कर्नाटक में हार के बाद सबसे बड़ी पार्टी में गठबंधनों और रणनीति पर चल रहा मंथन
क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के करिश्मे को लेकर कुछ आशंकाएँ उभरी हैं? आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ के 23 मई के अंक के संपादकीय में कहा गया है- ‘मज़बूत नेतृत्व और क्षेत्रीय स्तर पर प्रभावी डिलीवरी के बिना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा और हिन्दुत्व की वैचारिकता पर्याप्त नहीं होगी। इसलिए कर्नाटक चुनाव के नतीजे को 2024 के आम चुनाव के लिए सही से देखने की ज़रूरत है; क्योंकि इस जीत से विपक्षी दलों का मनोबल बढ़ा है।’
भाजपा के बीच चिन्ता कर्नाटक में कांग्रेस की जीत से तो है ही, वह इस बात से भी परेशान है कि उसके सबसे बड़े चेहरे (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) को इतनी आक्रामकता से आगे करने के बावजूद उसे कर्नाटक चुनाव में ख़राब हार मिली।
इस हार के दबाव से बाहर निकलने के लिए भाजपा अब 2024 के लोकसभा और इस साल के विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुट गयी है। बैठकों के दौर शुरू हो गये हैं और गठबंधनों, $खासकर दक्षिण राज्यों की रूपरेखा पार्टी बना रही है। राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर पर संगठन में फेरबदल की भी तैयारी है। भाजपा हाल में वर्षों में ‘मोदी है, तो मुमकिन है’ के नारे के भरोसे चुनावों में विपक्षियों को धूल चटाती रही है। लेकिन अब हाल के महीनों में भाजपा का भरोसा डगमगाया है। पहले हिमाचल प्रदेश और उसके बाद कर्नाटक में हार इसका कारण है।
निस्संदेह भाजपा अभी प्रधानमंत्री मोदी पर निर्भर रहने के लिए मजबूर है। इसका कारण हिन्दी पट्टी में अभी भी मोदी की स्वीकार्यता होना है। लेकिन भाजपा में चिन्ता इस बात की भी है कि जिस चेहरे और हिन्दुत्व के जिस मुद्दे को वह जीत की गारंटी मानती रही है, वह देश के कई हिस्सों में प्रभाव नहीं दिखा रहा। आरएसएस ने शायद ऑर्गेनाइजर के संपादकीय में इसी बात को उठाया है। आरएसएस का कहना है कि सकारात्मक कारक, विचारधारा और नेतृत्व भाजपा के लिए वास्तविक संपत्ति हैं। लेकिन उसे आगे सोचने की ज़रूरत है। निश्चित रूप से भाजपा को हाल के वर्षों में मिली जीत के कारकों से बाहर जाकर कुछ सोचने की ज़रूरत आरएसएस बता रहा है।
अब चूँकि यह सुझाव आरएसएस की तरफ़ से आया है, भाजपा नेतृत्व और संगठन इसे हल्के में नहीं ले सकते। आरएसएस के मुखपत्र के सम्पादकीय में जो दूसरी अहम बात कही गयी है, वह यह है कि कर्नाटक की जीत से विपक्षी दलों का मनोबल बढ़ा है। आरएसएस की यह बात इस तथ्य से प्रमाणित हो जाती है कि इसी महीने की 23 तारीख़ को कांग्रेस सहित तमाम बड़े विपक्षी दल पटना में बड़ी बैठक करने जा रहे हैं, जिसमें विपक्षी एकता को लेकर एक रोडमैप तय किया जा सकता है। विपक्ष में यह स्फूर्ति कर्नाटक में कांग्रेस की जीत से आयी है।
निश्चित ही 2014 के बाद भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होने की विपक्ष की यह सबसे ज़मीनी और महत्त्वपूर्ण क़वायद होगी, जिसमें राहुल गाँधी, मल्लिकार्जुन खडग़े, शरद पवार, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, लालू यादव और तेज़स्वी यादव, उद्धव ठाकरे, एम.के. स्टालिन, हेमंत सोरेन, अखिलेश यादव, अरविन्द केजरीवाल, सीताराम येचुरी, डी. राजा, दीपांकर भट्टाचार्य जैसे दिग्गज जुटेंगे। भाजपा जानती है कि विपक्ष की यह बैठकें राजनीतिक रूप से महत्त्व रखती हैं, लिहाज़ा उसने ज़मीन पर अपनी सक्रियता बढ़ा दी है।
पार्टी की तैयारी
कर्नाटक की हार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे में उतार को देखते हुए भाजपा को इस साल होने वाले विधानसभाओं के चुनावों में अपनी रणनीति बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा है। भाजपा को इस बात से भी काफ़ी धक्का लगा है कि उसने कर्नाटक के चुनाव में अपने सबसे विश्वसनीय प्रचारकर्ता मोदी के इतने सघन प्रचार के बावजूद 31 (13.8 फ़ीसदी) सीटों पर जमानत खो दी। सन् 2014 में भाजपा में मोदी के उदय के बाद एक ऐसे राज्य, जहाँ उसकी अपनी ही सरकार थी; भाजपा को मिली यह सबसे बड़ी हार है। भाजपा अब राष्ट्रीय और राज्य संगठनों में फेरबदल की क़वायद भी कर सकती है।
भाजपा में अब बैठकों का दौर शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री मोदी से लेकर अमित शाह और जे.पी. नड्डा सक्रिय दिख रहे हैं। मोदी सरकार की नौ साल की उपलब्धियाँ जनता के सामने लाने के लिए राज्यों में कार्यक्रम किये जा रहे हैं। हाल के महीनों में यह देखा गया है कि केंद्र सरकार की तरफ़ से दिये जाने वाले रोज़गार के पत्र भी अब मोदी ख़ुद बाँटने लगे हैं। देश के इतिहास में यह पहली बार है कि प्रधानमंत्री के स्तर का व्यक्ति ये चीज़ें की हैं।
भाजपा के एक बड़े नेता ने नाम न छपने की शर्त पर स्वीकार किया कि इससे जनता में सरकार की मिलीजुली कोशिशों का सन्देश नहीं जा पाता।
केंद्र में मंत्री रहे वरिष्ठ कांग्रेस नेता पवन बंसल ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘प्रधानमंत्री की यह आदत है कि सरकार की हर चीज़ को अपने तक सीमित रखते हैं। वह श्रेय लेने में आगे रहते हैं। विफलताओं और नाकामियों को दूसरों के ऊपर डाल देते हैं।’
हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि आज भी भाजपा के छोटे-से-छोटे कार्यकर्ताओं की उम्मीद मोदी ही हैं। यह कार्यकर्ता हाल की विफलताओं के बावजूद उम्मीद करते हैं कि 2024 में सिर्फ़ मोदी ही भाजपा की नैया पार लगा सकते हैं। दिल्ली के मोहन गार्डन में भाजपा के मंडल स्तर के पदाधिकारी राजेश वोहरा ने कहा- ‘मोदी के सामने टिक सकने वाला विपक्ष में कोई नेता नहीं है। उनका एक सन्देश ही भाजपा के कार्यकर्ता में जोश भर देता है। अगले साल के चुनाव में मोदी की ही लहर चलेगी।’
लेकिन भाजपा के बड़े नेता जानते हैं कि माहौल अब वैसा नहीं रहा कि भाजपा की कोई लहर चले। सन् 2019 में मोदी की लोकप्रियता जब चरम पर थी और उनके पास पुलवामा-बालाकोट से उपजे माहौल की ताक़त भी थी, तब भी भाजपा 302 सीटों तक ही पहुँच पायी थी। बहुत-से राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा का अधिकतम उत्कर्ष काल था और अगले चुनाव में उसे बहुमत की सीटें जीतने के लिए बहुत मशक्क़त करनी पड़ेगी।
भाजपा के सहयोगी
हाल के वर्षों में देखा गया है कि भाजपा के पैंतरों से नाराज़ होकर उसके कुछ सहयोगी उसे छोडक़र चले गये। उनका आरोप रहा है कि ख़ुद को मज़बूत करने के लिए भाजपा सहयोगियों के नेताओं को तोडऩे में भी परहेज़ नहीं करती। हालाँकि भाजपा ने कर्नाटक के बाद अपनी रणनीति में बदलाव किया है। भाजपा अब विस्तारवाद के एजेंडे से इतर उन राज्यों में वोट को संगठित करने की रणनीति पर काम करती दिख रही है, जहाँ उसका आधार मज़बूत नहीं है।
मई के आख़िर में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में मुख्यमंत्री परिषद् की बैठक की थी, तो उन्होंने यह सन्देश देने की कोशिश की कि भाजपा सहयोगी दलों का पूरा सम्मान करती है। भाजपा ने पिछले आठ साल क्षेत्रीय स्तर पर ख़ुद को मज़बूत करने में खपाये हैं और सहयोगी दलों की ताक़त को अपनी ताक़त बनाने से कभी परहेज़ नहीं किया। भाजपा अब नये सहयोगियों को तलाश रही है या पुराने सहयोगियों को फिर साथ जोडऩे की रणनीति पर तेज़ी से काम कर रही है।
हाल में भाजपा ने आंध्र प्रदेश के नेता चन्द्रबाबू नायडु को एनडीए के साथ जोडऩे की क़वायद की है, जिसके सकारात्मक नतीजे आ सकते हैं। भाजपा दक्षिण को लेकर चिन्ता में है; लिहाज़ा उसका फोकस पूरी तरह दक्षिण राज्यों पर है। भाजपा को डर है कि यदि उसने दक्षिण में क्षेत्रीय दलों को नहीं साधा, तो वहाँ कांग्रेस वहाँ चुनाव तक अपनी स्थिति और मज़बूत कर सकती है। चूँकि कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद दक्षिण के क्षेत्रीय दलों को भी वहाँ कांग्रेस के उभार की चिन्ता है; उनमें से ऐसे दल भाजपा के साथ जा सकते हैं, जो भाजपा का विरोध नहीं करते हैं। तमिलनाडु में भाजपा की नज़र दिवंगत जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके पर है।
चूँकि सत्तारूढ़ डीएमके के साथ कांग्रेस का समझौता है, भाजपा को राज्य में अपने पैर जमाने के लिए इस पार्टी का साथ चाहिए होगा। हालाँकि एआईएडीएमके में भी गुटबाज़ी है और देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा किस गुट को चुनती है। उधर भाजपा ने एक साल पहले महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे को उद्धव ठाकरे से तोडक़र शिवसेना का बँटवारा कर दिया था। हालाँकि यह माना जाता है कि जनता की सहानुभूति उद्धव के साथ है। लिहाज़ा चुनाव में शिंदे भाजपा को कितना लाभ दे पाएँगे, इस पर अभी सवालिया निशान है। भाजपा के बीच तो यह भी चर्चा है कि शिंदे को निपटा दिया जाए।
उत्तरी राज्य हरियाणा में जननायक जनता पार्टी (जजपा) के साथ भाजपा की खटपट चल रही है और हलोपा भाजपा के साथ आने को उत्सुक दिख रही है। हलोपा के नेता गोपाल कांडा 9 जून को दिल्ली में भाजपा प्रभारी बिप्लब देव से मिल चुके हैं। उनसे एक दिन पहले चार निर्दलीय विधायक अलग से देव से मिले थे। इन गतिविधियों से ज़ाहिर होता है कि भाजपा राज्य में जजपा को झटका दे सकती है। यहाँ यह बताना दिलचस्प होगा कि संसद के नये भवन के उद्घाटन पर जिन उद्धव ठाकरे और जेडीयू ने बायकॉट किया था, वह दोनों 2019 के चुनाव में महाराष्ट्र और बिहार में भाजपा के सहयोगी थे।
उद्धव ठाकरे की शिव सेना ने लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में भी भाजपा का साथ दिया था। लेकिन नतीजे आते ही जब यह चर्चा चली कि शिव सेना के कुछ विधायक भाजपा में जा सकते हैं, तो उद्धव बहुत ख़फ़ा हुए और उन्होंने बिना देरी किये दशकों से चल रहा भाजपा का साथ छोडक़र एनसीपी-कांग्रेस से गठबंधन कर लिया।
सन् 2019 के चुनाव में भाजपा के सहयोगियों ने जो 50 सीटें जीती थीं, उनमें से अकेले जद(यू) और तत्कालीन पूर्ण शिवसेना की 34 सीटें थीं। अब यह दोनों भाजपा के ख़िलाफ़ खड़े हैं, जो इस बात का संकेत है कि दोनों राज्यों में भाजपा को नुक़सान होगा। बिहार में रामविलास पासवान की मौत के बाद लोजपा भी बँट चुकी है। सन् 2019 में नीतीश-रामविलास के साथ भाजपा गठबंधन को बिहार में 40 में 39 सीटें मिल गयी थीं। लेकिन 2024 में यह प्रदर्शन दोहराना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर होगा। देखना दिलचस्प होगा कि क्या भाजपा बिहार में नये सहयोगी ढूँढती है? महाराष्ट्र के ज़मीनी संकेत हैं कि राहुल गाँधी की यात्रा के बाद राज्य में लोगों की दिलचस्पी कांग्रेस के प्रति बढ़ी है। उद्धव कमज़ोर नहीं हुए हैं और एनसीपी अपनी ज़मीन बचाये हुए है। ऐसे में शिंदे की शिवसेना ही भाजपा का सहारा होगी।
आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ वाईएसआर पार्टी के जगन मोहन रेड्डी ने (पिछले विधानसभा चुनाव में 49.95 फ़ीसदी वोट) मज़बूती से पैर जमा रखे हैं। वह कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए दिक्क़त हैं। यदि भाजपा राज्य में चंद्रबाबू नायडु (पिछले विधानसभा चुनाव 39.26 फ़ीसदी वोट) के साथ जाती है, तो जगन निश्चित ही उसके विरोध में रहेंगे। भाजपा के पवन कल्याण की जन सेना पार्टी से सहयोगी रिश्ते हैं; लेकिन वह उतनी प्रभावी नहीं कि भाजपा को बड़ा लाभ दे सके। राज्य में 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस-भाजपा दोनों का स्कोर शून्य रहा था।
ओडिशा में भाजपा सत्तारूढ़ बीजद के नवीन पटनायक को साथ रखना चाहती है; लेकिन वह भी कांग्रेस-भाजपा से बराबर दूरी बनाये हुए हैं। हाँ, भाजपा के साथ पटनायक ने वर्किंग रिलेशन ज़रूर रखे हैं। तेलंगाना में भाजपा इस बार बड़ी उम्मीद लगाये है; लेकिन राहुल गाँधी की यात्रा से बदले हालात और जगन मोहन रेड्डी की बहन शर्मिला की पार्टी के साथ कांग्रेस के गठबंधन की संभावनाओं को देखते हुए तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) ही भाजपा की सहयोगी बन पाएगी।
पंजाब में भाजपा पुराने सहयोगी अकाली दल की तरफ़ मुडऩे को मजबूर हो सकती है। वहाँ आम आदमी पार्टी अपनी सरकार होने के कारण मज़बूत दिख रही है, जबकि कांग्रेस का भी वहाँ आधार है। कांग्रेस के जो हिन्दू-सिख नेता हाल के महीनों में भाजपा के पाले में गये हैं, उनका कोई राजनीतिक लाभ उसे मिलता नहीं दिखा है। कर्नाटक में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 28 में से 26 सीटें जीती थीं।
अब वह देवेगौड़ा की पार्टी जनता दल (धर्मनिरपेक्ष) यानी जद(एस) से उम्मीद किये है। राज्य में माहौल भाजपा के पक्ष में नहीं दिखता लिहाज़ा इसका लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 42.9 फ़ीसदी वोट हासिल किये हैं, जिसका लोकसभा चुनाव में असर दिख सकता है।
मुस्लिम वोटरों को रिझाने की कोशिश
कुल मिलाकर भाजपा की सबसे बड़ी चिन्ता कांग्रेस है। उसे डर है कि कांग्रेस यदि पुराना वोट बैंक वापस अपने पाले में लाने में सफल होती है, तो सबसे ज़्यादा नुक़सान उसका ही होगा। लिहाज़ा उसने उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में पिछड़े, दलित, ओबीसी वोटरों को जोडऩे की क़वायद शुरू की है। सबसे ज़्यादा हैरानी यह है कि भाजपा मुस्लिम वर्ग को रिझाने की भी कोशिश करती दिख रही है। आरएसएस से लेकर प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के कुछ नेता आजकल मुसलामानों से दोस्ती जैसी भाषा अपनाते दिख रहे हैं। कारण साफ़ है। हाल के कुछ चुनावों, जिनमें बंगाल का एक उपचुनाव और कर्नाटक का विधानसभा चुनाव शामिल है; यह देखने में आया है कि मुस्लिम कांग्रेस के पीछे जुटने लगे हैं। मुस्लिम यह भी कोशिश करते दिख रहे हैं कि उनके वोट का बँटवारा न हो। यही नहीं, ओबीसी और दलित भी कांग्रेस ख़ेमे की तरफ़ उम्मीद लगाते दिख रहे हैं।
प्रियंका गाँधी का इंदिरा अवतार
बहुत कम लोगों को पता होगा कि कांग्रेस नेता प्रियंका गाँधी पुलवामा और अन्य मुठभेड़ों में ड्यूटी के दौरान शहीद हुए सैनिकों के परिजनों के अलावा विभिन्न राज्यों में रेप पीडि़त लड़कियों-महिलाओं के परिजनों के साथ लगातार संवाद बनाकर रखती हैं। कांग्रेस के एक नेता के मुताबिक, मथुरा में जब भाजपा के स्थानीय कार्यकर्ता कांग्रेस शासित राजस्थान में एक दुष्कर्म पीडि़ता को उनकी रैली में ले आये, तो प्रियंका ने इसका विरोध नहीं किया। उलटे वह पीडि़ता को यमुना किनारे ले गयीं और एक बड़ी बहन की तरह उससे बात की।
प्रियंका ने पीडि़ता का न सिर्फ़ कॉलेज में एडमिशन कराया, बल्कि वह लगातार उसके सम्पर्क में रहती हैं। यहाँ तक कि वह उन लोगों से भी सम्पर्क रखती हैं, जिन्हें राजनीतिक विरोधी उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल करते हैं। कांग्रेस में एक साल पहले तक प्रियंका गाँधी की भूमिका उत्तर प्रदेश की प्रभारी होने तक सीमित थी। लेकिन अचानक पार्टी उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर स्टार प्रचारक के रूप में तेज़ी से आगे करती दिख रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि प्रियंका आक्रामक होने के साथ-साथ प्रभावशाली भी दिखती हैं और उनका करिश्मा भी जनता के बीच है। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस प्रियंका को इस साल के चुनावी राज्यों तेलंगाना, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में प्रचार में बड़ी भूमिका सौंपने की तैयारी में है। हिमाचल और कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में प्रियंका गाँधी ने सघन प्रचार किया था, जहाँ कांग्रेस को जीत मिली। प्रियंका तेलंगाना में एक रैली कर चुकी हैं। मध्य प्रदेश में भी 12 जून को वह गयी हैं। महिलाओं को 1,500 रुपये की इनकम गारंटी का वादा और महिला संवाद उनके भाषणों में प्रमुखता से रहता है। इसमें महिलाओं को इनकम सपोर्ट, मु$फ्त गैस सिलेंडर और बस यात्रा शामिल हैं।
कर्नाटक में कांग्रेस की पाँच गारंटियों में ये चीज़ें शामिल थीं। कांग्रेस के भीतर नेताओं को प्रियंका गाँधी की प्रचार शैली और जीत पर फोकस रखने की बात सकारात्मक लगती है। राहुल गाँधी के साथ प्रियंका की जोड़ी प्रचार में विपक्ष को रक्षात्मक कर देती है। राहुल का फोकस गारंटी पर रहता है, तो प्रियंका पार्टी के हक़ में माहौल बनाने पर काम करती हैं। एक तरह से प्रियंका का रोल प्रधानमंत्री मोदी के प्रभाव को कम करना है। कांग्रेस उन्हें नयी ‘इंदिरा गाँधी’ के अवतार में ढाल रही है और यह प्रभावकारी रणनीति हो सकती है। कांग्रेस नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम कहते हैं- ‘प्रियंका गाँधी ने अभी तक $फैसला नहीं किया है कि उत्तर प्रदेश प्रभारी पद से हटती हैं, तो देश में कांग्रेस को मज़बूत करेंगी। मैं व्यक्तिगत रूप से मानता हूँ कि प्रियंका गाँधी को 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनना चाहिए। यदि ऐसा होता है, तो हम मोदी को हरा पाएँगे।’
प्रियंका के इस चढ़ते ग्राफ के बीच कांग्रेस कुछ राज्यों में नये अध्यक्ष बनाने और नयी कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) के गठन की तैयारी में भी है।