कोरोना वायरस संक्रमण के चलते और लॉकडाउन के बीच सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का इस्तेमाल गलत है और इस शब्द के इस्तेमाल से बचना चाहिए। समाज विज्ञानियों और डब्ल्यूएचओ का भी मानना है कि वायरस के चलते एक-दूसरे से दूर रहने को सोशल डिस्टेंसिंग कहने से लोगों में गलत संदेश जा रहा है।
डब्ल्यूएचओ ने भी सोशल डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) की जगह फिजिकल डिस्टेंसिंग (शारीरिक दूरी) शब्द इस्तेमाल करने की बात कही है। इतना ही नहीं, डब्ल्यूएचओ के डायरेक्टर जनरल अपने ट्वीट में भी फिजिकल डिस्टेंसिंग ही लिख रहे हैं।
पर, भारत में सोशल डिस्टेंसिंग शब्द का धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है। समाज शास्त्रियों का कहना है कि महामारी में बचाव के लिए लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग रखने की जगह अपने सामाजिक रिश्ते और मजबूत रखने होंगे।
अमेरिका की नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस और पब्लिक पॉलिसी के प्रोफेसर डेनियल अल्ड्रिच शुरुआत से ही ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ शब्द के इस्तेमाल पर ऐतराज जताते रहे हैं। अपने शोधपत्र में प्रोफेसर डेनियल अल्ड्रिच ने युद्ध, आपदा और महामारियों से उबरने में सामाजिक संबंधों की भूमिका पर एक शोध किया है उनका कहना है कि आपातकाल में उन लोगों के बचने की संभावना ज्यादा होती है जो सामाजिक तौर पर सक्रिय होकर जिंदादिल बने रहते हैं।
कड़वा सच तो यह भी है कि अधिक जनसंख्या घनत्व वाले मेट्रो व अन्य शहरी इलाकों में सोशल डिस्टेंसिंग का अमल किसी भी हालत में मुमकिन नहीं है। एक कमरे दर्ज़न भर लोग और एक टॉयलेट से कैसे इस पर अमल हो सकता है।
सोशल मीडिया ही नहीं, मेन स्ट्रीम मीडिया में भी सोशल डिस्टेंसिंग का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है और इस शब्द के इस्तेमाल से जाने-अनजाने समुदायों के बीच दूरी बढ़ाई जा रही है, जो समाज के साथ ही देश के लिए भी घातक साबित हो सकती है।