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पोर्ट्रेट फोटोग्राफी एक ऐसी कला है जिसमें आधा तो आपके सहज ज्ञान का योगदान होता है और आधा इस बात का कि आप उस सहज ज्ञान को कितना पैना कर पाते हैं. किसी शख्सियत का सार किस तरह कैमरे में उतारा जा सकता है, इसके लिए कुछ सुझाव.
- बोझ कम से कम हो. सिर्फ अपना कैमरा और जूम लेंस लेकर चलें. बड़े-बड़े बैग और ट्राइपोड से बच सकें तो बेहतर. मैं कभी नहीं चाहता कि मुझे देखकर लोगों को लगे कि कोई प्रोफेशनल आ गया है. बड़ा तामझाम देखकर लोग डर जाते हैं. इससे तस्वीरों की सहजता जाती रहती है.
- आराम से तस्वीरें उतारें. लगातार तस्वीरें लेना फोटोग्राफर और जिसकी तस्वीरें उतारी जा रही हैं, दोनों को परेशान कर देता है. पहले कुछ तस्वीरें लें, उसके बाद अपने सब्जेक्ट के साथ बातें करें, कुछ हंसी-मजाक करें ताकि माहौल हल्का हो जाए. जब आपको लगे कि सामने वाला कैमरे को लेकर सहज हो गया है तो तस्वीर खींचें. कैमरे और उस व्यक्ति के बीच सीधा और सहज संपर्क होना चाहिए.
- सुनने से ज्यादा महसूस करें. अगर तस्वीरें पत्रकारिता के मकसद से ली जा रही हैं तो आप उन भावों को कैद करें जो आपने उस संक्षिप्त समय में उस व्यक्ति के बारे में समझे हैं. एक बार मैंने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जिया-उल-हक की एक प्रेस कांफ्रेंस में तस्वीर ली थी. अगर आप तानाशाह हैं तो आप महान बातें जरूर कह सकते हैं लेकिन आपके हाव-भाव और आंखें कुछ और ही बयान करती हैं. मैं किसी व्यक्ति के आंतरिक भावों को पकड़ने की कोशिश करता हूं, बाहरी दिखावे को नहीं.
- चौंकाने की कला. सत्यजीत रे के अनूठे भाव मैं इसके बूते ही कैद कर पाया. उनके साथ कुछ वक्त बिताने के बाद मैंने कहा, ‘मैं जा रहा हूं.’ चौंकते हुए रे ने मुझे देखने के लिए गर्दन घुमाई. मैं अपने कैमरे के साथ तैयार था. रोशनी और अंधेरे के अनोखे संगम का परिणाम बड़ा अनोखा रहा.
- सोचने के लिए समय लें. आजकल बड़ी जल्दबाजी में तस्वीरें ली जाती हैं, लेकिन जरा सोचिए कि एक सेकंड के भी छोटे-से हिस्से में भला आप क्या पकड़ पाएंगे. थोड़ा समय लीजिए. पहले फोटोग्राफी में ठहराव का बड़ा महत्व होता था. तकनीक इतनी अच्छी नहीं थी, इसलिए जिसकी तस्वीर ली जा रही है उसे तब तक सांस रोककर रखनी पड़ती थी जब तक फोटोग्राफर तस्वीर न खींच ले. इस दौरान उसकी आंखों में कितने ही भाव आते और चले जाते थे जिन्हें कैमरा दर्ज कर लेता था.
- कभी-कभी नियमों को भूल जाएं. हमारी सोच कुछ निश्चित सांचों में ढली होती है, इसलिए मेरा सुझाव है कि अपने दिमाग का कंप्यूटर बंद कर दें. सत्यजीत रे की शुरुआती फिल्मों में एक जादुई अध्यात्म दिखता है. उनकी बाद की फिल्में भी बहुत अच्छी थीं लेकिन उनमें एक योजनाबद्धता और बौद्धिकता नजर आती है. 100 फीसदी योजना से तस्वीर सिर्फ अच्छी आती है, लेकिन जब योजना के परे कोई अलौकिक चीज उसमें उतर जाती है तो वह असाधारण हो उठती है. यह ऐसा ही है जैसे प्रेम की सहज भावना और प्रेम पर बौद्धिक चर्चा के बीच फर्क.
(जैसा उन्होंने यामिनी दीनदयालन को बताया)