झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और सांसद मधु कोड़ा पर जेल के अंदर हमले ने सूबे में राजनीतिक रंग ले लिया है. विपक्षी भी कोड़ा पर हुए हमले में राजनीति के तत्व तलाशने की कोशिश में हैं. झारखंड विकास मोर्चा सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी का कहना है कि ऐसा स्टंट तो सिनेमा में ही होता है लेकिन यहां तो खुलेआम गुंडाराज चल रहा है. वे मांग करते हैं कि इस प्रकरण की न्यायिक जांच होनी चाहिए. मांडर विधायक बंधु तिर्की, केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय, झाविमो नेता प्रवीण सिंह समेत कई अन्य नेता इस घटना की न्यायिक जांच की मांग को लेकर धरने पर बैठे. जब तहलका ने जेल अधीक्षक डीके प्रधान से बात की तो उनका कहना था कि इस मामले की जांच चल रही है और जल्द ही सच्चाई दुनिया के सामने आ जाएगी. हालांकि, बार-बार बदलते बयान से जेल प्रशासन गहरे संदेह के घेरे में है. उधर मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा न्यायिक जांच की घोषणा करने के बाद अब चुप्पी साध गए हैं. कोड़ा का आरोप तो यह भी है कि उन्हें जान से मारने की साजिश रची जा रही है. 4,000 करोड़ रुपये से अधिक के घोटाले के आरोप में जेल में बंद मधु कोड़ा अभी अस्पताल में अपना इलाज करा रहे हैं. तहलका प्रतिनिधि अनुपमा ने उनसे इस मामले में तफसील से बात की जिसके प्रमुख अंश इस प्रकार है:
मैं जनप्रतिनिधि हूं इस नाते जेल में कैद बंदी अपनी समस्या गाहे-बगाहे मुझे बताते रहते हैं. कई बार कैदियों ने मुझसे मौखिक और लिखित रूप में शिकायत भी की थी कि उन्हें जो खाना दिया जाता है वह खराब होता है. खाना भी भरपेट नहीं दिया जाता. वहां काम करने वाले दिहाड़ी मजदूरों को भी पूरा पैसा नहीं दिया जाता.
ये सभी बातें मैंने दुर्गा पूजा के पहले कोर्ट में पेशी के दौरान मीडिया से भी कही थीं. लेकिन हालात नहीं सुधरे. जस के तस बने रहे. 31 अक्टूबर, 2011 को सुबह नहा-धोकर मैं अन्य कैदी विधायकों के साथ सामान्य कैदियों की सेल में गया, वहां उन्हें खाना परोसा जा रहा था. हमने भी प्लेट में खाना लिया. यकीन मानिए, जेल के अंदर परोसा गया खाना आदमी तो दूर जानवरों के खाने लायक भी नहीं था.
मैंने जेल अधीक्षक से इसकी शिकायत की. लेकिन वे सुनने को तैयार नहीं थे. तब हमने तय किया कि हमें शांतिपूर्ण व संवैधानिक तरीके से इसका विरोध करना चाहिए. हम सभी जनप्रतिनिधि और तकरीबन 700-800 अन्य कैदी धरने पर बैठ गए. जब जेल प्रशासन को लगा कि ऐसा करने से तो यह बात बाहर चली जाएगी तो उन्होंने कैदियों को मार-पीट कर जबरन सेल में डालना शुरू कर दिया.
मैंने इस ज्यादती का विरोध किया तो मेरे सिर पर भी मारने की कोशिश की गई. मैं थोड़ा झुक गया और सिर के बचाव में मेरा हाथ ऊपर आया, जिसकी वजह से हाथ टूट गया और मैं जमीन पर गिर गया. इसके बाद भी मुझ पर डंडे बरसाए गए और एक्स-रे रिपोर्ट में एक काली रेखा दिखती है जो बताती है कि मेरे सीने पर भी डंडा लगा है. मैं जमीन पर था और मुझे असहनीय पीड़ा हो रही थी इसलिए उसके बाद के वाकये को मैं बहुत अच्छे से नहीं बता पाऊंगा. लेकिन यह घटना बताती है कि एक जनप्रतिनिधि के साथ ऐसा सलूक किया जाता है तो सामान्य कैदियों के साथ वहां कैसा दुर्व्यवहार होता होगा.
यदि सरकार का इस पूरे प्रकरण में हाथ नहीं है तो वह आखिर न्यायिक जांच से कतरा क्यों रही है?
मुझे ही नहीं कई अन्य कैदियों को भी चोटें आई हैं लेकिन इस बात को छिपा लिया गया. मुझे तो मारने की पूरी साजिश रच ली गई थी लेकिन संयोग और जनता की दुआओं के कारण मेरी जान बच गई. कैदियों ने दो-तीन महीने पहले भी इसकी लिखित शिकायत जेल अधीक्षक डीके प्रधान से की थी. पर उन्होंने जैसे किसी की बात न सुनने की कसम खा रखी थी.
हालांकि मुझे कभी अपने खाने को लेकर कोई शिकायत नहीं रही है. ये जरूर रहा है कि हमारे क्षेत्र के कैदी जो मुझसे मिलना चाहते थे उन्हें सुरक्षा के नाम पर नहीं मिलने दिया जाता था. उस पर पाबंदी थी. दरअसल जेल प्रशासन के मन में यह बात थी कि सिक्युरिटी के नाम पर मुझ तक उनकी बात न पहुंचे. नहीं तो शायद मैं एक प्रतिनिधि के रूप में उनके अधिकारों की मांग करूंगा.
आप इन घटनाओं को छोड़ भी दीजिए तो जेल प्रशासन की संवेदनहीनता इस बात से स्पष्ट हो जाती है कि जब उन्होंने मुझ पर वार करके मेरा हाथ तोड़ डाला और मैं दर्द से कराह रहा था तो भी वे मेरा इलाज कराने के लिए मुझे अस्पताल ले जाने को तैयार नहीं थे. जबकि मानवता के दृष्टिकोण से भी देखते तो भी इलाज करवाया जाता. जब मेरे हाथ में सूजन और दर्द बढ़ने लगे और लगा कि अब इसे छिपाया नहीं जा सकता तो साढ़े तीन घंटे बाद मुझे अस्पताल भेजा गया.
मैं अस्पताल में था, इसलिए मेरी पत्नी गीता कोड़ा 31 अक्टूबर की रात को ही 9-10 बजे एफआईआर कराने गई थीं. इसकी रिसिविंग भी है हमारे पास. लेकिन प्रशासन की चालाकी देखिए कि जब तक उन्होंने तथ्यों की तोड़-मरोड़ और लीपापोती करने के लिए कैदियों को राजी नहीं कर लिया तब तक उन्होंने हमें केस रजिस्ट्रेशन नंबर नहीं दिया. उन्होंने तीन दिन बाद ऐसा किया. इस मामले को वे कैदियों के बीच हुई आपसी झड़प का रूप देना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि जब जनता तक सच्चाई पहुंचेगी तो वह आंदोलित होगी और फिर इनकी पोल-पट्टी खुल जाएगी. इसीलिए केस भी उन्होंने बैक डेट में दर्ज कराया है, ऐसी मुझे सूचना मिली है.
मैं इस पूरे प्रकरण में सरकार की संलिप्तता से भी इनकार नहीं कर सकता. हालांकि इस बात में तनिक भी सच्चाई नहीं है और यह सरासर झूठ है, लेकिन यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि कैदियों ने मुझ पर हमला किया तो सवाल यह उठता है कि आखिर कैदियों के हाथ में डंडे कहां से आए क्या जेल प्रशासन के लोगों ने मुझे मारने के लिए उन्हें डंडे दिए? जब कैदी मुझे मार रहे थे तो पुलिस वहां क्या तमाशबीन बनने के लिए खड़ी थी?
सरकार एक तरह से मुझे नजरबंद की तरह रखे हुए है. मुझे मेरी पत्नी से, अपने लोगों से मिलने से रोका जाता है, जबकि अन्य लोगों को मिलने की अनुमति दी जाती है. एक ही जेल में दो तरह का व्यवहार यह साबित करता है कि मुझे जान-बूझकर परेशान किया जा रहा है. आपको मैं एक उदाहरण देता हूं जिससे आपको यह बात समझ में आएगी. जब भी कोई दुर्घटना घटित होती है तो सबसे पहले पुलिस अस्पताल में पहुंचकर पीड़ित का बयान लेती है, परंतु मेरे साथ तो ऐसा सौतेला व्यवहार हो रहा है कि पुलिस ने आज तक मेरा बयान ही नहीं लिया. मेरा हाथ टूटने का केस तक दर्ज नहीं किया गया है. मुझे तोड़ने की कोशिश की जा रही है. मुझे मानसिक, शारीरिक प्रताड़ना देने की कोशिश की जा रही है.
इस घटना के बाद जिस तरह से मुझे जनता का और विपक्ष के जनप्रतिनिधियों का समर्थन और सहानुभूति मिल रही है उसने मुझे संबल प्रदान किया है. यदि लोकतंत्र में जनता की बात ही न सुनी जाए और जनप्रतिनिधि पर हमला हो तो आम आदमी का क्या होगा? उसे तो सरकार चींटी की तरह मसल कर रख देगी. यानी सिस्टम ही ध्वस्त हो जाएगा. मैं जनता के लिए जीता हूं, जनता के लिए ही जीता रहूंगा. जनता ने मुझे चुनकर अपना प्रतिनिधि बनाया है.
न्यायिक प्रक्रिया चल रही है और मैं बोलकर इसमें कोई बाधा उत्पन्न करना नहीं चाहता. मुझे अफसोस इस बात का है कि जब डेमोक्रसी कमजोर पड़ जाती है और सरकार अस्थिर रहती है तो ब्यूरोक्रेसी हावी हो जाती है. यही झारखंड में भी हो रहा है. कुछ अधिकारी इतने दबंग हो गए हैं कि जनप्रतिनिधियों को पीटने तक लगे हैं. न्यायालय पर मुझे पूरा भरोसा है और मैं उसका सम्मान करता हूं. मीडिया अपनी निष्पक्ष भूमिका का निर्वहन करे और मधु कोड़ा को हमेशा न्यूज आइटम या हॉट केक की तरह न ले.
यदि सरकार का इस पूरे प्रकरण में हाथ नहीं है तो वह न्यायिक जांच से कतरा क्यों रही है? इसके पीछे छिपी कई गुत्थियां हैं, जो न्यायिक जांच के बाद सामने आ जाएंगी. किसी एक को दोषी ठहराना नहीं चाहता लेकिन मेरी जान के दुश्मन तो कई हैं. सरकार के साथ-साथ कुछ कॉरपोरेट घराने भी हैं, जिनको लगता है कि मेरे कारण उनका नुकसान हुआ है. कुछ राजनीतिज्ञ भी हैं और कुछ परदे के पीछे हैं. इसलिए मैं सरकार से कहना चाहूंगा कि इस साजिश का पर्दाफाश करे.