मध्य प्रदेश के मंदसौर से लोकसभा सांसद मीनाक्षी नटराजन की पहचान बगैर किसी शोर-शराबे के काम करने वाले युवा नेता की है. उनके बारे में यह भी माना जाता है कि वे राहुल गांधी की टीम का अहम हिस्सा हैं. बीते दिनों उस वक्त वे विवादों में घिरती नजर आईं जब उन्होंने मीडिया पर नियंत्रण के लिए एक निजी विधेयक संसद में पेश किया. 39 साल की सादगी पसंद मीनाक्षी की सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता नई तो नहीं है लेकिन हाल में उन्होंने बतौर लेखिका दस्तक देने का काम अपनी दो खंडों की पुस्तक ‘1857: भारतीय परिप्रेक्ष्य’ के जरिए किया. इस किताब में 1857 की क्रांति और इससे जुड़े तथ्यों का विश्लेषण एक अलग दृष्टि से भारतीय परिप्रेक्ष्य में किया गया है. यह किताब इस बात को विस्तार से समझाती है कि कैसे 1857 की क्रांति ने भारत को राष्ट्र राज्य की अवधारणा के करीब लाने में अपनी भूमिका निभाई और देश के एक बड़े हिस्से को एक सूत्र में बांधा. इस किताब में 1857 की क्रांति और इस क्रांति तक पहुंचने के पूरे रास्ते से जुड़ी छोटी-बड़ी घटनाओं से परिचित कराते हुए एक स्पष्ट तस्वीर खींचने की कोशिश की गई है. किताब में उस दौर की समस्याओं के साथ उनके समाधान की बेचैनी भी दिखती है. मीनाक्षी का अंदाज-ए-बयां इतना सहज है कि पढ़ते वक्त कहीं भी बोझ या अटकाव महसूस नहीं होता. वैसे तो 1857 पर ढेरों किताबें लिखी गई हैं लेकिन हिंदी में अब भी इनकी संख्या मामूली ही कही जा सकती है. मीनाक्षी की इस कोशिश को उस कमी को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण योगदान के तौर पर देखा जाना चाहिए. किताब के बहाने इतिहास और वर्तमान समय के मौजूं सवालों पर मीनाक्षी से हिमांशु शेखर की बातचीत.
आपकी किताब का नाम है- 1857: भारतीय परिप्रेक्ष्य. क्रांति के दस्तावेजीकरण में ‘भारतीय परिप्रेक्ष्य’ से आपका क्या तात्पर्य है?
भारतीय परिप्रेक्ष्य से मेरा तात्पर्य उस समय की पृष्ठभूमि को समझने से है. सबसे पहले तो यह कि उस वक्त के आर्थिक शोषण से सामाजिक और सांस्कृतिक वैमनस्य उपजा. यह उस क्रांति की बड़ी वजह थी. सिर्फ चर्बी वाले कारतूस की वजह से उपजे प्रतिरोध से उस क्रांति को जोड़कर देखना उचित नहीं है, क्योंकि 1857 की क्रांति के लिए लंबी तैयारी के कई प्रमाण मिलते हैं. मिसाल के तौर पर, हजीमुल्ला और नाना साहब की तथाकथित तीर्थ यात्रा अलग-अलग कैंट क्षेत्र में हुई. इस यात्रा के दौरान ये दोनों अलग-अलग छावनियों में गए. इसके अलावा दोनों ने एक तारीख तय की. उस दौरान पत्र व्यवहार भी तैयारी को ही दिखाते हैं. संदेश के प्रचार-प्रसार के लिए लोक कला का इस्तेमाल किया गया. इन तैयारियों के बारे में अलग-अलग जगह लिखा जरूर गया है लेकिन उसे समग्रता में कभी नहीं देखा गया. यही वजह है कि उसे एक क्रांति के रूप में न देखकर सिर्फ चर्बी वाले कारतूस से उपजे प्रतिरोध के तौर पर देखा जाता है. इसे मैं न्यायसंगत नहीं समझती.
इस किताब से आप कैसा विमर्श शुरू होने की उम्मीद कर रही हैं?
इस किताब पर काम करते हुए दो बातें मेरे मन में बिल्कुल साफ थीं. एक बात तो यह कि हम उस वक्त को बिल्कुल सही ढंग से समझें. हमें यह भी समझना चाहिए कि बहुत समय के बाद 1857 एक ऐसा वक्त था जब देश के एक बड़े हिस्से ने एक राष्ट्र के रूप में सोचा था और एक केंद्रीकृत नेतृत्व के साथ इस लड़ाई को आगे बढ़ाया. यही वजह है कि उस दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में सामाजिक सद्भाव देखने को मिलता है. समाज को इन बातों को आज के परिप्रेक्ष्य से जोड़कर देखना चाहिए. हम एक बहुलतावादी समाज में रह रहे हों तब यह और भी जरूरी हो जाता है. आज भी अगर हम कोई आर्थिक फैसला करें तो उसके दूरगामी परिणामों पर व्यापकता से सोचना चाहिए.
इतिहासकारों का एक वर्ग ऐसा है जो यह मानता है कि अगर अंग्रेजों ने रेल और डाक जैसे बुनियादी ढांचों को विकसित नहीं किया होता तो भारत की तरक्की की राह में कहीं अधिक रोड़े होते. आपकी प्रतिक्रिया चाहूंगा?
हमें यह समझना होगा कि सोलहवीं सदी से लेकर अठारहवीं सदी के बीच ब्रिटेन में जो औद्योगिक क्रांति हुई उसके पीछे का अर्थ तंत्र क्या था. यह सिर्फ मैं नहीं कह रही हूं. विलियम डिगबाई ने एक किताब लिखी है ‘प्रॉस्पेरस ब्रिटिश इंडिया’. इसमें उन्होंने उस दौरान जो भी बड़े खोजें हुईं उसके पीछे के अर्थ तंत्र क्या थे, समझाया है. उपनिवेशों के आर्थिक और सामाजिक शोषण की वजह से ब्रिटेन में हजारों करोड़ रुपया पहुंच रहा था. इसका निवेश उन्होंने वैज्ञानिक खोजों में किया और शोध को मुकम्मल नतीजे पर पहुंचाने में सफलता अर्जित की. इसलिए मेरा मानना है कि भारत के शोषण और लूट के जरिए जो पैसा ब्रिटेन पहुंचा अगर वह नहीं पहुंचा होता तो उनकी औद्योगिक क्रांति सफल नहीं होती और अगर होती भी तो वह बहुत धीमी गति से चलती. यह बात दादा भाई नौरोजी ने भी लिखी है. दूसरी बात यह है कि तरक्की का एक माहौल होता है. एक समय अरब के लोगों ने पूरी दुनिया को अपने कब्जे में ले लिया था और उस दौरान अरबवासियों ने गणित और खगोलविज्ञान का बहुत विकास किया. अलग-अलग समय पर अलग-अलग देश को ऐसा माहौल मिलता है जिसमें वह विकसित होता है. जब अंग्रेज यहां आए तो उस दौर को भारत की संस्कृति का संध्या काल कहा जाता था. उस समय भी राजा जय सिंह जयपुर में बैठकर जंतर-मंतर बना रहे थे. उस वक्त भी टीपू सुल्तान तोपें बना रहे थे. इसका मतलब यह हुआ कि वैज्ञानिक अविष्कार और खोज के प्रक्रिया में कोई कमी नहीं थी. अंग्रेजों ने हमारे जहाजरानी उद्योग, कपड़ा उद्योग और कारीगरी को बेरहमी से कुचला. इन पर अलग-अलग कर लगाए गए. मैं यह नहीं कह रही कि अगर अंग्रेजों ने ऐसा नहीं किया होता तो हम एकदम से चांद पर होते. लेकिन इतना जरूर है कि अगर अंग्रेजों ने इतनी बेरहमी नहीं दिखाई होती तो हम विकास के दूसरे पायदान पर जरूर होते. जवाहर लाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में इस बात का उल्लेख किया है कि अगर अंग्रेज हमें बुनियादी ढांचा विकसित करके आधुनिक बनाने का काम नहीं करते तो भी दुनिया भर में जो तरक्की की हवा चल रही थी हम उससे अलग नहीं रहते. हो सकता है कि हम वह काम दस साल बाद करते. इन सबके बावजूद मैं मानती हूं कि उस वक्त की हमारी जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सुस्ती थी उसको उन्होंने खंगालने का काम जरूर किया. इसकी एक उपलब्धि यह है कि जिस अंग्रेजी शिक्षा के जरिए लॉर्ड मैकाले भारत के लोगों को क्लर्क बनाना चाहते थे उसी अंग्रेजी शिक्षा ने भारत को क्रांतिकारी नायक भी दिए. उन्होंने जो रेल का ढांचा विकसित किया उससे आवागमन में सुविधा हुई और इसने अलग-अलग समय के आंदोलनों को बल दिया.
आपने किताब में लिखा है कि 1857 के बाद भारत में लंबे समय तक कोई क्रांति नहीं हुई. क्या इसकी वजह यह है कि भारतीय समाज शोषण, उत्पीड़न और अन्याय को जीवन का हिस्सा मान लेता है?
1857 और उसके बाद अंग्रेजों ने व्यापक हिंसा को अंजाम दिया. इस भयानक और क्रूर हिंसा की वजह से कुछ समय तक सशस्त्र क्रांति नहीं हुई. लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि उसके बाद भी छोटे-छोटे जनजातीय आंदोलन होते रहे. हालांकि, इसका एक केंद्रीकृत स्वरूप नहीं बन पाया. इस दौरान जो एक आधुनिक वर्ग तैयार हुआ उसने हमारे समाज की भीतरी सामाजिक जड़ता को तोड़ने की कोशिश की? यह बहुत जरूरी था. ज्योतिबा फूले से लेकर आंबेडकर तक ने सामाजिक समता की लड़ाई लड़ी. इसके बगैर आजादी हासिल करने का कोई मतलब नहीं था. क्योंकि आजादी के बाद भी अगर आबादी के एक बड़े वर्ग का शोषण खुद उसी का समाज करता रहे तो फिर ऐसी आजादी का क्या मतलब. इसी शोषण की समाप्ति के लिए ही महात्मा गांधी ने आजादी दिलाई. सामाजिक तंद्रा को टूटने में काफी वक्त लगा. 1857 के बाद अंग्रेजों की दोहरी नीति सीधे टकराव से बचकर राज करने की रही जिसकी वजह से भी क्रांति होने में काफी देरी हुई. गांधी जी ने स्वराज की बात की. 1857 के बाद का आंदोलन सिर्फ अंग्रेजों को भगाने के लिए नहीं बल्कि खुद की आजादी के लिए भी था. वह कारगर रहा है और उसने देश को एक नया स्वरूप प्रदान किया.
1857 और 1947 के कई मुद्दे अब भी बरकरार हैं. तो क्या हम किसी और नई क्रांति की ओर बढ़ रहे हैं?
एक परिवर्तनशील समाज में संघर्ष तो रोज होंगे. अमेरिका में आज भी श्वेत और अश्वेत का भेद पूरी तरह से मिटा नहीं है. इसको लेकर वहां रोज संघर्ष हो रहा है. संघर्ष तो हमें रोज करना होगा ताकि हमारा समाज एक ऐसे स्तर पर पहुंच सके जहां समानता हो. इस लक्ष्य को हासिल किए बगैर कोई चैन से बैठ नहीं सकता.
आपने विज्ञान में डिग्री ली फिर इतिहास में कैसे दिलचस्पी जगी?
विज्ञान आपको व्यवस्थित सोच के लिए प्रेरित करता है. विज्ञान आपको वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चीजों के अन्वेषण की प्रेरणा देता है. इतिहास लेखन एक कठिन कार्य है. इसका अनुभव मुझे लेखन के दौरान ही हुआ. पहले मुझे लगता था कि यह काम आसानी से हो सकता है. आप घटनाओं को लेकर प्रामाणिक सामग्री तो एकत्रित कर सकते हैं लेकिन फिर उसका अध्ययन करना, उसको सूक्ष्मता से समझना और बिल्कुल निरपेक्ष भाव से उसको लिखना बहुत जरूरी होता है. मेरी समझ से इन तीनों चीजों के लिए वैज्ञानिक तरीका अपनाना बेहद जरूरी है. इसलिए विज्ञान की पढ़ाई और इतिहास लेखन को मैं अलग-अलग करके नहीं देखती. विज्ञान की पढ़ाई जरूर की लेकिन इतिहास मेरी रुचि का विषय रहा है.
पिछले कुछ सालों के दौरान यह देखा गया है कि हिंदी पट्टी के नेता भी अंग्रेजी में लिखते हैं. भले ही वे हिंदी क्षेत्र से चुनकर आते हों लेकिन उनकी विमर्श की भाषा अंग्रेजी होती है. आपकी पढ़ाई कॉन्वेंट स्कूल में हुई है लेकिन जब पुस्तक लिखने के लिए हिंदी भाषा का चयन कर रही थीं तब आपके दिमाग में क्या चल रहा था?
मैं मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र की रहने वाली हूं और ऐसा माना जाता है कि वहां के लोग हिंदी में ही सोच सकते हैं. मन की भाषा आज भी हमारे लिए हिंदी है. अगर मुझे अंग्रेजी में कोई डॉक्यूमेंट तैयार करना होता है तो आज भी मैं उसे पहले हिंदी में तैयार करती हूं. अगर अंग्रेजी में भी मैं कुछ पढ़ती हूं तो उसे हिंदी में समझने का प्रयत्न करती हूं. इन्हीं वजहों से मैंने यह किताब हिंदी में ही लिखने का फैसला किया.
बतौर लेखिका आपकी आगे की क्या योजनाएं हैं?
मेरी इच्छा तो है कि इस किताब में जहां बात खत्म हुई उससे आगे की घटनाओं यानी 1857 से 1947 के बीच की घटनाओं पर किताब लिखूं. इसके लिए कोई निश्चित समय सीमा आपको मैं नहीं बता सकती क्योंकि इन कामों में काफी वक्त लगता है. लेकिन मेरी इच्छा है कि आने वाले दिनों में मैं इस योजना पर काम शुरू करुं.