मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में आंदोलनों को लेकर पक्षपाती रवैया हावी है
ऐसे समय में जब देश आजीविका, हक-हुकूक और राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक बदलाव के छोटे-बड़े हजारों जन आंदोलनों (मिलियन म्यूटनीज) के बीच से गुजर रहा है, मुख्यधारा के न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की इस बात के लिए बहुत आलोचना हो रही है कि वे शहरी और मध्यवर्गीय सरोकारों से जुड़े मुद्दों और उन पर आधारित आंदोलनों (उदाहरण के लिए हालिया भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन) को बहुत ज्यादा कवरेज देते हैं. वहीं दूसरी ओर, ग्रामीण गरीबों, आदिवासियों, श्रमिकों, किसानों, विकास योजनाओं के विस्थापितों के मुद्दों और आंदोलनों खासकर रैडिकल जन आंदोलनों को अक्सर अनदेखा करते हैं या कई बार जब अनदेखा करना मुश्किल हो जाए तो मजबूरी में आधे-अधूरे मन से चलते-चलाते थोड़ा-मोड़ा कवरेज दे देते हैं. यही नहीं, कई मामलों में मुख्यधारा का न्यूज मीडिया इन आंदोलनों को हिंसक, अलोकतांत्रिक, विकास विरोधी या नक्सली/माओवादी संगठनों द्वारा संचालित या विदेशी एजेंसियों की साजिश बताकर उनके खलनायकीकरण में भी जुट जाते हैं.
निश्चय ही, इससे सत्ता के लिए इन्हें कुचलना आसान हो जाता है. यहां तक कि इन आंदोलनों को दबाने की कोशिश में होने वाले मानवाधिकार हनन के मामलों को भी न्यूज मीडिया अनदेखा करता है. हालांकि रैडिकल खासकर अति वाम नेतृत्व वाले जन आंदोलनों के प्रति उसका यह रवैया नया नहीं है. बड़ी पूंजी से संचालित कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का इन जन आंदोलनों के प्रति यह रवैया स्वाभाविक तौर पर उनके वर्गीय हितों और विचारों से प्रेरित है. लेकिन ऐसा लगता है कि जन आंदोलनों के प्रति उसकी इस वैचारिक चिढ़ और उपेक्षा भाव का शिकार वे शांतिपूर्ण-लोकतांत्रिक और गैरपार्टी आंदोलन भी होने लगे हैं जो मौजूदा नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और उस पर आधारित विकास के मौजूदा मॉडल को चुनौती दे रहे हैं.
अन्यथा क्या कारण है कि भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन को 24×7 और लगातार दसियों दिनों तक व्यापक कवरेज और एक तरह का खुला नैतिक समर्थन देने वाले न्यूज मीडिया ने मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में ओंकारेश्वर बांध की ऊंचाई कम करने जैसी कई मांगों को लेकर नर्मदा नदी में गर्दन तक पानी में खड़े होकर जल सत्याग्रह कर रहे पचासों महिलाओं और पुरुषों की तब तक कोई सुध नहीं ली, जब तक उनके हाथ-पैर गलने नहीं लगे और सोशल मीडिया से लेकर दूसरे मंचों पर विरोध के सुर तेज होने लगे? अगर मध्य प्रदेश और केंद्र सरकार 16 दिन तक सोई रही तो राष्ट्रीय न्यूज मीडिया भी शुरुआती 12-14 दिन तक सोया रहा. अगर उसने इस आंदोलन को शुरू से कवरेज दी होती तो उन महिलाओं को शायद 17 दिन तक पानी में खड़ा नहीं रहना पड़ता.
कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का यह रवैया पिछले कई महीनों से तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु बिजलीघर लगाने के विरोध में चल रहे शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक जन आंदोलन के प्रति भी देखा जा सकता है. सरकार के साथ-साथ न्यूज मीडिया का बड़ा हिस्सा भी इस आंदोलन को विकास विरोधी और विदेशी ताकतों की साजिश साबित करने में जुटा है. लेकिन मुद्दा सिर्फ नर्मदा बचाओ और कुडनकुलम आंदोलन नहीं हैं. सच यह है कि देश भर में विकास के मौजूदा मॉडल के खिलाफ जल-जंगल-जमीन और अपनी आजीविका बचाने के लिए जारी सैकड़ों आंदोलनों के प्रति कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का कमोबेश यही रवैया है. सवाल यह है कि जन आंदोलनों के प्रति कॉरपोरेट न्यूज मीडिया का यह रवैया भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बना रहा है या कमजोर?