले बीजों का विकास गेहूं और चावल के अलावा जौ और मक्का की फसल उगाने के लिए किया. इसके बाद भारत में आई हरित क्रांति को एक सफल कहानी के रूप में प्रचारित किया जाने लगा. प्रति हेक्टेयर उपज उत्पादन में 1950 से 1979 के बीच 30 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी दर्ज की गई. इसके बाद अनाज उत्पादन 13 करोड़ टन तक बढ़ गया, जिसके बाद भारत अनाज निर्यात करनेवाले देशों में शामिल हो गया. उच्च उपजवाले जुताई क्षेत्रों में 70 फीसदी गेहूं और 30 फीसदी चावल उपजानेवाले क्षेत्र शामिल हो चुके थे. यह सिर्फ उच्च उपज क्षमतावाले बीजों का ही कमाल नहीं था, जिसकी बदौलत भारत की सफलता की कहानी लिखी गई. उच्च गुणवत्तावाले बीजों को उपजाने के लिए सरकार से बुनियादी सहायता के अलावा उस दौर में कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र में सार्वजनिक व्यय का दायरा भी बढ़ाया गया था. नए बांध बनाने और सिंचाई सुविधाओं को बढ़ावा देने के अलावा सरकार ने
किसानों को कम दर पर खाद और कीटनाशक भी मुहैया कराया था. कृषि क्षेत्र में सरकार की इस अति सक्रियता के चलते भारत भोजन के संकट से उबर सका.
पारंपरिक तौर पर हरित क्रांति की सफलता को उत्पादन में दर्ज की जा रही बढ़ोतरी के पैमाने पर मापा जाता है. लेकिन अनाज उत्पादन की बढ़ती दर के अलावा भूख से लड़ाई में यह कितनी मददगार साबित हुई, इस पर समाज विज्ञानी अलग-अलग राय रखते हैं. इनमें से कुछ कृषि संकट से उबरने के लिए पूरी तरह से तकनीक पर निर्भर रहनेवाले हरित क्रांति मॉडल की आलोचना करते थे. वहीं कुछ दूसरे समाज विज्ञानियों ने पारिस्थितिकीय नतीजों के आधार पर इसकी स्थिरता पर भी सवाल उठाए हैं. हरित क्रांति के प्रभाव का जिन समाज विज्ञानियों ने विश्लेषण किया है, उनका निष्कर्ष है कि इसकी वजह से छोटे और सीमांत किसानों को उस तरह का लाभ नहीं मिला जैसा जमींदार और धनी किसानों को मिला था. ऐसा इसलिए क्योंकि गरीब किसानों की संसाधनों तक पहुंच कम थी. इसके अलावा जैसे ही इस कार्यक्रम में थोड़ी-सी ढील दी गई तो अमीर और गरीब को मिलनेवाले लाभ का अंतर और बढ़ गया.
‘चेंजिंग स्ट्रक्चर ऑफ एग्रीकल्चर इन हरियाणा ः एक स्टडी ऑफ द इम्पैक्ट ऑफ द ग्रीन रिवोल्यूशन’ किताब में पंजाब विश्वविद्यालय के जीएस भल्ला लिखते हैं कि उच्च उपजवाले गेहूं और चावल के बीजों की वजह से कृषि संचालित भूमि का वितरण अधिक भूमिवाले अमीर किसानों की ओर मुड़ता चला गया. कुछ दूसरे अध्ययनों में पाया गया कि इसकी वजह से 1970 से 1980 के बीच पंजाब के तमाम छोटे और सीमांत किसानों का लगभग सफाया हो गया क्योंकि पूंजी प्रधान प्रकृतिवाली कृषि के साथ वे सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे थे. उनके पास वे संसाधन नहीं थे जिनसे वे हरित क्रांति से आए बदलावों से लाभ ले पाते. उच्च उपज क्षमतावाले बीजों की महंगी खेती के कारण इनमें से तमाम किसान कर्ज के बोझ तले कुचलते चले गए. वहीं दूसरी ओर नुकसान के समय जमानत के तौर पर जिनके पास गिरवी रखने के लिए अतिरिक्त जमीन थी उन्हें बैंक लोन भी मिल गए. इस वजह से ये किसान भाड़े पर मजदूरों का जुगाड़ करने के साथ कर्ज चुकाने के अलावा पर्याप्त मुनाफा कमा सके.
अपनी किताब ‘हाऊ द अदर हाफ डाइज’ में फ्रांसीसी-अमेरिकी समाज विज्ञानी सुसान जॉर्ज लिखती हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि इससे (हरित क्रांति) न सिर्फ विश्वस्तरीय कंपनियाें को फायदा पहुंचा बल्कि इस तरह से भी देखा जाना चाहिए कि इसे भूमि सुधार के विकल्प के रूप में पेश कर तमाम अमेरिकी हितों को थोपा गया क्योंकि सामाजिक बदलाव के लिए भूमि सुधार भी जरूरी था. उस वक्त भूमि सुधार ही खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा देने का एकमात्र साधन था, इसलिए बाकी बातों को परे रख इस पर ही ध्यान दिया गया.’ सुसान बताती हैं, ‘पश्चिमी हितों के कारण हरित क्रांति की शुरुआत निवेश से जुड़ी वस्तुएं बेचने के लिए की गई. साथ ही खाद्यान्न बढ़ाने के जरिए सामाजिक स्थिरता लाने को भी बढ़ावा दिया गया.’
कुछ दूसरे विशेषज्ञ तर्क देते हैं कि हरित क्रांति एक राजनीतिक एजेंडा का हिस्सा थी, जिसके तहत तीसरी दुनिया के देशों में अमेरिकी हितों को बढ़ावा देना शुरू किया गया. उनका मानना है कि खेती में सुधार के लिए भारतीय वैज्ञानिक आत्मनिर्भर और पारिस्थितकीय विकल्प पर काम कर रहे हैं, उस समय विश्व बैंक, द रॉकफेलर फाउंडेशन और फोर्ड फाउंडेशन जैसी एजेंसियों को कच्चा सौदा करने का मौका मिल गया था. ‘द वॉयलेंस ऑफ द ग्रीन रिवोल्यूशन’ किताब की लेखिका पर्यावरण कार्यकर्ता वंदना शिवा तर्क देती हैं कि अंतरराष्ट्रीय एजेंसिंयों ने इसे ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिरता लाने के लिए कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने के माध्यम के रूप में देखा. साथ ही इसे बड़े पैमाने पर भूमि सुधार और दूसरे संसाधन बढ़ाने की मांग को शांत करने के माध्यम के रूप में भी देखा गया. वह बताती हैं कि उच्च उपजवाली किस्में (एचवाईवी) एक अशुद्ध नाम है क्योंकि इन बीजों की खास विशेषता कुछ और ही है, ये सिंचाई और खाद के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हैं.
हरित क्रांति की एक और कमी ये है कि देश के अधिकांश हिस्सों में होनेवाली गेहूं और चावल की स्थानीय किस्में खत्म होती गईं क्योंकि उच्च उपज क्षमतावाले बीजों पर किसानों की निर्भरता बढ़ती गई. कुछ हद तक यह उन क्षेत्रों के किसानों के बढ़ते दुख को भी बताता है, जहां हरित क्रांति को एक सफलता के रूप में देखा गया था. लुधियाना के पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, अमृतसर के गुरु नानक देव विश्वविद्यालय और पटियाला के पंजाब विश्वविद्यालय की ओर से किए गए साझा अध्ययन के अनुसार पंजाब में 2001 से 2011 के बीच 6,926 किसानों ने आत्महत्या कर ली. इनमें से 4,686 किसान कर्ज में थे. इस साल भी बड़ी संख्या में पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों की खुदकुशी के मामले सामने आए हैं.
किसानों के साथ काम कर रहे कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं के अनुसार, हाल में नीतियों में किए गए बदलाव के कारण हरित क्रांति से जुड़ी सभी समस्याओं को और बढ़ावा मिल गया है. अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव वीजू कृष्णन के अनुसार, अपनी सीमाओं के बावजूद हरित क्रांति सफल रही थी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि किसानों को कम दरों पर बीज, खाद और कीटनाशक मुहैया कराने में सरकार अति सक्रिय थी. हालांकि 1980 के दशक के मध्य से नवउदारवादी अर्थशास्त्र केंद्र और राज्यों की नीतियों को प्रभावित करते रहे हैं. इस वजह से कृषि क्षेत्र में मिलने वाली रियायत की सीमा समय के साथ धीरे-धीरे कम होती गई. इसके अलावा कृष्णन कहते हैं कि हरित क्रांति के प्रभाव में आने के बाद अत्यधिक खाद के प्रयोग के कारण खेत के अनुपजाऊ होते जाने में सरकार की ओर से किसानों को बहुत ही कम मदद दी गई. इन सभी कारणों के चलते भारत के किसानाें की जिंदगी में मौत तांडव कर रही है.
हरित क्रांति पर अलग-अलग धारणाओं के बावजूद दो बातें स्पष्ट होती हैं. इससे अनाज पैदा करने में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के क्रम में बाधा पैदा हुई लेकिन उत्पादन में हो रही बढ़ोतरी की वजह से भी किसानों का दुख कम नहीं हुआ. नव उदारवादी नीतियां लागू होने, कृषि पर सरकारी खर्च में कमी और किसानों को रियायत देने की कमी के बाद से किसानों की खुदकुशी का अांकड़ा आसमान छू रहा है. वर्तमान सरकार भी उसी दिशा में तेजी से बढ़ रही है, जिससे खेती-किसानी का नुकसान होना तय है. ऐसे में किसानों का भविष्य सुधरने की संभावना कम ही दिखाई दे रही है. l
छोटे और सीमांत किसानों को वैसा लाभ नहीं मिला जैसा जमींदार और अमीर किसानों को मिला, क्योंकि गरीब किसानों की संसाधनों तक पहुंच कम थी
सामाजिक बदलाव के लिए भूमि सुधार जरूरी था. भूमि सुधार ही खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ावा देने का एकमात्र साधन था, इसलिए सिर्फ इस पर ही ध्यान दिया गया