जीवन के जितने भी मसले हैं, सभी सही और ग़लत की वजह से ही हैं। सवाल यही है कि सही क्या है? ग़लत क्या है? उलझन यह है कि सही और ग़लत की परिभाषा तो है; लेकिन निश्चित मापदण्ड नहीं है। लेकिन परिभाषा भी हर जगह खरी नहीं उतरती है। इसमें भी विचारों का घालमेल है। यही वजह है कि संसार में एक धर्म, एक पंथ, एक मत के अनुगामी कई लोग भी कई मामलों में एकमत नहीं हैं। हो भी नहीं सकते; और कभी हुए भी नहीं। धर्म के नाम पर इसी बात की लड़ाई है। यह लड़ाई कभी ख़त्म भी नहीं हो सकती। इसी मतभेद के चलते धर्म के नाम पर अलग-अलग रास्ते बने। अलग-अलग किताबों की रचना हुई। धर्मों के नाम पर लोग बँटते गये। बँट रहे हैं। और जब तक मूर्खता सब पर हावी रहेगी, बँटते ही रहेंगे। अगर अब कोई नया रास्ता लोगों के लिए निकालेगा, तो वह एक अलग धर्म बन जाएगा। जैसा पहले भी होता रहा है।
धर्मों के बारे में एक ग़लत धारणा सबके मन में एक विश्वास के रूप में बैठा दी गयी है। धारणा यह है कि इन धार्मिक किताबों को ईश्वर ने स्वयं रचा है। एक भी धर्म का अनुयायी इससे अलग मत को नहीं मानता। जिसने यह नहीं माना कि उसके धर्म की किताबें ईश्वर ने रची हैं, तो उसने उसे भगवान मान लिया, जिसने धर्म का नया रास्ता दिखाया। बात एक ही है। चाहे नाक सीधे पकड़ी, चाहे हाथ घुमाकर; लेकिन पकड़ी सबने नाक ही है।
ऐसा भी नहीं है कि विभिन्न धर्मों पर लिखी गयी सभी किताबें ग़लत हैं। लेकिन सभी पूरी तरह सही भी नहीं हैं। यह अलग बात है कि इस सच को कोई स्वीकार नहीं करता। जिसने जिस धर्म को पकड़ा, उसने उसके कथ्य को ही आँख बन्द करके सही मान लिया। सवाल नहीं पूछे। किसी के मन में न सवाल उठे, न ही उठते हैं; क्योंकि सबको लगता है कि यह ईश्वर के ख़िलाफ़ है। धर्म के ठेकेदारों ने सिखाया भी यही है। जबकि ऐसा नहीं है। ईश्वर के ख़िलाफ़ तो वह है, जो धर्म का चोला पहनकर भी अधर्म कर रहा है। यह अनैतिक है। लेकिन कट्टरपंथी तथाकथित ठेकेदारों और अंध-कट्टरपंथी धार्मिकों के डर से सब ख़ामोश हैं। सब अपने-अपने पाप-कर्मों को छिपाने में लगे हैं। धर्म के नाम पर चंद किताबों का झूठा स्तुतिगान करने में लगे हैं। किसी ने असली धर्म को नहीं जाना। न जानने की कभी कोशिश की। जिसने जाना, उसने स्वयं को सभी कथित धर्मों और उनकी किताबों से अलग कर लिया। क्योंकि धर्म तो यह कहता है कि भलाई और पुण्य के अलावा कुछ मत करो। अपने मन, कर्म और वचन से कुछ भी अनर्थ मत करो। एक फल-फूल वाले छायादार वृक्ष की तरह बनो। चाहे कोई अच्छा आये, चाहे बुरा; कोई भी पत्थर फेंक दे, सबको फल दो। कोई भी डाली तोड़ दे; कुछ मत कहो। सबको छाया दो। अगर कोई काट भी डाले, तो भी ख़ामोश रहकर सब सह लो। कौन-से धर्म के लोग इतने सहनशील हैं?
सवाल यह है कि यह सहनशीलता किसी में क्यों नहीं है? लाखों वर्षों से लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी धर्म का पालन कर रहे हैं। लेकिन निष्पाप रहकर पुण्य-ही-पुण्य करने वाले संसार में कितने लोग हुए? जो हुए, सो सताये गये। कई तो मार भी दिये गये। इसलिए लोग डर के मारे किताबों को छोड़ ही नहीं पाये। एक तो लोगों के बहिष्कार और हत्या का डर। ऊपर से उन्हें स्वर्ग और नरक के नाम पर भी ख़ूब डराया गया। डराने के लिए कोरी काल्पनिक कथाएँ लिखी गयीं। सस्ते और सुलभ स्तुतिगान गढ़े गये। आडम्बर और प्रथाओं को रचा गया। इसलिए किताबों को छोडक़र असली धर्म का पालन करने वाले संसार में बिरले ही हुए हैं। इसकी असली वजह यह भी है कि धर्म को सही मायने में सब लोग समझ ही नहीं पाये। तो फिर उस ईश्वर को क्या समझेंगे? जिसने रहस्यमयी विराट ब्रह्मांड की रचना की है।
धर्म की सभी किताबें कहती हैं कि जो धर्म पर नहीं चलेगा, वह नरक को जाएगा। लेकिन लोग बड़े चालाक हैं। जो धर्मों के ठेकेदार बने हुए हैं, वे और चालाक हैं। उन्होंने अपने पापों को छिपाने और संसारियों की सज़ा से बचने के लिए गढ़ दिया कि किताबें ही धर्म हैं। कुछ ने तो यहाँ तक कह दिया कि धारणा ही धर्म है। जबकि ऐसा नहीं है। अगर ऐसा होता, तो जिसने अपराध धारण किया, उसके लिए वह धर्म होना चाहिए। फिर उसके ख़िलाफ़ कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है। क्योंकि जिसने जो धारण कर लिया, उसे ही धर्म समझा जाना चाहिए। फिर किसी को किसी दायरे में बाँधने की आवश्यकता क्या है? फिर किताबी धर्मों को भी क्यों मानना? पाप और पुण्य की परिभाषा गढऩे की ज़रूरत ही क्या थी? नरक का डर दिखाने और स्वर्ग का लालच देने की भी क्या ज़रूरत थी? फिर तो सभी लोग धर्म पर ही माने जाने चाहिए। सभी को स्वर्ग ही मिलना है। फिर चिन्ता किस बात की? और ईश्वर को भी क्यों मानना? उसका डर भी कैसा?
धर्म को सभी इसलिए पकड़ते हैं, ताकि उन्हें ईश्वर तक पहुँचने का सही रास्ता मिल सके। लेकिन ज़्यादातर को नहीं मिलता।