आपकी कविता की शुरुआत किस माहौल में हुई?
जब मैंने लिखना शुरू किया तब देश आजाद हो रहा था. वह घटना हमारे पूरे सामाजिक जीवन को प्रभावित करने जा रही थी और उसने ऐसा किया भी. उसके बाद के लगभग एक दशक यानी लगभग 1960 तक, जिसे हम नेहरू काल भी कह सकते हैं, उसमें हम लोग थोड़ी उम्मीद के साथ चलते रहे. लेकिन चीन-भारत संघर्ष एक बड़ी घटना थी जिसने हमारे पूरे सोच को प्रभावित किया. बहुत सारे हवाई किले, जो नेताओं ने बनाए थे, वे टूट गए. मैं पंडित नेहरू को इस बात के लिए साधुवाद दूंगा कि चीन के आक्रमण के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि हम कल्पना-लोक में रह रहे थे. उसके बाद का दौर तो अनेक प्रकार की घटनाओं का दौर रहा, राजनीतिक स्तर भी और सामाजिक स्तर पर भी और उससे हिंदी-कविता जुड़ती गई. हिंदी-कविता प्रत्यक्षत:- नक्सल आंदोलन से जुड़ी क्योंकि कुछ कवि ऐसे थे, जो बाकायदा उस विचारधारा को न सिर्फ मानते थे बल्कि सक्रिय रूप से उसमें भाग लेने का भी प्रयास कर रहे थे. बड़े-बड़े बांध बने, लोगों का उजड़ना शुरू हुआ. यह कुछ ऐसी घटनाएं थीं, जो उस समय उतनी भयावह नहीं लगती थीं. मेरे जैसे लोगों को उस समय लगता था कि विकास की कुछ कीमत तो होगी ही. लेकिन अब लगता है कि विकास शब्द को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है.
विकास के इस छलावे को हिंदी कविता ने किस प्रकार से पहचाना और उसका साहित्य के उस दौर पर क्या प्रभाव पड़ा?
विकास की इन विसंगतियों को हिंदी-कविता में उस दौर के दो लोगों ने देखा. सबसे पहले मुक्तिबोध ने. उनकी कविताएं बड़ी शक्तिशाली थीं. भाषा भी अद्भुत थी. उनकी भाषा से लगता था कि जैसे उन्होंने कल-कारखानों की भाषा को समाविष्ट कर लिया हो कविता में. उन्होंने उस भाषा में बहुत ही अद्भुत कविताओं का सृजन किया. आजादी के बाद हिंदी-कविता में पहला बड़ा परिवर्तन मुक्तिबोध ही लाए. उसके बाद धूमिल इसमें शामिल हो गए. धूमिल मेरे लिए एक विस्मयजनक कवि हैं. मैंने उनकी आरंभिक कविताएं भी पढ़ीं और सुनी थीं. उनमें कहीं ऐसे किसी विलक्षण कवि का कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता था, जैसे बाद में वे हो गए. समय के साथ उनकी कविता में एक अद्भुत विकास हुआ. इतनी बड़ी छलांग वे इस वजह से लगा सके कि समय उसके पीछे अपना काम कर रहा था. वे समय को समझने वाले कवि थे. उन्होंने समय को पकड़ा और हमारे सामने एकदम से धूमिल का नया व्यक्तित्व उभरा. उन्होंने समाज को झकझोरकर रख दिया.
प्रारंभ में आपने केवल गीत लिखे? इसका कोई विशेष कारण था? बाद में आपने गीत लिखना क्यों छोड़ दिया?
मैंने अपनी कविता की यात्रा गीतों से शुरू की थी. उसका कारण यह था कि मैं लोक-गीतों से बहुत प्रभावित था. गांव से आया था, इसलिए लोक-गीतों की गूंज मेरे भीतर थी. गीतों में जो लयात्मकता थी, वह मुझे बहुत प्रभावित करती थी. गांव का माहौल भी मुझे खींचता था. खेत, पगडंडियां, नदी और गांव का पूरा परिवेश मेरे साथ जुड़ा हुआ था. जब मैं गांव छोड़कर बनारस आया तो वह भी एक बड़े गांव की तरह ही लगा, लेकिन फिर भी वह एक शहर था. वहां आकर गांव के प्रति मेरे भीतर आकर्षण बढ़ा. उस बोध अथवा उस नए अनुभव के भीतर से सबसे पहले मेरे गीत पैदा हुए और मैंने कुछ गीत लिखे. मुझे एक बात बहुत जल्दी ही समझ में आ गई कि सिर्फ गीतों से काम नहीं चलने वाला. मुझे तत्कालीन गीतों की एक रूढ़ि पसंद नहीं थी कि गीत की जो पहली पंक्ति होती है वह बाद की सारी पंक्ति यों को डिक्टेट करती है. यह मुझे सही नहीं लगता था इसीलिए मैं गीतों से हट गया.
आपने हिंदी-कविता का एक नया स्वरूप गढ़ा और उसे एक नई दिशा दी. इसके मूल में क्या है अर्थात यह सब कैसे हुआ?
कविता का कोई नया ढांचा गढ़ने की मेरी इच्छा नहीं थी. मुझे यह जरूर लगता था कि प्रगतिशील धारा की जो दिशा थी, कविता का उससे थोड़ा अलग स्वरूप बने. मैं नई कविता की धारा में तो शामिल नहीं था. मैं देख रहा था कि दूसरी तरफ क्या हो रहा है. नई कविता ने जो कुछ भी हमें दिया था, मैं उसे भी साथ लेकर चलना चाहता था. यह मेरा सौभाग्य था कि मैं लंबे समय तक शहर से परे रहा. गांव की बात नहीं कर रहा हूं. एमए तथा पीएचडी करने के बाद मुझे छोटे से कस्बे में नौकरी मिली, जो गांव की तरह ही था. वहां मैं 13-14 साल रहा. मैंने वहां लोगों को करीब से देखा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को बुलाया था एक बार मैंने वहां और उनको उस इलाके में ले गया था. अगर मैं उनके साथ न गया होता तो भारत का असली चेहरा न देखा होता. उन दृश्यों की विद्रूपता ने मुझे कविता के स्वप्ररूप के बारे में दोबारा सोचने पर विवश किया.
आज की कविता पर आरोप लगाया जाता है कि वह प्रभावहीन है, पाठकों में रुचि नहीं जाग्रत करती और उनकी स्मृति में ज्यादा दिन टिकने योग्य नहीं है?
जो कविताएं एक खास तरह की बोल-चाल की लय में लिखी जाती हैं, लोगों को उनसे जुड़ने में कठिनाई नहीं होती है. जब तक पाठक या श्रोता कविता को अपनी आवाज में रिक्रिएट नहीं करेगा, तब तक वह उससे जुड़ेगा नहीं. अभी कुछ दिन पहले जेएनयू की एक गोष्ठी, में कोई सज्जन मेरी एक कविता के बारे में कुछ बोल रहे थे. उन्होंने मेरी कविता ‘पानी की प्रार्थना’ उद्धृत की. वे वहां जिस तरह से उसे पढ़ रहे थे, उससे उस कविता का जरा-सा भी संप्रेषण नहीं हो रहा था. कविता को कविता की तरह पढ़ने की कला भी सिखाई जानी चाहिए. यह कवियों का काम भी है. उन्हें स्कूल व कॉलेजों में जाना चाहिए और क्लास में कविताएं पढ़कर सुनानी चाहिए. जब बच्चे आज की कविता की लय से जुड़ेंगे तभी जाकर वे आज की कविता की संवेदना से, उसके परिवेश से जुड़ पाएंगे. तभी कविता और समान्यजन के बीच की दूरी कम हो पाएगी.
पिछले दो दशकों में पूरे विश्व के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक संरचना में व्यापक बदलाव आया है, भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है? इस परिवर्तन का कविता पर किस तरह का प्रभाव पड़ता देख रहे हैं?
मैं कोई आर्थिक विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन 1990 के बाद के विकास को मैं काफी हद तक दुर्भाग्यापूर्ण मानता हूं. सोवियत संघ का विघटन भी विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्था बनने के पीछे एक बड़ा कारण रहा है. दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि जो महान प्रयोग वहां हो रहा था, वह विघटित हो गया. इस विघटन ने ही विश्व में वर्तमान परिस्थितियों के पैदा होने का मौका दिया. इसके पहले सरकार में उदारीकरण शब्द का नाम भी नहीं था. हिंदी का सबसे अनुदार शब्द है, उदारीकरण. किसके प्रति है यह उदारता ? हमें किसके प्रति उदार होना चाहिए ? हम उसके प्रति ही उदार हो रहे हैं, जो दिन-रात बढ़ रहा है. मैं इसे बड़ी चुनौती मानता हूं. कवि इससे टकरा तो रहा है, अनेक प्रकार के प्रयास कर रहा है और इस पर चोट भी कर रहा है. आप नए कवियों की कविताएं पढ़े तो आपको उनमें इस पर चोट करने वाली पंक्तियां जरूर मिलेंगी.
हिंदी-कविता में 1990 के बाद तेजी से स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श व हाशिए पर पड़े मानव-समूहों की चिंताएं उभरी हैं. आप इन विभिन्न विमर्शों के उभार को तथा उन पर केंद्रित साहित्यिक आलोचना को किस तरह देखते हैं?
मैं इन सारे विमर्शों को 1990 के बाद के सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों से जोड़कर देखना चाहूंगा. ये सब अपना-अपना हक मांग रहे हैं, जो उचित है. यह लोकतंत्र का विकास है. लोकतंत्र का जिस तरह का विकास राजनीतिक व्यवस्था कर रही है और जो संसद व कार्यपालिका के माध्यम से सामने आ रहा है, वह शंकित करता है. उसके भीतर से जो असंतोष पैदा हो रहा है, उसी असंतोष की उपज हैं ये सारे आंदोलन. मैं इन्हें इसी स्वरूप में देखता हूं और इन विमर्शों का काफी हद तक स्वागत करता हूं. लेकिन साहित्य को विमर्शों में घटाकर नहीं देखा जा सकता. उस पैमाने पर हम साहित्य का मूल्यांकन कर ही नहीं सकते. यह आदिवासी कविता है, इसलिए अच्छी है, यह पैमाना ठीक नहीं. चूंकि यह अच्छी कविता है, इसलिए अच्छी कविता है, यही पैमाना उचित होगा.
दलित-विमर्श की दृष्टि से गद्य-साहित्य की अपेक्षा हिंदी-कविता पीछे रही है. आप इसका कोई विशेष कारण पाते हैं?
दलित लेखक सीधे अपनी वे बातें कहते हैं, जिनसे हम इतने परिचित नहीं हैं. मैं अपने गांव में उन लोगों को देखा करता था, जो पशुओं का चमड़ा निकालने का काम करते थे. जब मैं उनके पास मरा हुआ पशु लेकर जाता था तो यही समझाता था कि वे चमड़े को निकालकर उससे जूते या अन्य सामान बनाते होंगे. बाद में तुलसीराम की आत्मकथा में पढ़ा कि वे उस मरे हुए पशु का मांस भी निकालकर मोहल्ले में बांटते थे और वह खाया जाता था. यह मेरे लिए शर्म से जमीन में गड़ जाने वाला झटका था. यह झटका देने वाली सचाई मुझे उनकी आत्मकथा से ही पता चली. ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियां भी बड़े अच्छे रूप में सामने आईं. उनकी कविताओं ने भी अच्छा योगदान दिया है. मैं इसे विमर्श नहीं कहूंगा. केवल एक प्रवृत्ति मानूंगा. यह साहित्य की धारा का हिस्सा है, इसे विमर्श कहकर घटाया नहीं जा सकता. मैं यह जरूर कहूंगा कि मराठी दलित कविता ने अब स्थिर राह पा ली है और वह अपनी पूरी कविता की परंपरा को, जो दलितों ने नहीं लिखी है, समझने की कोशिश कर रही है. ऐसा हिंदी की दलित-कविता के साथ नहीं हुआ. शायद आगे कभी हो.
स्त्री-विमर्श आज की कविता के केंद्र में है. समाज में स्त्रियों की समस्याओं के प्रति काफी जागरूकता भी आयी है. आपकी क्या धारणा है?
स्त्री भी हमारे समाज में दलितों की तरह भयातीत थी. अब वह मुक्त होने की कोशिश कर रही है. लेकिन अभी भी तमाम सामाजिक वर्जनाएं हैं जो काम कर रही हैं. इसके अनेक भेद-उपभेद हैं. जब समाज में जनतांत्रिक चेतना पैदा हुई तो उन्हें भी लगा कि उनके भी कुछ हक हैं, अधिकार हैं. वे अपने अधिकारों से वंचित हैं. यह अधिकार की चेतना उनके भीतर प्रबल होती जा रही है. संपत्ति में अधिकार, परिवार में अधिकार, कार्य-क्षेत्र में अधिकार, समाज व राजनीति में अधिकार आदि-आदि. स्त्रियों ने समाज की विसंगतियों के बारे में काफी कुछ लिखा है. कई स्त्री रचनाकारों ने बहुत अच्छी कविताएं लिखी हैं. कहानियां तथा उपन्यास भी लिखे जा रहे हैं.
कुछ लोग कहते हैं कि आपने कविताओं में स्त्री-विमर्श को उतना स्थान नहीं दिया, जितना आज के समय की अपेक्षा है.
हो सकता है कि मेरे अपने सामाजिक परिवेश की सीमा होने के कारण ऐसा हुआ हो. मैं कोशिश यही करता हूं कि इन सरोकारों पर निरंतर विचार करूं. मेरी रचनाओं में दलित-प्रश्नों पर काफी ध्यान गया है. स्त्रियां मेरे यहां शोषिता-प्रताड़िता के रूप में कम आई हैं. लेकिन अन्य विविध रूपों में स्त्रियां भी मेरी रचनाओं में कई जगह आई हैं. ‘एक प्रेम कविता को पढ़कर’ कविता में स्त्री का एक बड़ा ही मार्मिक पक्ष सामने आया है. ‘नमक’ कविता भी स्त्री-पुरुष संबंधों पर केंद्रित है. मेरी कविताओं में मां के रूप में अनेक स्त्रियां आई हैं, क्योंकि मैं मां को स्त्री का एक बहुत ही महत्वपूर्ण रूप मानता हूं. मेरी कविताओं में मजदूर स्त्री का भी वर्णन है. स्त्री का केवल मध्यमवर्गीय रूप ही महत्वपूर्ण नहीं है.
कविता में विचार का होना कितना जरूरी है? आप इसकी अभिव्यक्ति के लिए किसी विचारधारा या वाद से जुड़े होने को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं?
विचारधारा अलग चीज है, विचार अलग. विचारधारा को मैं छद्म-चेतना मानता हूं. विचार छद्म-चेतना नहीं है. विचार गलत हो सकता है, लेकिन वह छद्म है या धोखा है, ऐसा नहीं हो सकता. विचार कविता की अनिवार्यता है, केवल भाव कविता नहीं बन सकता. कविता के भाव में विचार हमेशा शामिल रहता है. बिना विचार के प्रगाढ़ भाव-बोध पैदा ही नहीं हो सकता. यदि होगा भी तो वह भावुकता में परिवर्तित हो जाएगा. भाव का अर्थ भावुकता नहीं है. भाव में विचार भी शामिल रहता है लेकिन आपको यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि हर कवि अपने ढंग से सोचता है, अपने विचार रखने की कोशिश करता है. मुक्तिबोध ने भी यही किया. अज्ञेय ने भी किया. आप उनके विचारों को अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं. मैं विचारधारा या किसी वाद का समर्थन नहीं करता, क्योंकि सभी विचारधाराओं की सीमाएं होती है. कई संगठन बार जरूरी रचनात्मक आजादी नहीं दे पाते. पार्टियां नहीं दे पातीं. इसलिए पार्टी, संगठन, वाद, इन सबसे मुक्त होकर ही चलना चाहिए.
हमारा लोकतंत्र एक जटिल दौर से गुजर रहा है, जहां लोग एक बड़ा परिवर्तन चाहते हैं लेकिन उनकी सोच को समुचित नेतृत्व नहीं मिल पा रहा. आप इसे किस दिशा में जाता देख रहे हैं?
यह निश्चित ही चिंता का विषय है कि आज देश में कोई बड़ा आंदोलन क्यों नहीं उठ रहा ? हम केवल चुनाव तक ही सीमित होकर क्यों रह गए हैं. इस ढीले-ढाले जनतंत्र का क्या होगा, जो अपनी सारी शक्ति अंतत: तथाकथित चुनाव से ही अर्जित करता है. मैं चुनाव का विरोध नहीं कर रहा हूं, किंतु संकट यही है कि वह पूरी तरह से जनता के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं कर पाता है. उसका जो भी परिणाम आता है, वह कैसे आता है, यह सभी लोग जानते हैं. मैं समझता हूं कि मनुष्य को स्वतंत्र रूप से सोचने के लिए अनुकूल परिस्थितियां हमें बनानी पड़ेंगी. इसमें कवि, लेखक, कलाकार अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं. मैं अग्रिम दस्ते में नहीं हूं क्योंकि मैं बीते हुए समय का आदमी हूं. लेकिन एक बीते हुए समय के आदमी की तरह आने वाले समय की एक धमक सुनना चाहता हूं.