जल्द ही आगामी लोकसभा चुनावों की घोषणा हो जाएगी. मौजूदा हालात में कांग्रेस के लिए आपको क्या उम्मीदें नजर आती हैं?
अर्थव्यवस्था में आई गिरावट के कारण पिछले कुछ सालों के दौरान हम बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं. इसी दौरान कांग्रेस में भी पीढ़ीगत बदलाव चल रहा है. बावजूद इसके एक साल पहले के मुकाबले आज स्थितियां काफी बेहतर हैं. हमारे पास अभी भी थोड़ा समय है. उम्मीद है कि अगले कुछ महीनों में हम खुद को और बेहतर स्थिति में पहुंचा सकेंगे.
देश में जो आम भावना है वह कांग्रेस के खिलाफ है, विशेषकर नए वोटरों में. आप उन्हें कैसे संतुष्ट करेंगे?
हमारी सबसे बड़ी असफलता यह रही कि हम एक सरकार और एक पार्टी दोनों ही रूपों में अच्छा प्रदर्शन करने में असफल रहे. जो पार्टी सत्ता में होती है उसके प्रति जनता यह फर्क नहीं करती कि सरकार अलग है और पार्टी अलग है. न तो हम युवाओं को सकारात्मक संदेश दे पाए और न ही अपनी आलोचनाओं का सही से जवाब दे पाए. हम इस समस्या का हल ढूंढ़ रहे हैं. जल्द ही हम विपक्षी पार्टियों को पीछे छोड़ देंगे. पिछले कुछ सालों के दौरान हमने देखा है कि तकनीकी और संचार के साधनों ने लोगों की जीवनशैली में बड़ा बदलाव किया है. आज देश में 16 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हैं. इन चीजों से हम बेहतर तालमेल बिठा नहीं पाए. हमारे ऊपर टूजी और कोल घोटाले के आरोप लगे लेकिन हम लोगों को यह संदेश दे नहीं पाए कि ये नीतियां तो हमें विरासत में मिली थीं. हमने कोई नए कानून नहीं बनाए थे. इस मुद्दे को न समझा पाने की हमारी नाकामी को देश ने हमारी गलती समझ लिया. प्रभावी और लगातार संवाद के अभाव में यह छवि बनी है.
आप एक शहरी निर्वाचन क्षेत्र से सांसद है. कांग्रेस और यूपीए के प्रति पैदा हुई नाराजगी से खुद को अलग करने और जनता को संतुष्ट करने के लिए आप क्या करेंगे?
दक्षिण मुंबई में दो तरह के लोग रहते हैं-एक पढ़ा-लिखा व्यापारी वर्ग और दूसरा शहरी गरीब. अर्थव्यवस्था की अहमियत दोनों को पता है. अर्थव्यवस्था के मसले पर मैं उन्हें समझाने की कोशिश करूंगा कि कांग्रेस और यूपीए का अकलन पिछले दो साल के प्रदर्शन के आधार पर न करें क्योंकि दस सालों के दरम्यान करीब तीन-चौथाई समय तक हमारी वित्त व्यवस्था खूब फली-फूली है. आप उसका श्रेय हमसे छीन नहीं सकते. हमें इन बातों को पूरे संदर्भ के साथ रखना होगा, यही एकमात्र रास्ता है.
राहुल गांधी द्वारा दागी सांसदों को बचाने वाले अध्यादेश के विरोध से पहले आपने एक ट्वीट किया था. क्या आपको पहले से अनुमान था कि इसका हश्र यही होने वाला है?
मैं खूब ट्वीट करता हूं लेकिन मेरे ट्वीट कभी चर्चित नहीं होते. एक या दो दिन बाद पार्टी नेताओं ने अध्यादेश को समाप्त करके इस पर प्रतिक्रिया जताई. मुझे खुशी है कि मेरे विचारों को बाद में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने संज्ञान में लिया. लेकिन में कोई कांग्रेस का भविष्यवक्ता नहीं हूं जो पहले ही घटनाओं पर ट्वीट करता है. पार्टी में इस तरह से चीजें नहीं चलतीं.
राहुल गांधी को कांग्रेस उपाध्यक्ष बने एक साल से ऊपर हो गया है. क्या इसके बाद से पार्टी के महत्वपूर्ण और निर्णायक पदों पर अन्य युवाओं को तरजीह दी गई है?
पिछले एक साल में पार्टी संगठन में कई बड़े बदलाव हुए हैं. मुझे नहीं लगता कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी मंत्रिमंडल या पार्टी का नेतृत्व पूरी तरह से युवाओं के हाथ में चला जाएगा. हर संगठन पुराने और नए लोगों के तालमेल से चलता है. कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी या सरकार चलाना कोई आसान काम नहीं है. इसके लिए निश्चित तौर से युवाओं की ऊर्जा और उत्साह की जरूरत होती है लेकिन साथ ही बड़ों का अनुभव और जानकारी की भी जरूरत पड़ती है. राहुल ने पार्टी और सरकार में दोनो चीजों का मिश्रण बनाए रखा है.
महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन में टकराव चल रहा है. राज्य के टोल बूथों में तोड़फोड़ करने वालों के साथ नरमी बरतने के आरोप कांग्रेस पर लग रहे हैं. क्या यह सही है?
हमने किसी के साथ नरमी नहीं बरती है. पिछले चुनावों में भी हम पर ऐसे आरोप लगे थे. कहा जा रहा था कि हम मनसे जैसी पार्टियों को बढ़ावा दे रहे हैं. लेकिन हमें एक सख्त संदेश देने की जरूरत है. बर्बरता या उपद्रव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. कानून को तोड़ने की अनुमति किसी को भी नहीं दी जा सकती. हम 1999 से एनसीपी के साथ गठबंधन में हैं. इतने समय से चल रहे किसी भी रिश्ते में स्वाभाविक तौर से कुछ उठापटक चलती रहती है. लेकिन हमारा गठजोड़ आगे भी बना रहेगा.
अपने निर्वाचन क्षेत्र और महाराष्ट्र में मोदी लहर को कैसे रोकेंगे?
पिछले पांच साल से मैं अपने निर्वाचन क्षेत्र में हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर आवाज उठता रहा हूं. अपने इसी काम को लेकर मैं अपने क्षेत्र की जनता के पास जाऊंगा. मुझे पूरा विश्वास है कि यहां मुझसे बेहतर कोई नहीं है. मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती लोगों तक यह संदेश पहुंचाने की है कि अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी में फर्क है. भारत के लोगों ने वाजपेयी के रूप में एक कट्टर पार्टी का नरम चेहरा देखा था. लेकिन मोदी पहले से ही कट्टर पार्टी के भी सबसे चरम हिस्से का प्रतीक हैं