सांसदों की अभद्र और तल्ख़ भाषा से क्या सीखेंगे देश के नागरिक?
देश के लोकतंत्र के मंदिर में जो मानसून सत्र में हुआ और हो रहा है, वह बेहद शर्मनाक और अफ़सोसजनक है। सवाल यह है कि सांसदों की अभद्र और तल्ख़ भाषा से देश के लोगों की मानसिकता पर क्या असर पड़ेगा? वे एकता का पाठ कैसे सीखेंगे? क्या उनमें मतभेद पैदा नहीं होगा? क्या वे जगह-जगह लडऩे पर आमादा नहीं होंगे? और इसका परिणाम संसद के बाहर देश के हर शहर, हर क़स्बे और हर गाँव में देखने को मिल भी रहा है। चाहे वो जगह-जगह लोगों के बीच बढ़ता तनाव और लड़ाई के रूप में हो, या चाहे मणिपुर में तीन महीने से भडक़ी शर्मनाक हिंसा के बाद हरियाणा के नूंह, मेवात और गुडग़ाँव में हिंसक झड़पों की साज़िश हो। हालाँकि ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र के मंदिर संसद में पहले कभी इतनी तीखी बहस, वॉकआउट और एक-दूसरे के ऊपर छींटाकशी का दौर नहीं चला है। लेकिन जैसा इस बार संसद के अंदर हुआ है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ।
न ही ऐसा हुआ कि सवालों से सरकार इस क़दर बचती रही हो और न ही ऐसा हुआ कि रिश्ते इतने तल्ख़ हो गये हों कि उनकी कड़वाहट सरेआम दिखने लगी हो और इतनी ज़्यादा बढ़ गयी हो कि एक-दूसरे के सभी दुश्मन बन बैठे हों। पहले जब संसद में सरकार और विपक्ष के बीच तीखी बहस हुआ करती थी, तो संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में चाय पीने से लेकर खाना खाने तक सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेता एक साथ दिखते थे और एक-दूसरे से हँसकर मिलते थे, कभी-कभी तो हल्की-फुल्की मज़ाक़ भी हुआ करती थी। लेकिन पिछले क़रीब एक दशक से यह सिलसिला धीरे-धीरे ख़त्म होता जा रहा है और अब तो हालात यहाँ तक पहुँच गये हैं कि सत्तापक्ष और विपक्ष के देश भर से चुने हुए प्रतिनिधि एक-दूसरे का चेहरा देखने से भी कतराते दिखते हैं। दुश्मनी इतनी कि सत्ता पक्ष विपक्षी दलों को ख़त्म करने पर ही आमादा-सा दिखायी देता है।
कहा जाता है कि विपक्ष और निष्पक्ष मीडिया के बिना सरकार निरंकुश हो जाती है। क्या यही वजह है कि आज की केंद्र सरकार विपक्ष और निष्पक्ष मीडिया को ख़त्म करने पर आमादा है कि क्योंकि यह दोनों उसकी कमियों को ये उजागर कर रहे हैं? एक तरफ़ मणिपुर दंगों से लेकर कई महत्त्वपूर्ण सवालों से जिस तरह कतराकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बार संसद के मानसून सत्र में उपस्थित नहीं रहे।
दूसरी तरफ़ सवाल पूछने पर, प्रति फाडऩे पर सांसदों को निष्कासित किया गया। क्या संसद में ऐसी घटनाएँ पहले नहीं हुईं? लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला संसद में नहीं जाते हैं। कहते हैं कि जब तक विपक्ष हंगामा बन्द नहीं करेगा, वो संसद में नहीं जाएँगे। प्रधानमंत्री इस मानसून सत्र से पूरी तरह $गायब रहे। बस आख़िरी दिन औपचारिकतावश आये। बड़ी अजीब बात है कि क्या कोई सवालों के डर से संसद में नहीं आएगा? तो कोई हंगामे को लेकर नहीं आएगा, फिर संसद चलेगी कैसे? क्या पहले हंगामा नहीं होता था या आज सत्ता पक्ष के सांसद हंगामा नहीं करते हैं? जब भी विपक्ष का कोई सदस्य बोलने की कोशिश करता है, तब क्या सत्ता पक्ष के सदस्य $खामोशी से उसे सुनते हैं?
बहरहाल, इस बार जिस तरीक़े से मणिपुर और हरियाणा में हुई हिंसा से बचने के लिए सरकार ने पैंतरेबाज़ी की, वह यह दर्शाती है कि सरकार को अपनी ग़लती पर सुनने की आदत नहीं है और इसके लिए वो न तो किसी की भी कोई टिप्पणी सुनना चाहती है और न ही किसी का कोई सवाल बर्दाश्त करती है। मणिपुर और हरियाणा में भडक़ी हिंसा से बचने के लिए ही सरकार ने दिल्ली विधेयक का मामला उठाया। यही हुआ भी, मणिपुर पर जो हंगामा होना था और सवाल पूछे जाने थे और अब हरियाणा को लेकर जो सवाल उठने थे, उन सबकी जगह दिल्ली विधेयक पर सबका ध्यान चला गया, ताकि सरकार अपनी जवाबदेही के साथ-साथ हिंसा के आरोपों से बच सके। इसके अलावा जिस प्रकार से संसद में चुनी हुई दिल्ली की केजरीवाल सरकार के बारे में निचले दर्जे की भाषा का इस्तेमाल किया गया, वो किसी जनप्रतिनिधि की भाषा कभी होगी? ऐसा किसी ने नहीं सोचा होगा।
वहीं दूसरी ओर कोई कोर कसर न रखने वाले केजरीवाल की भाषा में भी देश के सम्मानीय पद पर बैठे प्रधानमंत्री के लिए चौथी पास राजा, अनपढ़ प्रधानमंत्री जैसे आपत्तिजनक शब्द और निम्न स्तर की भाषा का प्रयोग अति अशोभनीय है। मेरे विचार से इसे अदालत में चुनौती देनी चाहिए, जो शायद दे भी रखी है। लेकिन संसद में सत्ता पक्ष के सांसदों द्वारा गिरगिट, घोटालेबाज़, भ्रष्टाचारी, सत्ता का भूखा, झूठा, दुर्योधन और तू-तड़ाक आदि बोला जाना संसद की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाला ही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री पर जो आरोप संसद में लगाये जा रहे हैं, अगर वह सच है, तो अब तक केजरीवाल को गिर$फ्तार क्यों नहीं कर लिया गया?
दरअसल इस विधेयक के क़ानून बनने से जब दिल्ली के मुख्यमंत्री और दिल्ली सरकार के पास कोई शक्ति बची ही नहीं, तो वो करेंगे क्या? पुलिस पहले से ही गृह मंत्रालय के पास है। क़ानून व्यवस्था भी केंद्र के ही पास है। ज़मीन से जुड़ा काम भी केंद्र के पास ही है। डीडीए भी केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के पास है। एसीबी पहले ही दिल्ली सरकार से छीनी जा चुकी है और अब ट्रांसफर-पोस्टिंग भी दिल्ली विधेयक को क़ानून बनाकर छीन लिया गया, तो दिल्ली सरकार करेगी क्या? यह सोचने का विषय है और यह सिर्फ़ दिल्ली सरकार की सत्ता होते हुए भी सत्ता छिनने के मामले में ही सोचने का विषय नहीं है, बल्कि दूसरे उन राज्यों के भविष्य के बारे में सोचने का विषय है, जहाँ विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं।
बहरहाल विचारणीय विषय यह है कि संसद में जिस तरह से हंगामा सत्ता पक्ष के सदस्य करते हैं और जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल वो आजकल करने लगे हैं, क्या वो सडक़-छाप भाषा नहीं है? ऐसे में अगर विपक्ष के संजय सिंह को संसद से निष्कासित किया जा सकता है, तो फिर सत्ता पक्ष के सांसदों को निष्कासित क्यों नहीं किया जाता? हालाँकि ऐसा नहीं है कि पहले सांसदों को निष्कासित नहीं किया गया; लेकिन इतनी छोटी बातों पर किसी सांसद को सदन से निष्कासित किया गया हो, यह मेरी जानकारी में नहीं है। भाजपा की वाजपेई सरकार के समय की बात है, जब अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री थे और प्रमोद महाजन संसदीय कार्य मंत्री थे, तब विपक्ष ने सदन में कुछ ज़्यादा ही हंगामा कर दिया था, जिस पर प्रमोद महाजन ने बड़े विनम्र स्वभाव से कहा कि आपका प्रश्न सरकार ने सुन लिया है। हम बीच का रास्ता निकाल लेंगे। आइए, बैठकर बात करें। यह भाषा हुआ करती थी संसद की। आज की भाजपा कई अपने दिग्गज नेताओं को याद करती है, उनके जन्मदिवस और पुण्यतिथियाँ मनाती है; लेकिन प्रमोद महाजन जैसे दिग्गज नेता को याद तक नहीं करती है। इसकी क्या वजह है? वो पुराने लोग अच्छी तरह जानते हैं।
इसी प्रकार का एक वाक़िया इंद्र कुमार गुजराल सरकार के समय का है। अटल बिहारी वाजपेई सदन में बोल रहे थे, तो सत्तापक्ष के लोग उन्हें बीच-बीच में टोंक रहे थे, जिससे अटल बिहारी वाजपेई नाराज़ हो गये और सत्ता पक्ष में सन्नाटा पसर गया। किसी ने उसके बाद शोर नहीं किया। यह गरिमा कभी विपक्ष की हुआ करती थी। सन् 1996 में भी तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्त एक दिन अपना सिर पकड़े संसद भवन के केंद्रीय कक्ष के बाहर बैठे थे, इसकी वजह भाजपा के एक सांसद थी, जो उस समय विपक्ष में थी; लेकिन गृह मंत्री ने विपक्ष को तब खरी-खोटी नहीं सुनायी और न ही किसी विपक्षी सदस्य को सदन से निष्कासित कराने की साज़िश की। लेकिन आज जिस तरह से सत्ता पक्ष विपक्ष के ख़िलाफ़ क्रूर और दुश्मन की तरह व्यवहार करने पर आमादा है; वो समझ से बाहर है।
दरअसल, सत्ता पक्ष अपनी मर्र्ज़ी से विधेयक पारित करता जा रहा है और अपनी ही मर्र्ज़ी से क़ानूनों बदलना चाहता है। सन् 2014 के बाद बिना विपक्ष की सहमति के और बिना चर्चा के ऐसे कई विधेयक संसद में पारित हो चुके हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? जब विपक्ष में कोई बोलेगा नहीं और सवाल भी नहीं पूछेगा, तो फिर विपक्ष का मतलब क्या रह जाएगा? ऐसे कई सवाल हैं, जो उन सवालों की बिना पर खड़े हुए हैं, जिनके जवाब सत्तापक्ष देने से कतरा रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक संपादक हैं।)