जिस खेलगांव को खेल विश्वविद्यालय बनाने के नाम पर झारखंड में मंत्री और अधिकारी एक बार फिर विदेश यात्रा की तैयारी में हैं वह खेलगांव और साथ ही राज्य की खेल नीति भी दयनीय दशा में है. अनुपमा की रिपोर्ट.
यह कुछ ऐसा ही है कि खड़ी फसल का क्या हो इस पर बात होती रहे और इस बीच फसल को जानवर चरते चले जाएं. बीते साल झारखंड में राष्ट्रीय खेल हुए तो इस आयोजन के समापन समारोह में मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने एलान किया था कि खेलगांव को खेल विश्वविद्यालय बनाया जाएगा. उनके बाद उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो ने भी बात दोहरा दी. इतना ही नहीं, खेल विश्वविद्यालय कैसे बने, इसका अध्ययन करने के लिए वे शिक्षा मंत्री और कुछ अधिकारियों की फौज के साथ जर्मनी की यात्रा भी कर आए. साल की शुरुआत में हुई इस यात्रारूपी कवायद का क्या नतीजा निकला यह बताने वाला तो कोई नहीं, लेकिन यह जरूर है कि जिस खेलगांव के लिए यह बड़ा सपना देखा जा रहा है इस बीच उसकी दुर्दशा होती जा रही है.
अब नई खबर यह है कि एक बार फिर खेल विश्वविद्यालय का मॉडल देखने के लिए विदेश जाने की तैयारी हो चुकी है. एक ही देश में बार-बार जाने से शायद बोरियत का खतरा है इसलिए सूत्रों के मुताबिक इस बार अधिकारियों के सौजन्य से और राज्य के उपमुख्यमंत्री सह खेल मंत्री सुदेश महतो की सहमति से चीन, कनाडा, अमेरिका व यूरोपीय देशों में जाने का प्रस्ताव तैयार किया गया है. सूचना है कि इस यात्रा का प्रस्ताव दो चरणों में तैयार हुआ है और ज्यादा किचकिच न हो, इसके लिए खेल विभाग के अधिकारियों के साथ भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) से भी कुछ लोगों को ले जाने का मन बनाया गया है. अभी प्रस्ताव विचाराधीन है, लेकिन खेल विभाग में यह बयान रटा जा चुका है कि मॉडल खेल विश्वविद्यालय बनाने के लिए यह दौरा जरूरी है. जैसा कि राज्य के खेल निदेशक संत कुमार कहते हैं, ‘एक बार, दो बार क्या, बार-बार जाना पड़ेगा. जाएंगे नहीं तो देखेंगे-समझेंगे कैसे कि क्या-क्या और कैसे-कैसे होता है सब. और फिर क्या पता, कब, कहां का कोई आइडिया पसंद आ जाए.’
खेल निदेशक अपनी बात ऐसे कहते हैं जैसे झारखंड के खेलगांव को संवारने और उसे विश्वविद्यालय बनाने के सारे सूत्र कहीं न कहीं विदेश के ही किसी कोने में पड़े हुए हैं जो बार-बार जाने पर कभी न कभी हाथ आ ही जाएंगे. हालांकि जनवरी में हुई जर्मनी यात्रा में शामिल विभाग की उपनिदेशक सरोजनी लकड़ा दूसरी राय रखती हैं. वे कहती हैं कि खेल विश्वविद्यालय बनने में कितने साल लगेंगे, कहा नहीं जा सकता!
राज्य में 2007 में ही खेल नीति बना दी गई थी लेकिन इतने साल बाद भी राज्य के खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ ठोस हुआ हो, ऐसा नहीं दिखता
खेल विभाग के दूसरे अधिकारियों और खेल संघ के पदाधिकारियों के साथ-साथ खेल विशेषज्ञों से बात करने पर साफ संकेत मिलता है कि जहां तक खेल विश्वविद्यालय का सवाल है तो फिलहाल सरकार के पास इसके नाम पर विदेश दौरे के अलावा कोई ठोस योजना नहीं है. न ही सरकार खेलगांव के लिए ज्यादा चिंतित है. कई लोग यह बात कहते हैं और तथ्य उनकी बात को वजन देते लगते हैं. इस बीच जिस खेलगांव के नाम पर विदेश के सैर-सपाटे बनाने के लिए तरह-तरह के तर्क-कुतर्क गढ़ने की तैयारी चल रही है उसका हाल बुरा है. खेलगांव में आधारभूत संरचना के निर्माण पर 652 करोड़ रु का खर्च आया था. इतनी बड़ी राशि से तैयार खेलगांव दो ही साल में रखरखाव के उचित अभाव में बर्बाद हो रहा है.
वहां से सर्विलांस कैमरे से लेकर पानी के नल तक गायब हो रहे हैं. दरवाजे या तो तोड़ दिए गए हैं या वे टूट गए हैं या फिर निकाल लिए गए हैं. वही हाल कई जगहों पर टाइलों का भी है. यह तब है जब सरकार की ओर से उसी खेलगांव की रक्षा-सुरक्षा के लिए सालाना 68 लाख खर्च किए जा रहे हैं. खेल आयोजन के दौरान लगभग 75 करोड़ की खेल सामग्री खरीदी गई थी. जो आया वह अब किस हाल में है, उसका आकलन खेल विभाग अब तक नहीं करा सका है. दूसरी ओर बिरसा स्टेडियम में लगे 40 लाइट विजन टेलीस्कोपों में से अधिकतर का कोई अता-पता नहीं है. इनके गायब होने की सूचना भी पुलिस में दर्ज कराई गयी थी, लेकिन उनका कुछ पता नहीं चल सका. जानकार बताते हैं कि ऐसे टेलीस्कोपों का उपयोग या तो पुलिस के लिए है या नक्सलियों के लिए. पता नहीं, ये किनके पास हैं.
ऐसे सारे सवालों से बेपरवाह खेल विभाग खेलगांव को खेल विश्वविद्यालय बनाने का राग गाने में लगा हुआ है. उसी के नाम पर फिर से विदेश जाने की तैयारी चल रही है. 34वें राष्ट्रीय खेल आयोजन समिति के कोषाध्यक्ष सह राष्ट्रीय लॉन बॉल एसोसिएशन के अध्यक्ष मधुकांत पाठक कहते हैं,’25 साल में भी वहां कोई राष्ट्रीय खेल विश्वविद्यालय नहीं बनने जा रहा क्योंकि उसके लिए कई जरूरी प्रक्रियाओं को पूरा करना पड़ता है जिनकी शुरुआत अब तक नहीं हो सकी है. ‘ खेलगांव के पूर्व सलाहकार मारुति ठाकुर कहते हैं, ‘सबसे पहले एसेसमेंट की जरूरत है ताकि एक सिस्टम बन सके लेकिन वही नहीं हो रहा.’ ठाकुर कहते हैं कि यदि सरकार खेल विश्वविद्यालय के बारे में चिंतित है तो अब तक यूजीसी से एक बार संपर्क होना चाहिए था या रांची विश्वविद्यालय से ही संपर्क किया जाना चाहिए था, जो नहीं हो सका है.
हालांकि सरकार के अधिकारी कहते हैं कि वे कोशिश कर रहे हैं. खेल विश्वविद्यालय बनाने के लिए और फिर उसे चलाने के लिए सक्षम सहयोगी की तलाश में खेल विभाग ने इसी साल की शुरुआत में यानी जनवरी में एक विज्ञापन भी निकाला था. लेकिन कोई सहयोगी मिला ही नहीं. इस बाबत जब तत्कालीन खेल निदेशक गणेश प्रसाद से बात होती है तो वे चुप्पी साध लेते हैं. फिर इतना भर कहते हैं कि एक सक्षम एजेंसी की तलाश हो रही है इसलिए नए सिरे से प्रस्ताव भी तैयार हो रहा है. अब यह बताया जा रहा है कि विदेश दौरे के साथ ही खेल विश्वविद्यालय के लिए सहयोगी खोजने का काम रांची स्थित आईआईएम को भी दिया जा सकता है. सूत्रों के मुताबिक इसके लिए आइआइएम को परामर्श शुल्क के तौर पर डेढ़ करोड़ रुपये देने का भी प्रस्ताव तैयार हुआ है.
वैसे एक खेल विश्वविद्यालय बनने से राज्य में रसातल में जाते खेल का कितना भला होगा, यह तो ठीक-ठीक आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन इसके इतर सरकार का खेलों के प्रति रवैया देखें तो उससे मिलने वाले संकेत कोई खास उम्मीद नहीं जगाते.
कहने को तो राज्य में 2007 में ही खेल नीति बना दी गई थी लेकिन इतने साल बाद भी राज्य के खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ ठोस हुआ हो ऐसा नजर नहीं आता. राज्य बनने के 12 साल बाद भी अब तक सरकार सिर्फ दो खिलाडि़यों को नौकरी दे सकी है. वह भी इसी साल जब मुक्केबाज अरुणा मिश्रा और तीरंदाज झानु हांसदा को नौकरी दी गई. अब तक कई खिलाडि़यों द्वारा राज्य छोड़ देने के मामले सामने आ चुके हैं. खेलनीति में इस बात का भी जिक्र है कि राज्य के खिलाड़ियों को सरकारी नौकरी में दो प्रतिशत का आरक्षण भी दिया जाएगा. लेकिन राज्य में लागू आरक्षण नीति में अब तक खिलाडि़यों के लिए अलग कोटा जैसा कुछ है ही नहीं.
खेल नीति में ही खिलाड़ियों को सीधे नौकरी देने की बात भी है और माध्यमिक स्तर पर खेलों को अनिवार्य विषय बनाने की भी. साथ ही यह भी कि स्कूलों में खेल शिक्षकों की विशेष नियुक्ति भी होगी. लेकिन इनमें से शायद ही कोई बात राज्य में लागू हो रही हो. खेल विशेषज्ञ सुशील कुमार कहते हैं, किसी भी खिलाड़ी की सक्रिय उम्र लगभग 10 साल होती है. इस दरमियान वह खेल में अपनी पूरी ऊर्जा लगा सकता है, लेकिन इसी दौरान यदि उसे रोटी-रोजी की चिंता रहे तो वह खेल में एकाग्रता नहीं दिखा सकता. उसके लिए रोजगार का सवाल सबसे अहम बन जाता है.’ इसी निराशा के कारण राज्य के एथलीट रितेश आनंद और अजय कुमार राज्य छोड़ चुके हैं. इन दोनों एथलीटों को रेलवे ने नौकरी दे दी है.
बात सिर्फ खिलाडि़यों की ही नहीं है. खेलसंघों के लिए अनुदान बंद होने की वजह से राज्य में खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन भी लगातार रुका हुआ है. पर लगता है कि फिलहाल ये सवाल बेमानी हैं. खेल विभाग के कुछ अधिकारी सरकार से अगली यात्रा पास होने के इंतजार में हैं. इस बार क्या नतीजा निकलेगा, वह भी देखा जाएगा. वैसे दबी जबान में विभाग के एक अधिकारी खुद ही कहते हैं कि यह तफरीबाजी है, कुछ नहीं हाथ आने वाला.