2007 में भी सरकार आपसे वादा करके मुकर चुकी है. ऐसे में आप इस समझौते पर कितना विश्वास करते हैं?
2007 की पदयात्रा के बाद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक आयोग और विशेषज्ञों की समिति का गठन हुआ था. आयोग ने कोई भी काम नहीं किया, लेकिन समिति ने अपना काम किया और अपनी रिपोर्ट में 300 सुझाव दिए. यह रिपोर्ट हमारे लिए एक हथियार बनी. इस बार भी टास्क फोर्स का गठन एक बड़ी सफलता है जिसके साथ मिलकर हम आगे की लड़ाई लड़ सकते हैं.
आंदोलन के चरम पर आते ही कई बड़े नाम आपके साथ जुड़ गए. कहीं ये लोग आपके आंदोलन से अपने राजनीतिक हित तो नहीं साध रहे हैं?
मध्य प्रदेश हमारा कार्यक्षेत्र होने के कारण वहां के मुख्यमंत्री से हमारे पुराने संबंध हैं. मैं गरीबों और भूमिहीनों के हितों से जुड़े कई काम उनसे करवाता रहा हूं तो उनका हमारे आंदोलन से जुड़ना स्वाभाविक है. स्वामी अग्निवेश भी भूमिहीनों के आंदोलनों से काफी समय से जुड़े रहे हैं और बाबा रामदेव को हमने ही आमंत्रित किया था. मैंने बाबा के भाषणों में उन्हें जल-जंगल-जमीन की बातें करते सुना था. तो मैंने ही उन्हें कहा कि आप जल-जंगल के अधिकारों की बात करते हैं तो हमारे साथ आइए.
क्या कारण थे कि जो बात ग्वालियर में नहीं बन पाई वह आगरा में बन गई?
समझौता तो ग्वालियर में ही होना तय हुआ था. जयराम रमेश के साथ 16 मुद्दों पर हमारी सहमति भी बन गई थी. परंतु उन पर शायद मंत्रिमंडल या प्रधानमंत्री कार्यालय का दबाव था जो कि आखिरी समय में समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया गया. शायद केंद्र सरकार को यह भी डर था कि यदि यहां हस्ताक्षर कर दिए तो पूरे भारत में हो रहे आंदोलनों पर समझौता पत्र लिखित में न देना पड़ जाए. मगर आंदोलन का दबाव इतना बढ़ चुका था कि सरकार को आगरा में समझौता करना ही पड़ा.
क्या आपकी सभी मांगों को समझौते में शामिल किया गया है?
कई मुद्दों को टास्क फोर्स पर छोड़ दिया गया है, जैसे कि महिलाओं को भूमि अधिकार दिलाना. टास्क फोर्स का गठन ही एक बड़ा कदम है. सच्चर कमिटी जैसी कई रिपोर्टों टास्क फोर्स द्वारा खोली जाएंगी और उन पर काम होगा. इसमें काबिल लोगों को शामिल किया जाएगा. राज्यों का सहयोग भी इसमें बहुत जरूरी है. अब हम राज्यों के पास भी यह दस्तावेज लेकर जाएंगे और उनसे बात करेंगे.
जन सत्याग्रह पर हुए समझौते के किन बिंदुओं को आप भूमि सुधार की दिशा में सबसे अहम मानते हैं?
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भूमिहीनों को आवासीय भूमि देने की दिशा में यह पहला कदम है. ‘राइट टू लैंड फॉर शेल्टर’ की जो धारणा है वह इससे हासिल होती दिखती है. दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है गरीबों को कृषि योग्य भूमि उपलब्ध करवाना. इस समझौते से इन दोनों ही उद्देश्यों के रास्ते खुले हैं.
किन मुद्दों पर राजी होने से सरकार सबसे ज्यादा कतरा रही थी?
केंद्रीय नीति लागू करवाना सबसे बड़ी चुनौती थी. भूमि को राज्यों का विषय बताकर केंद्र सरकार हमेशा इस मुद्दे को टालना चाहती थी. हमारा तर्क था कि भूमि अधिग्रहण कानून, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और खान एवं खनिज संबंधी कई कानून केंद्रीय कानून हैं. फिर भूमि सुधार हेतु एक राष्ट्रीय नीति क्यों नहीं हो सकती?
समझौता पत्र पर हस्ताक्षर होने को आप आंदोलन की सफलता मानते हैं?
जी हां, मानता हूं. सार्वजनिक रूप से समझौता पत्र पर हस्ताक्षर होना आंदोलन की सफलता के साथ ही आम लोगों और अहिंसा की भी जीत है. आंदोलनों से निराशा के इस दौर में तो यह समझौता सभी के लिए उम्मीद जगाता है. साथ ही इस आंदोलनों से भूमि सुधार का मुद्दा एक बार फिर से राष्ट्रीय पटल पर आया है वरना इसे तो लोग भूल ही चुके थे. यहां तक कि भूमि सुधार की बात करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां भी इस मुद्दे को पीछे छोड़ चुकी थीं.
यदि सरकार फिर से अपने वादों से मुकर जाती है तो आप क्या करेंगे?
छह महीने के भीतर यदि सरकार मांगें पूरी नहीं करती तो हम फिर से जन आंदोलन करेंगे. हम लोग मरने से नहीं डरते और सरकार यह जानती है. पिछली यात्रा में हमारे 13 साथियों की जान चली गई थी. दिन में एक बार खाना खाकर और पूरे दिन पैदल चलकर हम लक्ष्य तक पहुंचते हैं. जिस गरीबी को लोग कमजोरी मानते हैं, हमने अपनी उसी कमजोरी को अपनी ताकत बनाया है. हमारी इस ताकत से सरकार भी घबराती है. इसीलिए ग्वालियर से आगरा आने तक ही सरकार को मानना पड़ा. यदि सरकार मुकरी तो लाखों लोगों का समूह अपने हक लेने दिल्ली आ पहुंचेगा.