सहल नहीं सुलह

कई दिनों तक उत्तर प्रदेश की फिजा में तैरता रहा अयोध्या विवाद का गर्द-ओ-गुबार अब लगभग छंट चुका है. मालिकाना हक का फैसला आने की आहट के बाद लगभग दो महीनों से जो बेचैनी का माहौल बना था वह फैसला आने के कुछ घंटों के बाद ही काफूर होता दिखा. लेकिन देश और प्रदेश की सियासत के पास इस मुद्दे को जिंदा रखने की अपनी मजबूरियां हैं, इसलिए फैसला आने के तुरंत बाद फैसले पर बयानबाजी और फिर अदालत से बाहर सुलह को लेकर गहमागहमी शुरू हो गई. गौरतलब है कि फैसला आने के पहले के साठ साल में अदालत से बाहर सुलह को प्रदेश की सियासत और सहाफत दोनों में इतनी जगह कभी नहीं नसीब हुई जितनी अब हो रही है. 26 जुलाई को सुनवाई खत्म होने पर भी हाई कोर्ट की सुलह की कोशिशें बेनतीजा रहीं थी और फैसले से पहले एकाएक उपजे रमेश चंद्र त्रिपाठी की याचिका पर सुनवाई के दौरान भी इस तरह की कोशिशों को बेमानी ही बताया गया था. फैसला आने के बाद से ही सुलह की कोशिशें एकाएक तेज हुई हैं, बावजूद इसके ये ज्यादा उम्मीदें नहीं जगातीं.

अधिसंख्य हिंदू समुदाय जन्म से ही इस तरह की कहानियां सुन-सुनकर होश संभालता है कि मुसलिम आतताइयों ने देश में तमाम मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था. उनके लिए यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती कि कोर्ट में यह सिद्ध कर पाना असंभव है कि भगवान राम का जन्म बाबरी मस्जिद के मध्य गुंबद के नीचे हुआ था. पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट भी पूरी तरह से कोई निष्कर्ष देने में असफल रही है. जो वे बचपन से अपने से बड़ों, पौराणिक ग्रंथों आदि के जरिए पढ़ते-सुनते आए हैं, उनके लिए तो वही सत्य बन चुका है.

मीडिया द्वारा बढ़-चढ़कर इस प्रकार के दावे करना कि युवा भारत अयोध्या विवाद को पीछे छोड़ चुका है, अब अयोध्या कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं रहा, पूरी नहीं बल्कि अधूरी सच्चाई है

इसी तरह मुसलिम मानसिकता में भी यह बात गहरे पैठी हुई है कि 23 दिसंबर, 1949 को उनकी मस्जिद में मूर्तियां रखकर उन्हें वहां से बेदखल कर दिया गया. उनके लिए ये बातें कोई मायने नहीं रखतीं कि यह मस्जिद शरिया के मुताबिक थी या नहीं, इसमें मीनारें क्यों नहीं हैं, इसमें वुजू के लिए कोई व्यवस्था क्यों नहीं थी. इसके अलावा यह साबित कर पाना उनके लिए मुश्किल है कि मस्जिद बाबर ने बनवाई, औरंगजेब ने या फिर किसी और ने. इन बातों से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. इस तरह की मनःस्थिति को 6 दिसंबर, 1992 की घटना ने और बढ़ावा दिया है.

दोनों समुदायों के बीच प्रचलित ये कहानियां अभी भी उतनी ही मजबूती से जमी हुई हैं जितनी दो अथवा छह दशक पहले थीं. आज की युवा पीढ़ी इसी माहौल में पली-बढ़ी है. ऐसे में मीडिया द्वारा बढ़-चढ़कर इस प्रकार के दावे करना कि युवा भारत अयोध्या विवाद को पीछे छोड़ चुका है, अब अयोध्या कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं रहा, पूरी नहीं बल्कि अधूरी सच्चाई है.

यह सच है कि भारत में एक वर्ग इससे आगे बढ़ चुका है. असल में यह तबका भारत में लंबे समय से मौजूद रहा है और पिछले कुछ समय में इसका दायरा काफी विस्तृत भी हो चुका  है. इस तबके ने उस वक्त कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई जब विहिप ने 1980 में एक स्थानीय मसले को राष्ट्रीय अभियान बना दिया था. इसे भारत के अन्य भागों में मौजूद सांप्रदायिकता की दबी और कम दबी चिंगारियां नहीं दिखाई देतीं. यह उन पर केवल तब ध्यान देता है जब वे एक बड़े विवाद का सबब बन जाती हैं, दंगों की वजह बन जाती हैं. देश का यह खाया-पीया वर्ग यह मानता है कि अाधुनिकता और आर्थिक तरक्की जल्दी ही समाज में मौजूद संकीर्ण सांप्रदायिक सोच और इससे प्रभावित राजनीति को अप्रासंगिक बना दंेगी और अयोध्या की बित्ते भर जमीन तब उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह जाएगी.

लेकिन यह तबका शायद भूल गया है कि हिंदुत्व अपने आप में ही एक आधुनिक उत्पाद है. 100 साल पहले हिंदू महासभा के माध्यम से विनायक दामोदर सावरकर और हिंदू समुदाय के दूसरे उच्चवर्गीय लोगों ने खुद को पारंपरिक सनातन धर्म की उन चीजों से अलग कर लिया था जिन्हें वे नापसंद करते थे. इसे ही उन्होंने हिंदुत्व नाम दिया था. इसका मकसद एक आक्रामक समुदाय की स्थापना करना था जो अपनी पहचान, अपनी रक्षा के लिए सभी हिंसक रास्तों को अपनाने के लिए तैयार हो. यह यूरोपीय राष्ट्रवाद की नकल जैसा था. इन बातों को ध्यान में रखना यहां इसलिए भी जरूरी है कि टेलीविजन चैनल इन बातों की तरफ ध्यान देना जरूरी ही नहीं समझते हैं. ऐसा लगता है कि हमारा मीडिया इन दिनों झुंड की मानसिकता से ज्यादा काम कर रहा है. मसलन हर कोई यह बता रहा है कि असल विवादित जमीन 2.77  एकड़ है जबकि सच्चाई इसके विपरीत है. असल विवादित जमीन महज 0.26 एकड़ है. 2.77 एकड़ वह जमीन थी जिसे कल्याण सिंह की सरकार ने 1991 में अधिगृहीत किया था लेकिन अगले ही साल उसे निरस्त कर दिया गया. लेकिन मीडिया के मन में वह बात अभी तक जमी हुई है.

ज्यादातर मीडिया चर्चाओं में साक्षात्कार करने वाले से लेकर उसमें भाग लेने वाले अन्य लोगों को  दो भागों में विभक्त कर दिया जाता है. या तो आप धर्मनिरपेक्ष हैं या फिर हिंदूवादी. थोड़ी-बहुत रटी-रटाई बातें खत्म हुई नहीं कि स्पष्ट हो जाता है कि मुसलमान वहां हर हाल में मस्जिद चाहते हैं और हिंदू मंदिर की चाह रखते हैं. पर कैसे बनेगी या बनेगा, यह व्यक्ति दर व्यक्ति बदलता रहता है. सिर्फ गरीब और अशिक्षित ही इसमें शामिल नहीं हैं. पत्रकार, शिक्षक, पुलिसवाले, वकील. इस विश्वास के साथ कि उनके सबूत ही विश्वसनीय और अकाट्य हैं.

अयोध्या मामले के सबसे पुराने पक्षकार 90 वर्षीय हाशिम अंसारी ने खुद को मीडिया की जरूरतों के मुताबिक भलीभांति ढाल लिया है. आज शांति के सबसे बड़े पैरोकार बनकर उभरे वे एक प्रकार से सुलह के रास्ते की मुश्किलों का भी बखूबी प्रतिनिधित्व करते हैं. एक समय वे अवध की गंगा-जमुनी तहजीब की बात करते हैं, हिंदू-मुसलिम एकता की बात करते हैं और बताते हैं कि किस तरह से नेताओं ने उन्हें आपस में लड़ाया है. दूसरी तरफ कभी-कभी अचानक ही अल्पसंख्यक समुदाय की असुरक्षा उन्हें अपने घेरे में ले लेती है और वे अन्याय की बातें करने लगते हैं. वे 1949 में मस्जिद पर कब्जे और 1992 में उसे ढहाने की घटना सुनाने लगते हैं. वे उन नेताओं को गरियाते हैं जिन्होंने मुसलिम समुदाय की असुरक्षा की भावना पर अपनी रोटियां सेकी हैं.

हालांकि अयोध्या इस विवाद और इस पर जब-तब लगते रहे मीडिया की पीपली लाइव से आजिज आ चुका है. लेकिन जब उनसे मंदिर-मस्जिद या समझौते पर कोई सवाल पूछा जाए तो जवाब तुरंत मिल सकता है – ‘मुसलमानों के लिए ये सिर्फ बाबर द्वारा बनवाई गई एक मस्जिद है. मगर हमारे लिए यह सिर्फ एक मंदिर नहीं है. यह हमारे भगवान का जन्मस्थान है. यह हमारे लिए उतना ही पवित्र है जितना उनके लिए मक्का.’

इस हालात में सुलह-समझौते के प्रयास किस हद तक व्यावहारिक हैं? हिंदू महासभा विवादित स्थल की जमीन में मुसलमानों को हिस्सा देने के खिलाफ शीर्ष अदालत जा रही है तो सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड अपना दावा खारिज होने को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचेगा. इसी बीच कुछ सियासी बयान भी आ गए जिनमें से एक समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव का था, ‘इस फैसले से मुसलमान अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहा है. देश आस्था से नहीं कानून से चलता है.’ पूर्व सपा नेता आजम खान के मुताबिक सुलह के बहाने दूसरा पक्ष मुसलमानों के साथ हेकड़ी दिखा रहा है.

दो दशक पहले तक दोनों पक्षों के जो लोग इस दिशा में काम कर रहे थे उनकी अपनी एक विश्वसनीयता और स्पष्ट सोच थी. मसलन सैयद शहाबुद्दीन कांची पीठ के परमाचार्य की बात को आज भी याद करते हैं जब उन्होंने शहाबुद्दीन को कांची मठ के बगल में स्थित मस्जिद में नमाज पढ़ने के लिए आमंत्रित किया था. रामजन्मभूमि न्यास के पूर्व मुखिया परमहंस रामचंद्र दास की हाशिम अंसारी से नजदीकी जगजाहिर है. इस तरह के लोग आज कहीं नजर नहीं आते. मौजूदा आधुनिकता की सबसे बड़ी समस्या यही है. आधुनिक भारत की नई पीढ़ी सिर्फ एक ही भारतीय भाषा जानती है. इसका भारत की विविध संस्कृतियों से कोई मेल ही नहीं हुआ है, न ही इसकी ऐसी कोई इच्छा है. इन चीजों में रुचि रखने वाले और इसका महत्व समझने वाले नेताओं और व्यक्तियों की पीढ़ी अब खत्म हो चुकी है. भरोसेमंद मध्यस्थों ने अपने पैर काफी समय पहले पीछे खींच लिए थे क्योंकि अपने पक्ष में फैसले की उम्मीद में दोनों पक्ष बातचीत करना ही नहीं चाहते थे. मगर अब काफी लोग इसके बारे में बात करते देखे-सुने जा सकते हैं.

फैसला आने के बाद देश के मुसलमानों ने परिपक्वता दिखाई है. अब जिम्मेदारी कांग्रेस (और भाजपा भी) के कंधों पर है कि वे अल्पसंख्यक तबके के मन में एक विश्वास जगाए कि इस फैसले से भारतीय समाज में उनकी स्थिति किसी भी लिहाज से कमजोर नहीं होने वाली. सुप्रीम कोर्ट अपना काम करता रहेगा, लेकिन यहां राजनीतिक पार्टियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे सुलह-समझौते से रास्ता निकालने के लिए ईमानदार प्रयास करें, कुछ हद तक वैसा ही समर्पण, ईमानदारी और लचीला रुख दिखाएं जितनी गंभीरता और समर्पण उन्होंने परमाणु करार के मसले पर दिखाया था. और आरएसएस को भी भाजपा की राजनीतिक अवसरवादिता की नकेल कसकर रखनी होगी.