खदेरू बाबा! हम उन्हें बाबा ही कहते थे. वे जाति से धोबी थे. दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान में हुए मेरे दाखिले के बारे में उनको किसी ने बताया था. उन्हें बताया गया था कि पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद मेरे पास जिला कलेक्टर से भी ज्यादा ‘पावर‘ होगी. दीपावली की छुट्टी में घर जाना हुआ था. एक दिन शाम के वक्त वे मिलने पहुंचे. आस-पास बैठे दूसरे लोगों के चले जाने के बाद उन्होंने धीरे से पूछा, ‘बाबू सुननी हअईं की तू बहुत दिल्ली में पढ़त बालअ, तनी डीएम साहेब पर जोर डाली के इअ सड़किया बन जाइत.’
बाबा ने पूरे अधिकारपूर्ण अनुरोध के साथ यह बात कही. साथ ही सड़क की जरूरत, अपनी सामाजिक स्थिति और आस-पास के सामंती दुराग्रह की तमाम दास्तान उन्होंने बड़े तकलीफ से बयान की. दरअसल, सड़क का संकट उनके लिए सिर्फ आने-जाने की सुविधा का सवाल नहीं था. यह अपने स्वाभिमान को खड़ा करने और सामंती दबाव से उबरने का संघर्ष भी था. बहू-बेटियों की विदाई दरवाजे से हो, यह एक पिता का सपना होता है. मगर उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के उस गांव की तकरीबन आधी आबादी के लिए यह आज भी सपना सरीखा है. बाबा की तकलीफ सभी पीड़ित ग्रामीणों की अभिव्यक्ति थी जिसे भरोसे के साथ वे मुझसे साझा कर रहे थे. उन्होंने बताया कि सरकारी नक्शे में सड़क है लेकिन अगल-बगल के लोगों ने उस जमीन पर कब्जा कर रखा है.
वे इसे अपना खेत बताते हैं. इन्हीं खेतों के बीच में पगडंडियां हैं जिससे गांववाले मुश्किल से बाहर निकलते हैं. बरसात में तो इसकी हालत और बदतर हो जाती है. इसे भी अक्सर बंद कर दिया जाता है या रास्ते में कांटे रख दिए जाते हैं. बाबा यह भी बता रहे थे कि जिनका खेत रास्ते में पड़ता है वे दलित परिवारों को पगडंडी बंद करने की अक्सर धमकी देते हैं, अपने यहां काम करने का दबाव डालते हैं और अभद्रता से पेश आते हैं. उन्होंने यह भी बताया कि हरेक नया ग्राम प्रधान यह सब समस्याएं दूर करने का वादा तो करता है मगर चुनाव के बाद बड़ी कुटिलता से अपने आश्वासन से किनारा कर लेता है. गांव में लोगों को यह विश्वास है कि एक पत्रकार अपने प्रभाव के जरिए प्रशासनिक अमले से सड़क का निर्माण मुकम्मल करवा सकता है.
बहरहाल, पढ़ाई के बाद कुछ दिन की बेरोजगारी झेलकर एक न्यूज एजेंसी में काम किया, फिर दिल्ली के ही एक अखबार में नौकरी मिल गई. इससे पिता जी के आत्मविश्वास को बल मिला जिसकी बदौलत वे तमाम अड़चनों से निपटते हुए सड़क बनवाने में कामयाब रहे. पर आधी-अधूरी. फिर भी बाबा के दरवाजे तक सड़क पहुंचने की मन में एक तसल्ली थी. लेकिन पता चला कि उसे देखने से पहले ही बाबा इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे. वहीं बाकी ग्रामीण अभी भी सड़क से जुड़ने की उम्मीद संजोए हुए हैं.
कभी-कभी ऐसा लगता है किसी भयानक सपने में कोई शैतान मेरा गला दबा रहा हो. या मैं गहरे पानी में डूब रहा हूं और कंठ में आवाज अटकी पड़ी है. यह संकट उन ग्रामीणों के आत्मविश्वास की लड़ाई में मददगार न बनने के अपराधबोध से उपजा है जो मुझे शब्दहीन और अपंग बनाता है. आखिर पत्रकारिता का अर्थ क्या है, यह ताकत है या लोकतंत्र को कारगर बनाए रखने का उपकरण. अनुभव कहता है कि दिग्भ्रमित राजनीति के दौर में पत्रकारिता संचार का माध्यम होने भर से ज्यादा कुछ भी नहीं है. ‘वॉयस ऑफ वायसलेस’ होकर भी वॉयसलेस है. इसे लोकतंत्र के चौथे खंभे के रूप में पेश किया जाता है लेकिन आज पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग निरीह बनकर रह गया है.
सामान्य-सी समस्या को सत्ता तक पहुंचा न पाने का मुझे मलाल रहेगा. पता नहीं बाबा को किस खबरनवीस ने ये खबर सुना दी थी कि पत्रकार के पास जिला कलेक्टर से ज्यादा पावर होती है. बाबा, माफ करना. मैं तुम्हारी सड़क नहीं बनवा सका. सड़क भी देखे बिना न जाने कितने बाबा दुनिया से चले गए. बाबाओं को इस तरह तकलीफों से भरकर जाते देखना मुझ जैसों की अपंगता ही तो कही जा सकती है.