मई के दूसरे हफ्ते में जब नेपाल ने एक नक्शा जारी कर भारत के हिस्से- लिपुलेख और दो अन्य इलाकों को अपना बताने का दावा किया, कमोवेश उसी समय चीन लद्दाख सीमा पर भारत के लिए तनाव पैदा कर रहा था। पाकिस्तान पहले से ही सीमा पर आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे रहा है। इस तीन तरफा तनाव के बीच भारत ने सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण गिलगित-बाल्टिस्तान पर खुला दावा करके अपना दाँव चला है। आज जब कोविड-19 वायरस से उपजी महामारी से निपटने में अनेक देश उलझे हैं, भारतीय सीमाओं पर अचानक बढ़ रही इस हलचल के खास मायने हैं।
गिलगित-बाल्टिस्तान को लेकर भारत का दावा बहुत पहले से है। पाकिस्तान दशकों से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और बाद में राजीव गाँधी और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों पर यह आरोप लगाता रहा है कि भारत अपनी सुरक्षा एजेंसी ‘रॉ’ के ज़रिये गिलगित-बाल्टिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में, जिसे वो आज़ाद कश्मीर कहता है; पाक-विरोधी लोगों को बढ़ावा देता रहा है। याद रहे रॉ का गठन 21 सितंबर, 1968 को इंदिरा गाँधी ने आर.एन. काव के सहयोग से किया था।
चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध के बाद भारत एक ऐसी मज़बूत सुरक्षा एजेंसी की ज़रूरत महसूस कर रहा था, जो उसे बहुत सक्षम तरीके से बाहर की जानकारियाँ दे सके। इस ज़रूरत को पूरा करते हुए इंदिरा गाँधी ने लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद सत्ता में आते ही रॉ का गठन किया। हालाँकि, पाकिस्तान आरोपों के अलावा कभी भी साबित नहीं कर पाया कि रॉ गिलगित-बाल्टिस्तान में होने वाली गतिविधियों में किसी भी तरह से शामिल रहा है। लेकिन यह ज़रूर सच है कि वहाँ पाकिस्तानी सेना की ज़्यादतियों के खिलाफ एक बड़ा वर्ग खड़ा हो चुका है। जबकि रॉ से करीब 20 साल पहले 1948 में बनी पाकिस्तान की एजेंसी आईएसआई की भारत में तोडफ़ोड़ और आतंकवाद को बढ़ावा देने की गतिविधियाँ दर्ज़नों मौकों पर ज़ाहिर हो चुकी हैं।
गिलगित-बाल्टिस्तान पाकिस्तान ही नहीं, चीन के लिए भी बहुत अहम है और उसकी कमज़ोर नस भी; क्योंकि वहाँ उसका आॢथक कॉरिडोर बन रहा है। पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद गिलगित-बाल्टिस्तान में वह चुनाव कराने की तैयारी कर रहा है, जिसका भारत ज़बरदस्त विरोध कर रहा है। इस साल के शुरू में भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) को लेकर भी अपना दावा जताया था। गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में कहा था कि पीओके को वापस लेने का समय आ गया है। ऐसे में पाकिस्तान का बौखलाना स्वाभाविक ही है।
पाक की चाल
गिलगित-बाल्टिस्तान में पिछले 73 साल से स्वायत्तशासी सरकार रही है। वहाँ वह खुद अपना चुनाव कराती है। लेकिन अब पाकिस्तान वहाँ चुनाव करवाने की चाल चल रहा है। यहाँ यह बताना भी बहुत ज़रूरी है कि गिलगित के लोगों ने पाकिस्तान के नियंत्रण में रहना कभी स्वीकार नहीं किया है और वहाँ की जनता हमेशा पाकिस्तान के खिलाफ रही है। गिलगित-बाल्टिस्तान को लेकर पाकिस्तान के भीतर असुरक्षा की भावना रही है। इस भावना से बाहर निकलने के लिए एक रणनीति के तहत पाकिस्तान ने 2018 में गवर्नमेंट ऑफ गिलगित-बाल्टिस्तान के संविधान में संशोधन कराकर वहाँ चुनाव की अनुमति अपने सुप्रीम कोर्ट से माँगी थी। तब भी भारत ने इसका कड़ा विरोध किया था। इसी साल 30 अप्रैल को पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस गुलज़ार अहमद की अगुआई वाली सात सदस्यीय खण्डपीठ ने पाकिस्तान को गिलगित-बाल्टिस्तान में चुनाव करवाने को मंज़ूरी दे दी।
इसके तहत वहाँ चुनाव से पहले पाकिस्तान की मंज़ूरशुदा अंतरिम सरकार कामकाज देखेगी और वही चुनाव भी करायेगी। वर्तमान असेंबली का कार्यकाल जून में खत्म होने वाला है। पहले जब भी वहाँ चुनाव हुए हैं, पाकिस्तान का कोई बड़ा रोल उसमें नहीं रहा है। लेकिन अब सीधे पाकिस्तान का दखल इसमें रहेगा।
पाकिस्तान की इस चाल के पीछे उसका यह डर है कि गिलगित-बाल्टिस्तान में उसके खिलाफ उभर रहा असंतोष भविष्य में गम्भीर रूप ले सकता है। पाकिस्तान इसके पीछे भारत का हाथ देखता रहा है और ऐसे आरोप भी लगाता रहा है।
गिलगित-बाल्टिस्तान में पहले से ही पाकिस्तान से अलग होने यानी आज़ादी के समर्थन में आन्दोलन चल रहा है। वहाँ के लोग पाकिस्तान से खासे नाराज़ हैं और अपने मामलों में उसका हस्तक्षेप बिल्कुल नहीं चाहते। वहाँ के एक संगठन डेमोक्रेटिक फ्रंट के नेता शब्बीर मेहर इस आन्दोलन का नेतृत्व करते हैं। आशंका यह भी है कि पहले से ही गिलगित-बाल्टिस्तान में ज़ुल्म करने का आरोप झेल रहा पाकिस्तान वहाँ अपनी कठपुतली सरकार लाकर आन्दोलन को कुचलने के लिए पूरी ताकत झोंक देगा। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 खत्म करने के बाद मोदी सरकार 2020 के शुरू से ही पीओके और गिलगित-बाल्टिस्तान पर फोकस करती दिख रही है। भारत का गिलगित-बाल्टिस्तान को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना पाकिस्तान और चीन दोनों को बेचैन कर रहा है।
भारत का जवाब
जब पकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका का निपटारा करते हुए इमरान खान सरकार को वहाँ कानून में बदलाव के साथ चुनाव का निर्देश दिया, तो भारत ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया दी।
इसके जवाब में भारत ने चुनाव की इस कोशिश को न केवल अवैध बताया, बल्कि भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) ने जम्मू-कश्मीर उपमण्डल को अब जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, गिलगित-बाल्टिस्तान और मुज़फ्फराबाद कहना शुरू कर दिया। गिलगित-बाल्टिस्तान और मुज़फ्फराबाद दोनों पर पाकिस्तान का लम्बे समय से अवैध कब्ज़ा है। मौसम विभाग के महा निदेशक मृत्युंजय महापात्रा ने बाकायदा इसे लेकर बयान दिया-‘मौसम विभाग पूरे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के लिए वेदर बुलेटिन (मौसम समाचार) जारी करता है। हम बुलेटिन में गिलगित-बाल्टिस्तान, मुज़फ्फराबाद का ज़िक्र इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि वह भारत का हिस्सा है।’ हालाँकि, यह भी सच है कि इससे पहले विभाग गिलगित-बाल्टिस्तान-पीओके को अपनी मौसम भविष्यवाणी में शामिल नहीं करता था। जैसे ही आईएमडी ने इन इलाकों को अपने मौसम प्रसारण में जोड़ा, पाकिस्तान इससे तिलमिला उठा। भारत ने गिलगित-बाल्टिस्तान में चुनाव करवाने को लेकर ही पाकिस्तान को नहीं चेताया, बल्कि इस पूरे इलाके को खाली करने की भी चेतावनी दे दी। ज़ाहिर है कि यह छोटा मामला नहीं है और दोनों देशों के बीच इसे लेकर आने वाले महीने बहुत तनाव भरे हो सकते हैं। भारत कह चुका है कि केंद्र शासित प्रदेश पूरा जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, जिसमें गिलगित-बाल्टिस्तान भी शामिल हैं; पूरी तरह कानूनी और अपरिवर्तनीय विलय के तहत भारत का अभिन्न अंग हैं और पाकिस्तान सरकार या उसकी न्यायपालिका को इन इलाकों पर हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं हैं; क्योंकि उसने इन्हें अवैध तरीके और ज़बरन कब्ज़ाया है।
गिलगित-बाल्टिस्तान में हाल के वर्षों में बहुत-से स्थानीय संगठन सामने आये हैं, जो पाकिस्तान पर वहाँ के लोगों के मानवाधिकार का उल्लंघन करने और शोषण करने के अलावा उन्हें स्वतंत्रता से वंचित रखने के गम्भीर आरोप लगाते रहे हैं। यही नहीं, उनका यह भी आरोप रहा है कि पाकिस्तान वहाँ की कीमती सम्पदा की लूट कर रहा है। वहाँ पाकिस्तान के खिलाफ सोच रखने वाला एक बड़ा वर्ग है, जो भारत के प्रति समर्थन की उम्मीद रखता है। कांग्रेस-यूपीए की नरसिम्हा राव सरकार ने भारतीय संसद में 1994 में एक प्रस्ताव पास करके जम्मू-कश्मीर पर स्थिति साफ की थी। उस प्रस्ताव में साफतौर पर पीओके सहित इन इलाकों को भारतीय जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बताया गया था। यहाँ यह भी दिलचस्प है कि 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर के दो हिस्से करने के बाद भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के अलग केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद देश का जो नया मानचित्र जारी किया, उसमें पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) के हिस्सों को कश्मीर क्षेत्र में दर्शाया गया था। इनमें पीओके के तीन ज़िले मुज़फ्फराबाद, पंच और मीरपुर शामिल हैं।
चीन की बढ़ती हरकतें
इन सबके बीच चीन की हरकतों से लद्दाख और सीमा के दूसरे इलाकों में तनाव बढ़ रहा है। लद्दाख में भारत और चीन के सैनिकों के बीच टकराव कहने को तो स्थानीय स्तर पर सुलझा लिया गया, परन्तु असलियत यह नहीं है। चीन इस सीमा पर बड़े पैमाने पर अपने सैनिकों की तैनाती कर रहा है। वैसे यह भी बहुत दिलचस्प तथ्य है कि भारत और चीन में बार-बार के तनाव के बावजूद पिछले चार दशक में एक बार भी गोलीबारी की घटना नहीं हुई है; लेकिन तनाव कई बार गम्भीर रूप लेता भी दिखा है। दोनों देशों के बीच उभर रहे विवादों को उच्च स्तर पर बातचीत से हल करने की कोशिशें होती रही हैं। लेकिन रिपोट्र्स यह ज़ाहिर करती हैं कि चीन सीमा इलाके में अपनी पकड़ मज़बूत करने की कोशिशों में जुटा है।
रिपोट्र्स से संकेत मिलता है कि लाल सेना पैंगोंग लेक के किनारे पोजिशन सँभाल रही है। चीनी सैनिक मोटरबोट के ज़रिये गश्ती करते देखे गये हैं और उनके रुख में आक्रामकता दिखती है। हाल के हफ्तों में चीन सेना ने भारत की सेना के बनाये अस्थायी ढाँचों को नुकसान पहुँचाने जैसे उकसाने वाले काम भी किये हैं।
जिस गलवान क्षेत्र में चीन और भारत के सैनिकों के बीच टकराव हुआ था, वहीं चीन की सेना को अभ्यास करते भी देखा गया है। उत्तरी सिक्किम और लद्दाख क्षेत्र में गैर-चिह्नित सीमा (एएलओसी) क्षेत्र में भारत और चीन के बीच तनाव बढ़ता दिख रहा है। दोनों देशों ने वहाँ अपने सैनिकों की संख्या बढ़ायी है। डेमचक, दौलत बेग ओल्डी, गलवान नदी और लद्दाख में पैंगोंग सो झील के पास के संवेदनशील इलाकों में भारत और चीन, दोनों ने अपने-अपने अतिरिक्त सैनिकों को तैनात
किया है। ऐसा नहीं कि चीन का केवल भारत के साथ ही सीमा को लेकर तनाव है, बल्कि उसकी कमोवेश हर पड़ोसी देश से तनातनी है। इन देशों में इंडोनेशिया, वियतनाम, ताइवान और मलेशिया प्रमुख हैं। भारत के साथ चीन का 60 साल से गलवान इलाके को लेकर विवाद चल रहा है। चीन ने गलवान घाटी इलाके में बड़ी संख्या में तम्बू गाड़े हैं। इससे उपजे तनाव के बाद वहाँ दोनों ओर सैनिकों की संख्या बढ़ी है।
पैंगोंग सो लेक के इस इलाके में ही 5 मई को भारत-चीन के सैनिकों के बीच तीखी झड़प भी हुई थी; जिसमें 200 से ज़्यादा सैनिक लोहे की छड़ों, डंडों के साथ आपस में भिड़ गये थे। इस घटना में दोनों पक्षों के काफी सैनिक घायल हुए थे। सिक्किम के नाकू ला दर्रा वाले इलाके में भी 9 मई को भारत और चीन के सैनिक आमने-सामने आ गये। ऐसा नहीं है कि भारत हाथ पर हाथ धरे बैठा है। दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) में भारत ने हाल के महीनों में सडक़ और पुल का निर्माण किया है। कुछ जानकार चीन की इस उत्तेजनापूर्ण कार्रवाइयों के पीछे दूसरे कारण भी देखते हैं। उनका कहना है कि चीन कोविड-19 के बाद अपने देश में उभरी आॢथक परिस्थितियों को लेकर चिन्ता में है। कुछ बड़े देशों की चीन से अपनी कम्पनियों के पलायन की तैयारी से चीन में ज़बरदस्त बेचैनी है। चीन किसी भी सूरत में नहीं चाहता कि यह कम्पनियाँ भारत जाएँ। इसलिए वह भारत के साथ सीमा पर तनाव बढ़ा रहा है। उसके हेलीकॉप्टर भारतीय सीमा के पास उड़ते देखे गये हैं; जिसके बाद भारत ने कुछ इलाकों में एहतियातन अपने लड़ाकू विमानों को भेजा है।
उलझने लगा नेपाल
नेपाल और भारत के बीच सीमा विवाद अब तनाव बनने लगा है। भले चीन ने इसे भारत-नेपाल के बीच का मामला बताकर खुद को अलग दिखाने की कोशिश की है, लेकिन बहुत से जानकार मानते हैं कि पिलुलेख विवाद के पीछे वास्तव में चीन ही है। नेपाल भारत के उत्तराखण्ड में पडऩे वाले लिपुलेख और कालापानी को अपना क्षेत्र बता रहा है। यही नहीं उसने बाकायदा नया नक्शा जारी करके इसे नेपाल का हिस्सा बता दिया है। इसके बाद भारत और नेपाल के बीच इस इलाके को लेकर तनाव पैदा हो गया है।
नेपाल सरकार लिपुलेख और कालापानी को भारत का अतिक्रमण बता रही है और इसका विरोध कर रही है। नेपाल ने लिम्पियाधुरा, लिपुलेख और कालापानी को अपने नक्शे में दिखाने के लिए बाकायदा प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली की अघ्यक्षता में मंत्रिपरिषद् की बैठक की थी। काफी समय चुप रहने के बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने अपनी प्रतिक्रिया में नेपाल को भारत की संप्रभुता का सम्मान करने की नसीहद दी है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव ने कहा है कि हम नेपाल सरकार से अपील करते हैं कि वह ऐसे बनावटी कार्टोग्राफिक प्रकाशित करने से बचे और अपने फैसले पर फिर विचार करे। वैसे लिपुलेख पूरी तरह भारतीय क्षेत्र है और विदेश मंत्रालय यह कहता भी रहा है।
नेपाल इस मामले में भारत से उलझ रहा है। यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि नेपाल के संस्कृति और पर्यटन मंत्री योगेश भट्टराई ने एक ट्वीट कर नेपाल के प्रधानमंत्री ओली का इस फैसले के लिए धन्यवाद करते हुए इसे इतिहास के पन्नों पर सुनहरी अक्षरों से लिखाई बताया।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 8 मई को लिपुलेख के पास से होकर गुज़रने वाले उत्तराखंड-मानसरोवर मार्ग का उद्घाटन किया था। यह इलाका चीन, नेपाल और भारत की सीमाओं से जुड़ा है। करीब 22 किलोमीटर की यह सडक़ लिपुलेख दर्रे पर जाकर खत्म होती है। कैलाश-मानसरोवर जाने वाले श्रद्धालुओं को अब इस सडक़ के बन जाने से सिक्किम और नेपाल के खतरनाक ऊँचाई वाले रास्ते से नहीं जाना पड़ेगा। हालाँकि, वहाँ नेपाल के लोग यह सडक़ बनने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। भारत के सेनाध्यक्ष मनोज मुुकुंद नरवणे ने जब इस प्रदर्शन को किसी और के इशारे पर हुआ बताया था, तो नेपाल इससे भडक़ उठा था। नेपाल ने कहा कि भारत ने जिस सडक़ का निर्माण किया है, वह उसकी (नेपाल की) ज़मीन है, जिसे भारत को लीज़ पर दिया जा सकता है; लेकिन उसका इस पर दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता। नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली इस मामले पर आक्रामक रुख अपनाते दिख रहे हैं। नेपाल में भारत विरोधी प्रदर्शन भी हो रहे हैं। सवाल यह है कि क्या चीन भारत के पड़ोसी देशों को भडक़ाकर भारत को डराना चाहता है?
गिलगित-बाल्टिस्तान का इतिहास
गिलगित-बाल्टिस्तान को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच पिछले करीब 73 साल से तनातनी रही है। ब्रिटिश शासन से मुक्ति से पहले गिलगित-बाल्टिस्तान जम्मू-कश्मीर रियासत का हिस्सा था। हालाँकि, सन् 1947 के बाद वहाँ पाकिस्तान का कब्ज़ा हो गया; जिसे भारत अवैध बताता रहा है। गिलगित बाल्टिस्तान का बहुत सामरिक महत्त्व भी है। दरअसल सन् 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ, यह क्षेत्र जम्मू-कश्मीर की तरह न तो भारत का हिस्सा था और न ही पाकिस्तान का। साल 1935 में ब्रिटेन ने इस हिस्से को गिलगित एजेंसी को 60 साल के लिए लीज पर दे दिया। लेकिन इस लीज को पहली अगस्त, 1947 को रद्द कर दिया गया। इस फैसले के बाद ब्रिटिश शासन ने इसे जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को लौटा दिया। इससे तिलमिलाये एक स्थानीय कमांडर कर्नल मिर्ज़ा हसन खान ने महाराजा हरि सिंह से विद्रोह कर दिया। कर्नल खान ने 2 नवंबर, 1947 को गिलगित-बाल्टिस्तान को स्वतंत्र घोषित कर दिया। लेकिन इसकी खबर महाराजा हरि सिंह को पहले से ही जानकारी हो गयी थी, लिहाज़ा उन्होंने इससे दो दिन पहले ही 31 अक्टूबर को अपनी रियासत का भारत में विलय करने को मंज़ूरी दे दी थी। इसके बाद यह भारत का हिस्सा बन गया। लेकिन करीब 21 दिन बाद पाकिस्तान के सैनिक गिलगित-बाल्टिस्तान इलाके में घुस गये और इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। तबसे वहाँ पाकिस्तान का ही कब्ज़ा है। हालाँकि इसके बावजूद अभी तक वहाँ के स्थानीय लोगों की चुनी सरकार है; जिसमें पाकिस्तान का हस्तक्षेप नहीं होता। अब वहाँ चुनाव का ऐलान कर पाकिस्तान ने इसे अपना एक सूबा बनाने की चाल चली है। यहाँ यह कहना भी उचित है कि ब्रिटिश संसद भी बाकायदा एक प्रस्ताव पास करके गिलगित-बाल्टिस्तान पर पाकिस्तान के कब्ज़े को अवैध बता चुकी है। ब्रिटिश सरकार की संसद के मुताबिक, गिलगित-बाल्टिस्तान भारत के जम्मू और कश्मीर का हिस्सा है। गिलगित का इलाका दुनिया के सबसे खूबसूरत इलाकों में माना जाता है। गिलगित-बाल्टिस्तान की सीमाएँ चार देशों- भारत, पाकिस्तान, चीन और तज़ाकिस्तान से मिलती हैं।
क्यों अहम है गिलगित-बाल्टिस्तान?
गिलगित-बाल्टिस्तान पूरे दक्षिण एशिया में सामरिक दृष्टि के लिहाज़ से बहुत ही महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। करीब 20 लाख की आबादी वाला यह इलाका लगभग 73,000 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। सिर्फ बेपनाह खूबसूरती ही गिलगित-बाल्टिस्तान की पहचान नहीं है। चीन की चॢचत इकोनॉमिक कॉरिडोर योजना गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर ही गुजऱती है। यही नहीं, पाकिस्तान को चीन से जोडऩे वाला काराकोरम हाईवे भी इसी क्षेत्र में है। चीन के इकोनॉमिक कॉरिडोर पर भारत ही नहीं, अमेरिका भी विरोध दर्ज करा चुका है। भारत का कहना है कि यह गलियारा अन्तर्राष्ट्रीय कानून के मुताबिक अवैध है। इसे चीन-पाक इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) कहा जाता है। यह आॢथक गलियारा दोनों देशों के सम्बन्धों के लिहाज़ से बहुत महत्त्वपूर्ण है और यह ग्वादर से काशगर तक करीब 2442 किलोमीटर लम्बा है। इसके निर्माण से पीछे का उद्देश्य दक्षिण-पश्चिमी पाकिस्तान से चीन के उत्तर-पश्चिमी स्वायत्त क्षेत्र शिंजियांग तक ग्वादर बंदरगाह, रेलवे और हाईवे के माध्यम से तेल और गैस का कम समय में वितरण करना है।
यहाँ यह उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि चीन ने सन् 1998 में पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर निर्माण कार्य शुरू किया, जो साल 2002 में पूरा हुआ। इस परियोजना (सीपीईसी) की आरम्भिक लागत 62 बिलियन डॉलर (2017 में) बतायी गयी है। दरअसल यह गलियारा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) है, जो गिलगित-बाल्टिस्तान और बलूचिस्तान होते हुए निकलेगा। इस क्षेत्र पर भी भारत का दावा रहा है। लिहाज़ा भारत इस परियोजना का विरोध कर रहा है। रिपोट्र्स के मुताबिक, यह माना जाता है कि ग्वादर बंदरगाह को कुछ इस तरह विकसित करने की योजना है कि यह 19 मिलियन टन कच्चा तेल सीधे चीन भेजने में सक्षम होगा। हालाँकि, इस परियोजना के पूरा होने में अभी समय लगेगा। चीन की शी जिनपिंग सरकार ने साल 2014 में इस इकोनॉमिक गलियारे की घोषणा की और पाकिस्तान में विभिन्न विकास कार्यों के लिए करीब 46 बिलियन डॉलर देने का ऐलान किया। चीन और पाकिस्तान ने साझा रूप से 18 दिसंबर, 2017 को सीपीईसी की दीर्घकालीन अवधि योजना को मंज़ूरी दी। इसके तहत चीन और पाकिस्तान साल 2030 तक आॢथक साझेदार रहेंगे। विशेषज्ञों के मुताबिक, यह गलियारा दक्षिण एशिया के भू-राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव लाने की क्षमता रखता है। विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि पाकिस्तान-चीन इसे भविष्य में एक बड़े नौसैनिक अड्डे के तौर पर विकसित कर सकते हैं, जिससे चीन को दक्षिण एशिया के इस क्षेत्र में रणनीतिक लाभ मिलेगा। इसका महत्त्व इससे भी समझा जा सकता है कि ईरान, रूस और सऊदी अरब भी भविष्य में सीपीइसी का हिस्सा बनने को लेकर दिलचस्पी दिखाते रहे हैं। इस गलियारे का लक्ष्य चीन के उत्तरी-पश्चिमी झिनजियांग सूबे के काशगर से पाकिस्तान की बलूचिस्तान स्थित ग्वादर बंदरगाह के बीच सडक़ों का 3,000 किलोमीटर का व्यापक नेटवर्क और अन्य कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट्स के ज़रिये सम्पर्क बनाना है। चीन ऊर्जा आयात करने के लिए इस समय करीब 12,000 किलोमीटर लम्बे रास्ते का इस्तेमाल करता है। लेकिन यह गलियारा उसके इस रास्ते को बहुत छोटा कर देगा। इससे चीन सिर्फ अपना पैसा ही नहीं बचायेगा, बल्कि हिन्द महासागर तक उसकी पहुँच भी हो जाएगी। पाकिस्तान को इस गलियारे से अपने इंफ्रास्ट्रक्चर, नौसैनिक शक्ति और ऊर्जा क्षेत्र के विकसित होने की भी बहुत उम्मीद है।