यात्रा और गंतव्य

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अधिकार यात्रा के दौरान उनका जगह-जगह पर हुआ विरोध क्या संकेत देता है? निराला की रिपोर्ट.

बिहार में पिछले सात साल के दौरान ऐसा पहली बार हुआ है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कोई यात्रा नकारात्मक वजहों से ज्यादा चर्चा में आई हो. सिलसिला 23 सितंबर को शुरू हुआ. अपनी अधिकार यात्रा के तहत नीतीश मधुबनी पहुंचे तो वहां नियोजित शिक्षकों ने उन्हें काले झंडे दिखाए, कुर्सियां पटकीं और जूते दिखाकर अपना विरोध जताया. 27 सितंबर को नीतीश के बेगूसराय पहुंचने पर भी हंगामा हुआ. छात्रों ने उन्हें काले झंडे दिखाए और नियोजित शिक्षकों ने हाइवे जाम कर दिया. सभास्थल पर अंडे फेंकने और जूते लहराने की भी घटना हुई. उसी दिन मुख्यमंत्री जब खगड़िया पहुंचे तो वहां भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला. महिलाओं ने पथराव किया. डीजीपी की गाड़ी के शीशे तोड़े गये. कलेक्ट्रेट परिसर में भी आगजनी की कोशिश हुई. नीतीश के स्वागत में बने तोरण द्वार धू-धू कर जले. आंसूगैस, लाठीचार्ज से लेकर हवाई फायरिंग तक की नौबत आई. नीतीश सभास्थल पर तीन घंटे बाद पहुंच सके. इसके बाद 28 सितंबर को तमाम इंतजामों के बाद भी मधेपुरा की सभा में भी उनकी तरफ चप्पल उछाल दी गई.  हर घटना पर नीतीश की प्रतिक्रिया कुछ यही रही कि यह सब विपक्ष की साजिश है क्योंकि उसके पास कोई मुद्दा नहीं बचा है. 

लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या इन घटनाओं को महज अपवाद कहकर खारिज किया जा सकता है? सामाजिक कार्यकर्ता उदय कुमार कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है. एक स्वाभाविक आक्रोश तो है लोगों में.’ वे आगे बताते हैं कि राज्य में हाल के दिनों में स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार बहुत तेजी से बढ़ा है. इससे सामाजिक आक्रोश में भी बढ़ोतरी हुई है. इसका एक संकेत यह है कि पिछले एक साल में ग्राम पंचायतों के 36 मुखियाओं पर हमले हुए हैं. इनमें से कुछ मामलों में तो मुखियाओं की जान भी गई है. उदय कुमार कहते हैं, ‘सिर्फ मुखिया ही नहीं, बीडीओ, दरोगा और यहां तक कि कभी-कभी विधायक भी लोगों के निशाने पर आ जाते हैं. ऐसे में मुख्यमंत्री उनके बीच आएगा तो कुछ विरोध तो उसे भी झेलना ही पड़ेगा.’  

उधर, एक वर्ग का यह भी कहना है कि बिहार में अब शोर ज्यादा है, जमीन पर काम उस तेजी से नहीं हो रहा जैसा नीतीश राज के पहले चरण में हो रहा था. चर्चित समाजशास्त्री डॉ सचिंद्र नारायण कहते हैं, ‘लोगों को यह विरोधाभास भी हजम नहीं हो रहा कि एक तरफ तो आप कह रहे हैं कि बिहार देश में सबसे तेजी से विकास करने वाला राज्य है और उसी दिन आपका यह बयान भी आ जाता है कि जब तक विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिलेगा तब तक बिहार में विकास नहीं हो सकता.’ नीतीश के विकास के मॉडल पर खुद उन्हीं के सहयोगी भी सवाल उठा रहे हैं.  जदयू के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘विकास के मुद्दे पर बिहार को एक नये नजरिये की जरूरत है. तथाकथित बुद्धिजीवियों के पास जाने से कुछ नहीं होगा.’  हालांकि जदयू के प्रदेश प्रवक्ता संजय सिंह कहते हैं कि यह मुख्यमंत्री पर सुनियोजित हमला था. वे इसका ठीकरा राजद के सिर फोड़ते हैं. जदयू के अध्यक्ष सह राज्यसभा सांसद वशिष्ठ नारायण सिंह भी राजद की ओर ही इशारा करते हैं. सत्तापक्ष के कई और नेता खुलेआम खगडि़या की घटना को राजद का कारनामा बताकर इसे एक दायरे में समेटने की कोशिश करते हैं.  दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव से जब इस बाबत बात होती है तो वे कहते हैं, ‘बिहार में अघोषित आपातकाल चल रहा है, सरकार के खिलाफ जनता आंदोलन शुरू कर चुकी है.’ भाकपा और भाकपा माले नियोजित शिक्षकों के विरोध प्रदर्शन का समर्थन करती हैं. भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य के मुताबिक यह विरोध विकास के दावों की सच्चाई बताता है. लोकजनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान भी कुछ ऐसी ही बात करते हैं.

वैसे यह भी कहा जा सकता है कि राजनेताओं के समर्थन और विरोध की अपनी-अपनी वजहें होती हैं. लेकिन इसके इतर भी कई बातें हैं. जैसे जो नियोजित शिक्षक नीतीश के लाडले माने जाते थे और पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश की जीत में एक अहम फैक्टर माने गए थे, वे उनके विरोधी बनते जा रहे हैं तो इसका असर आने वाले दिनों में भी दिखेगा और यह नीतीश के लिए परेशानी का सबब बन सकता है. नीतीश के लिए परेशान करने वाला एक सवाल यह भी हो सकता है कि राजद, एनएसयूआई और वाम छात्र संगठनों के साथ भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने भी विरोधी खेमे में शामिल होकर नंग-धड़ंग प्रदर्शन क्यों किया.  इन सबके बीच एक बड़ा सवाल यह भी तैर रहा है कि क्या यह महज प्रायोजित विरोध-प्रदर्शन था या बिहार की नाराज जनता का स्वतःस्फूर्त आंदोलन. इसका जवाब चार नवंबर को नीतीश कुमार के नेतृत्व में होनेवाली अधिकार रैली के बाद ही सही-सही मिल सकेगा. रैली में उपस्थित जनता की संख्या और उनके स्वरूप को देखकर.  वैसे इस बीच राज्य के पुलिस महानिदेशक अभयानंद का एक बयान हैरान करता है. वे कहते हैं, ‘मैंने महिलाओं के हाथों में पत्थर देख लिये थे जो करीब आधा किलो से कम वजनी नहीं थे. महिलाओं ने पत्थर चलाये, मैंने सिर नीचे कर लिया.’ अभ्यानंद कहते हैं, ‘जिनका मकसद होगा कि घबराकर पुलिस गोली चलाए वे अपने मकसद में सफल नहीं हो सके.’ 

मुख्यमंत्री के काफिले के सामने कपड़ा उतार कर अपना विरोध दिखाते हुए नियोजित शिक्षक.

नेताओं की बातों को तो गले के नीचे उतार भी सकते हैं लेकिन पुलिस महानिदेशक की ऐसी बातें थोड़ी अटपटी लगती है. महिलाएं पत्थर लेकर आईं, उन्होंने ये चलाए भी, डीजीपी की गाड़ी के शीशे टूट गए. नौजवान मुख्यमंत्री की गाड़ी के साथ दौड़ते हुए काले झंडे दिखाते रहे. कई जगहों पर आगजनी हो गई. ऐसे में खुद के बच जाने और समझदारी से गोलीबारी होने की स्थिति नहीं आने देने का किस्सा बयान कर डीजीपी क्या कहना चाहते हैं, यह साफ नहीं हो पाता. अलग-अलग जगह के बयानों, बवालों के राजनीतिक मायने अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन खगडि़या में पहली नजर में सीधे-सीधे सुरक्षा व्यवस्था में चूक का मामला भी था, खुफिया तंत्रों के फेल हो जाने का मामला भी था. डीजीपी यह स्वीकारते तो वह ज्यादा ईमानदार बयान होता. बेगुसराय और खगड़िया में कई दिनों से यह बात हवा में तैर रही थी कि यहां सीएम का जबर्दस्त विरोध होगा. विरोध-प्रदर्शन हिंसक भी हो सकता है, यह बात भी बेगुसराय-खगडि़या में सबको मालूम थी. पिछले 20 दिनों से खगडि़या में इसका माहौल था. प्रदर्शनकारियों की तैयारियों की थाह क्या पुलिस नहीं ले पाई थी? अगर विरोधी दलों की ही साजिश थी तो पुलिस को इसकी भनक क्यों नहीं लग सकी पहले? 

इस एक सप्ताह की सियासी गतिविधियों का असर बिहार की सियासत पर अगले कितने सप्ताह तक और किस-किस रूप में पड़ेगा, इसका आकलन करना अभी जल्दबाजी होगी. बयानों के बाण अप्रत्याशित रूप में चलेंगे यह भी तय है. यह अप्रत्याशित रूप कैसा भी हो सकता है. 19 सितंबर जैसा भी हो सकता है जब नीतीश कुमार ने कांग्रेस कोसने का अभियान शुरू करने के पहले एक बयान देकर सबको चौंका दिया था. उनका कहना था कि जो भी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देगा वे उसी को समर्थन दे देंगे. लगे हाथ वे यह भी बोले कि केंद्र की सरकार बेकार में दो-चार सांसदों वाली पार्टी की ओर देखती रहती है.  नीतीश के इस रहस्यमयी बयान से राज्य सरकार में उनकी सहयोगी भाजपा भी सकते में आई थी और विपक्षी पार्टी राजद भी. इस तरह देखा जाए तो एक बयान ने दो धुरियों पर राजनीति करने वाली पार्टियों को हिलाया. वैसे नीतीश कुमार की राजनीति को जाननेवाले जानते हैं कि वे ऐसे ही रहस्यमयी बयान देकर एक तीर से कई निशाने साधने में माहिर हैं. इस तरह वे बाजी में चित्त और पट्ट, दोनों अपने खाते में रखना चाहते हैं. 

‘अधिकार यात्रा’ नाम से सातवीं राजनीतिक यात्रा पर निकले नीतीश कुमार कह रहे हैं कि उनकी इस यात्रा का मकसद चार नवंबर को पटना के गांधी मैदान में बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलवाने के लिए प्रस्तावित अधिकार रैली के लिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को गोलबंद करना है. लेकिन जानकारों की मानें तो इस बार सरकार की बजाय जदयू के लिए यात्रा पर निकले नीतीश की कोशिश यह भी है कि इसके इतर भी कई दूसरे मकसद सध जाएं. रैली में भारी भीड़ जुटाकर नीतीश अपनी ताकत साथी भाजपा और विपक्षी राजद समेत दूसरे दलों के नेताओं को भी दिखाना चाहते हैं. साथ ही दिल्ली को भी इसका अहसास करवाना चाहते हैं. बताते हैं कि नीतीश इसके जरिये खुद को भी आंकना चाहते हैं कि बिहार में आखिर में घूम-फिरकर जाति के खोल में ही समा जाने वाली वोटों की राजनीति में वे सामाजिक स्तर पर अपने जनाधार का विस्तार कितना और कहां तक कर पाए हैं.  

संभव है अधिकार यात्रा और रैली से केंद्र की राजनीति में मजबूत दखल देने, केंद्र से अधिक व विशेष पैकेज लेने, अगले लोकसभा चुनाव में जदयू और नीतीश कुमार की अहमियत को गंभीरता से लेने का मामला कुछ हद तक या बहुत हद तक सधे भी. लेकिन विशेष राज्य दर्जे का वोट की राजनीति पर व्यापक असर पड़ेगा, इसे लेकर अभी भी संदेह है. प्रेक्षकों का मानना है किइस मसले पर जन जागरण के लिए बिहारी उपराष्ट्रवाद को केंद्रीय माध्यम बनाकर नीतीश पहली चूक कर चुके हैं. जानकारों के मुताबिक कई वजहों से बिहारी उपराष्ट्रीयता इतनी आसानी से परवान नहीं चढ़नेवाली और जब तक वह नहीं होगा, विशेष राज्य दर्जा का मसला वोट की राजनीति में कोर मसला नहीं बननेवाला.  बात कुछ हद तक सही भी लगती है. अगर ऐसा होता तो कम-से-कम भाजपा इस अभियान को इतनी आसानी से सिर्फ नीतीश को अपने पाले में नहीं करने देती और न वह अभियान को लेकर ऐसी निष्क्रियता दिखाती.