करीब तीन दशक पहले जब मैं पत्रकारिता में आया, तो तब पत्रकारिता एक विपक्षी की भूमिका में रहती थी। सरकार चाहे किसी की भी हो, लेकिन पत्रकारों की उसकी खामियों पर बराबर नज़र बनी रहती थी। तब पत्रकारों की अपनी एक अहमियत हुआ करती थी। हालाँकि तबसे अब तक सूचना क्रान्ति के विस्फोट के साथ-साथ पत्रकारिता का बहुआयामी विकास हुआ है। अब डिजिटल पत्रकारिता का ज़माना है। तकरीबन 62 हज़ार से ज़्यादा पंजीकृत अखबारों और 600 से अधिक समाचार चैनलों के साथ हमारे यहाँ की पत्रकारिता आज पूरे देश को एक दिशा देने में अहम भूमिका निभा रही है। लेकिन दु:ख इस बात का है कि इनमें से अधिकतर अखबार और चैनल देश के लिए पत्रकारिता न करके सियासी पार्टियों के लिए दरबान का काम करने लगे हैं। आज महसूस किया जा रहा है कि आधुनिक जीवनशैली जीने की चाह और पैसे कमाने की होड़ में पत्रकारिता अपने दायित्व से मुकरती-सी जा रही है। सवाल यह नहीं है कि बदलते दौर में पत्रकारिता ने अपना कलेवर क्यों बदला है? बल्कि सवाल यह है कि अपनी-अपनी पसन्द के सियासी दलों के लिए अब पत्रकारिता क्यों हो रही है? अब चुनावों में खबरें चलाने से लेकर किसी मुद्दे पर बहस होने तक पक्षपाती या हमलावर होती है। बाज़ार में छाये रहने के लिए नये-नये पैंतरे और तरीके अब पत्रकारिता का एक शगल हो गया है।
अभी पिछले दिनों टीवी चैनलों द्वारा टीआरपी के खेल को लेकर मामला सामने आया, तो अब एक चैनल हैड की गिरफ्तारी को लेकर लड़ाई सियासी पार्टियों की निजता पर आती प्रतीत होती है। उत्तर प्रदेश में दर्ज़नों पत्रकारों पर खबरें दिखाने पर कार्रवाई होना, कई पत्रकारों की हत्या होना और अब तो एक पत्रकार के हाथ-पैर तोड़े जाने की घटना भी इस बात की साफ गवाही देती है कि सत्ताधारी पार्टियाँ भी अब अपने हित की पत्रकारिता चाहती हैं। जो पत्रकार सरकार की पोल-पट्टी खोलता है, उसे या तो जेल होती है या उसके साथ मार-पीट होती है। सवाल यह है कि अपनी जान हथेली पर रखकर पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की हिफाज़त का ज़िम्मा क्या पुलिस, प्रशासन और सरकारों का नहीं है? लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ को आखिर क्यों इतना खोखला और कमज़ोर बनाया जा रहा है कि जनता के हित में काम करने की बजाय वह पार्टी विशेष के हित में काम करने लगा है? सवाल यह भी है कि क्या इसके लिए केवल सियासी पार्टियाँ या सरकारें ही ज़िम्मेदार हैं? नहीं, कहीं-न-कहीं पत्रकार और मीडिया संस्थान भी इसके लिए उतने ही ज़िम्मेदार हैं। जैसा कि मैंने कहा कि आधुनिक जीवनशैली की चाह और पैसा कमाकर लग्जरी और आधुनिक जीवनशैली जीने की हवस ने पत्रकारिता को आज उस चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहाँ से वह हर तरफ से सांसत में हैं। वरना आज से तीन दशक पहले तक एक पत्रकार की इतनी ठसक होती थी कि वह कन्धे पर झोला लटकाये पैदल भी चलता था, तो उसकी हर जगह इ•ज़त होती थी और उसके आने पर सियासी दलों में एक भय बना रहता था कि वह कहीं कुछ उलटा-सीधा लिखकर छाप न दे। तब पत्रकार भी किसी मुद्दे को लेकर चुप्पी नहीं साधते थे और न ही किसी मुद्दे पर फालतू की चिल्लापुकारी करते थे। सन् 1993 में दूरदर्शन के एक कार्यक्रम ‘परख’ के लिए काम करने के दौरान देखने को मिला कि लुटियंस ज़ोन में किसी मंत्री से कुछ बात करनी होती थी, तो वह हमारी टीम की खातिरदारी और सम्मान में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते थे। आज इस चीज़ का टोटा साफ दिखाई पड़ता है।
उस समय शुरू हुए कार्यक्रमों और निजी चैनलों पर 24 घंटे हाय-हाय वाली खबरें नहीं चलती थीं। एस.पी. सिंह जैसे लोग प्रिंट से टीवी मीडिया का रुख कर चुके थे। तब हर खबर का एक औचित्य होता था; जिसका सरोकार समाज से जुड़ा होता था। समाज को बाँटने की प्रथा तब नहीं थी। देखते-देखते सब बदल गया। अब न पत्रकारों की इ•ज़त बहुत बची है और न पत्रकारिता की। अब अधिकतर चैनलों के पत्रकार उसी परदे के पीछे झाँकने की चेष्टा करते हैं, जिस परदे के पीछे सत्ताधारी पार्टी दिखाना चाहती है। ऐसे चैनलों पर से आम जनमानस के मुद्दे गायब से हो चुके हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पत्रकारिता का नैतिक और चारित्रिक पतन हो रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह भोंपू मीडिया है। इस तरह के पत्रकारों के सवाल भी उनके गुस्से के चलते लाल दिखायी देते हैं। आधुनिक पत्रकारिता का जन्म यूरोपीय देशों में हुआ, लेकिन आज इसका गैर-ज़िम्मेदाराना विकास हमारे देश में हो रहा है; जिस पर अंकुश लगाया जाना बहुत ज़रूरी है। भारत में पत्रकारिता का जन्म स्वतंत्रता संग्राम की भागीदारी से शुरू हुआ था, लेकिन आज वही पत्रकारिता लोगों की स्वतंत्रता में खलल का संसाधन बनती जा रही है। सन् 1920 के दशक में यूरोप में जब पत्रकारिता की सामाजिक भूमिका पर बहस शुरू हो रही थी, तब तक भारत में पत्रकारिता प्रौढ़ अवस्था में पहुँच चुकी थी। तब यहाँ पत्रकारिता के मूल में दो शर्तें थीं- चरित्रवान होना और निष्पक्ष होना। लेकिन अब पत्रकारिता में इन दोनों ही शर्तों का नितांत अभाव होता जा रहा है, जिसके चलते पत्रकारिता विकास के चर्मोत्कर्ष की बजाय पतन की ओर बढ़ रही है। सन् 1827 में राजा राममोहन राय ने लिखा था कि मेरा उद्देश्य सिर्फ यही है कि मैं जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबन्ध उपस्थित करूँ, जो उनके अनुभवों को बढ़ाएँ और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हों। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूँ, ताकि शासक जनता को अधिक से अधिक सुविधा देने का अवसर पा सकें और जनता उन उपायों से परिचित हो सके, जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और उचित माँगें पूरी करायी जा सकें। लेकिन जैसे ही देश आज़ाद हुआ, भारत की राजनीतिक स्वाधीनता के साथ-साथ पार्टियों की ताकतें बढ़ती गयींं और उन्होंने जनसरोकार के लिए बनी पत्रकारिता को अपनी दहलीज़ का दरबान बनाने की कोशिश शुरू कर दी और आज बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि पत्रकारिता के अधिकतर संस्थानों ने सियासी पार्टियों की दरबानी को स्वीकार कर लिया। मैं नाम नहीं लेना चाहूँगा, लेकिन ऐसे कई संस्थान हैं, जो नेताओं-मंत्रियों, खासतौर से सियासी पार्टियों की दरबानी कर रहे हैं।
मेरा मानना है कि अगर पत्रकारिता को सही रास्ते पर लाना है और समाज को बदलने, उसे तरक्की प्रदान करने वाली पत्रकारिता को फिर से ज़िन्दा करना है, तो उसमें कई बदलाव करने होंगे। सरकार और सूचना-प्रसारण मंत्रालय को इसमें पत्रकारिता का सहयोग करना चाहिए। क्योंकि अगर लोकतंत्र के चौथा स्तम्भ समाज में इसी तरह अपना स्तर खोता रहा, तो सम्भव है कि लोग पत्रकारिता के नाम से और नफरत करने लगें।
शैक्षणिक योग्यता के साथ चरित्र भी ज़रूरी
एक समय था, जब पत्रकारिता में प्रवेश उसी व्यक्ति को मिलता था, जो देश-समाज की तरक्की चाहता था और जिसे निष्पक्ष समझा जाता था। बदलते समय के साथ धीरे-धीरे पत्रकारिता में गुटबाज़ी शुरू हुई। सम्पादकों ने अपनी पसन्द के पत्रकारों और स्टाफ को रखना शुरू कर दिया और उससे अपने-अपने हिसाब से ही पत्रकारिता कराने की कोशिश की जाने लगी। इसके बाद सौदेबाज़ियाँ शुरू होने लगीं। पत्रकार सत्ता की चौखट पर बैठने लगे और अब जो हालात हैं, उन्हें बयान करने की ज़रूरत नहीं है, वह आप सब देख ही रहे हैं। दूरदर्शन एवं तमाम निजी चैनलों के समाचार और करंट अफेयर्स के कार्यक्रमों के लिए वीडियोग्राफी करने से लेकर देश के प्रतिष्ठित समाचार समूहों का सफर तय करते हुए आज एक सुप्रसिद्ध समाचार पत्र में राजनीतिक सम्पादक के पद तक पहुँचने मुझे इस बात का गर्व और सन्तुष्टि होती है कि मैंने अपने आप को पत्रकारिता के मानदंडों पर टिका रहने दिया। हालाँकि इसके लिए काफी मुसीबतें भी झेलीं। कई जगह से अच्छी-खासी नौकरियाँ भी छोड़ीं, पर पत्रकारिता के पैमाने पर समझौता नहीं किया। आज कई नये युवा पत्रकारिता में आकर रातोंरात अमीर बनना चाहते हैं, जिसके लिए वे कुछ भी करने तक को तैयार हो जाते हैं। पहले संस्थानों में पत्रकारिता की पढ़ाई करके आने वाले विरले ही होते थे, लेकिन उनमें चरित्र होता था, उनमें अपने पेशे के प्रति ईमानदारी होती थी। वहीं आज 80 से 90 फीसदी युवा पत्रकार पत्रकारिता की पढ़ाई करके आते हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर में न तो चरित्र है और न ही पत्रकारिता के प्रति ईमानदारी। इसलिए मेरा मानना है कि अब पत्रकारिता में योग्यता के साथ-साथ चरित्र का होना बहुत ज़रूरी है।
सरकारों को होना होगा सर्वग्राही
आपने पढ़ा होगा हाल ही में उत्तर प्रदेश के ललितपुर में एक पत्रकार के हाथ-पैर तोडऩे की घटना फिर घटी है। उत्तर प्रदेश में पहले भी पत्रकारों की पिटाई और उन पर कार्रवाई होती रही है। पत्रकार पर हमला करने वाले सत्ताधारी दल के नेता के पुत्र बताये जा रहे हैं। खबरों के मुताबिक, पीडि़त पत्रकार मनरेगा में गड़बड़ी की कवरेज़ करने गये थे। सवाल यह है कि अगर निष्पक्ष पत्रकारिता करने पर पत्रकारों को पीटा या उन पर जानलेवा हमला किया जाएगा, उनके खिलाफ झूठे मुकदमे लिखें जाएँगे या उनकी हत्या की जाएगी, तो पत्रकारिता के पेशे में कौन ईमानदार व्यक्ति उतरेगा? इसलिए मेरा मानना है कि सरकार को भी पत्रकारिता में दखलंदाज़ी करने से परहेज़ करना होगा और हर सरकार को अपने नेताओं को साफ हिदायत देनी होगी कि पत्रकारों के काम में किसी भी तरह से बाधक न बनें, अन्यथा उन्हें भी सज़ा भुगतनी होगी। इसके साथ-साथ सरकारों को सर्वग्राही होना पड़ेगा। यानी खबर जैसी भी हो, अगर वह सही है, तो अपने खिलाफ होते हुए भी उसे स्वीकार करना होगा।
फर्ज़ी और समाज में फूट डालने वाले पत्रकारों पर हो कार्रवाई
मेरा मानना है कि पत्रकारिता में तब तक सुधार नहीं हो सकता, जब तक फर्ज़ी और समाज को बाँटने या फूट डालने वाले पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी। क्योंकि ऐसे पत्रकारों की वजह से दूसरे ईमानदार और असली पत्रकारों की इमेज पर खराब असर पड़ता है और लोगों का पत्रकारिता पर से भरोसा उठता है। ऐसे में ज़रूरी है कि पत्रकारिता को सही रास्ते पर रखने के लिए कानून और सरकारों से पहले पत्रकारिता संस्थान ऐसे पत्रकारों पर कार्रवाई करें, जो केवल अपने फायदे के लिए पत्रकारिता के स्तर को गिराने का काम कर रहे हैं।
सही रास्ते से भी होती है तरक्की
पिछले साल देश के एक निजी टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार को रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें यह बड़ा सम्मान वास्तविक जीवन और सामान्य लोगों की परेशानियों को सामने लाने में दिये योगदान को देखते हुए दिया गया। आज पत्रकारिता में आने वाले युवाओं को लगता है कि उन्हें समाज में सम्मान तभी मिलेगा, जब उनके पास धन-सम्पदा, बड़ी गाड़ी और बंगला होगा। लेकिन मेरे विचार से ऐसा नहीं है। अगर पत्रकारिता सही मायने में की जाए, तो इस पेशे में बेहद सम्मान और भरपूर पैसा, सब कुछ है। लेकिन इसके लिए सब्र और कड़ी मेहनत की आवश्यकता है। क्योंकि असली सम्मान और टिकाऊ पैसा देर से और अधिक मेहनत के बाद ही इंसान की झोली में आते हैं। रातों-रात अमीर होने वाले, रातों-रात परेशानियों में भी फँस जाते हैं; जिसके तमाम उदाहरण हैं। मैं तो कहता हूँ कि ये परेशानियाँ सिर्फ पत्रकारिता में ही नहीं, बल्कि किसी भी पेशे में आने वाले युवाओं को इस बात को हमेशा ध्यान रखना चाहिए।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं। इसी महीने आपको मुंशी प्रेमचंद अवॉर्ड से नवाज़ा गया है।)