संप्रग-2 आजाद भारत की सबसे बुरी सरकार है

 

जब से हम स्वतंत्र हुए हैं तब से कोई न कोई भ्रष्टाचार का मामला सामने आता रहा है. लेकिन इतनी भ्रष्ट सरकार आजाद भारत में पहले कभी नहीं आई. इस सरकार के जितने मंत्री भ्रष्टाचार के तरह-तरह के आरोपों से घिरे हैं उतने किसी भी सरकार के नहीं रहे. ऐसा माहौल दिखता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपने मंत्रियों पर कोई नियंत्रण नहीं है जिसकी वजह से यह स्थिति पैदा हुई है. मनमोहन सिंह पिछले आठ साल से सरकार चला रहे हैं, लेकिन उनके मंत्रियों पर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोपों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा. भ्रष्टाचार से बड़ी चिंता की बात यह है कि यह सरकार उस पर पर्दा डालने की कोशिश आखिर तक करती रहती है. ए राजा के मामले में पूरे देश ने यह देखा. सुरेश कलमाड़ी के मामले में भी ऐसा ही हुआ. अब पी चिदंबरम को सरकार लगातार बचाने की कोशिश कर रही है. प्रधानमंत्री उनके बचाव में खड़े नजर आ रहे हैं. इसका मतलब यह हुआ कि यह इस सरकार की फितरत है कि जब भी कोई मामला सामने आए तो पहले उस पर पर्दा डालने की कोशिश करो और अगर कोई मामले को संसद में उठाता है तो उसे सिरे से खारिज करो.

यह सरकार सिर्फ न्यायपालिका के सामने जाकर झुकती है. जब न्यायपालिका से आदेश आता है तब सरकार कार्रवाई शुरू करती है. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की सिफारिश के बावजूद सीबीआई जांच के आदेश नहीं दिए गए. इस निर्देश के एक साल के बाद जब कोर्ट का डंडा पड़ा तब जाकर यह मामला सीबीआई को जांच के लिए मिला. अर्थशास्त्र में यह माना जाता है कि भ्रष्टाचार से अनुपयोगी और दिखावे की चीजों का उपभोग (कॉन्सपीक्युअस कन्जंप्शन) बढ़ता है क्योंकि भ्रष्टाचार का पैसा लोग रोजमर्रा के कामों पर तो खर्च करते नहीं. देखा जाए तो बेलगाम होती महंगाई के पीछे सबसे बड़ा कारण भ्रष्टाचार ही है. मैंने लोकसभा में भी कहा था कि सरकार जब नाकाम होती है तो हर मोर्चे पर हो जाती है. इस सरकार की सबसे ज्यादा असफलता आर्थिक मोर्चे पर दिखती है. जबकि इस सरकार से सबसे ज्यादा उम्मीदें आर्थिक मोर्चे पर ही थीं. आर्थिक मामले पर जो हम लोग संजोकर गए थे उसमें से एक-एक चीज आज बिखर चुकी है. रुपये के अवमूल्यन से लेकर विकास दर और राजकोषीय घाटे तक के मोर्चे पर हालत खस्ता है. इससे यह लगता है कि आर्थिक मामलों पर से सरकार ने पूरी तरह से नियंत्रण खो दिया है.

मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री 1991 में जो पाठ पढ़ाया था उससे आज वे स्वयं हट गए हैं. उस वक्त उन्होंने कहा था कि महंगाई की सबसे ज्यादा मार गरीब पर पड़ती है. लेकिन आज उन्हें अपनी वही बात याद नहीं है. यह स्थिति कोई तीन या छह महीने से नहीं है बल्कि महंगाई की यह स्थिति तो पिछले तीन-चार साल से बनी हुई है. दुनिया की बड़ी आर्थिक एजेंसियां और आर्थिक पत्र-पत्रिकाएं आर्थिक मामलों को लेकर आज हिंदुस्तान की भर्त्सना कर रही हैं. हाल ही में दुनिया की एक प्रमुख पत्रिका ‘टाइम’ ने भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘अंडरअचीवर’ का तमगा दे डाला. इससे पूरी दुनिया में यह संदेश गया है कि भारत के विकास की जो कहानी थी वह खत्म हो गई है. लोग तो यह भी कह रहे हैं कि भारत की विकास की कहानी अस्थायी थी और उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा था.

2010-2011 में भारतीय उद्योगपतियों ने 44 अरब डॉलर देश के बाहर निवेश किए, जबकि देश में निवेश हुआ सिर्फ 27 अरब डॉलर का

 बतौर वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पूरी तरह से असफल रहे हैं और वे अर्थव्यवस्था को गंभीर संकट में छोड़कर गए हैं. आज हर आर्थिक संकेतक नकारात्मक स्थिति की पुष्टि कर रहा है. इसके बावजूद सरकार स्थिति से निपटने के लिए जरूरी कदम उठाने के बजाय इनकार की मुद्रा अपनाए हुए है. सरकार रेटिंग एजेंसियों समेत उन सभी लोगों को गलत ठहरा रही है जो अर्थव्यवस्था की बदहाली की बात उठा रहे हैं. इस सरकार की समझ में यह क्यों नहीं आता कि जब तक समस्या को समझेंगे नहीं तब तक उसका समाधान कैसे होगा.

अर्थव्यवस्था की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2010-2011 में 44 अरब डॉलर भारत के उद्योगपतियों ने देश के बाहर निवेश किया. जबकि इसी दौरान देश में निवेश हुआ सिर्फ 27 अरब डॉलर. अब देश का उद्योगपति देश में निवेश नहीं कर रहा है. देश का उद्योगपति अपने धन को बाहर ले जा रहा है. इस पर सरकार को विचार करना चाहिए. अगर कुछ बंदिशें लगाने की जरूरत पड़े तो लगाई जानी चाहिए. उदारीकरण का यह मतलब नहीं है कि देश गरीबी में गोते खाता रहे और अमीरी देश के बाहर जाए.

जब केंद्र में राजग सरकार थी तो उस दौरान ‘फिसकल रेस्पांसिबिलिटी ऑफ बजट मैनेजमेंट एक्ट’ पास हुआ. इसका मकसद था सरकारी घाटे को नियंत्रण में रखना. संप्रग की पहली सरकार ने सत्ता में आने के बाद इसे अधिसूचित किया. इस कानून में यह प्रावधान था कि राजस्व घाटे को शून्य पर लाएंगे और वित्तीय घाटे को दो-तीन प्रतिशत के आस-पास लाएंगे. लेकिन 2008-09 में भारत का वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 6.2 फीसदी था और राजस्व घाटा वित्तीय घाटे का 75.2 फीसदी हो गया. 2009-10 में वित्तीय घाटा जीडीपी का 6.6 फीसदी था और राजस्व घाटा वित्तीय घाटे का 80.7 फीसदी. वित्त मंत्री अब इसे 72.5 फीसदी पर लाने की बात कह रहे हैं. यह है अर्थव्यवस्था की हालत. यह बात आर्थिक मसलों की जरा-सी भी समझ वाला हर व्यक्ति जानता है कि राजस्व खर्च अनुत्पादक होता है. इससे उत्पादन नहीं बढ़ता है. उत्पादन बढ़ता है पूंजीगत व्यय से.

 महंगाई से लोग बेहाल हैं और यह सरकार बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है. जब संसद में महंगाई पर चर्चा चल रही थी तो मैंने कहा था कि रसोई में आग लग गई. अब कोई कहे कि रसोई में आग नहीं जलेगी तो खाना कैसे बनेगा. मगर आग जलने और आग लगने में अंतर है. आज गृहिणी आग जला नहीं रही है, उसकी रसोई ही जल गई है. रसोई की हर चीज उसकी पकड़ से बाहर हो गई है. यहां तक कि आग जलाने वाली चीज एलपीजी भी महंगी हो गई है. 2009 के दिसंबर में संसद की वित्त समिति ने महंगाई के बारे में ‘कंप्रीहैन्सिव फूड प्राइसिंग ऐंड मैनेजमैंट पॉलिसी’ तैयार करने की सिफारिश की थी. उस पर अब तक कुछ नहीं हुआ.

 अर्थशास्त्र में महंगाई को गरीबों के ऊपर सबसे घटिया किस्म का टैक्स कहा गया है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इतने बड़े अर्थशास्त्री हैं, वे इस बात को समझते ही होंगे. लेकिन इसके बावजूद महंगाई रोकने की कोशिश सरकार नहीं कर रही है. आर्थिक विषयों पर शोध करने वाली एजेंसी ‘क्रिसिल’ की एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले तीन साल में यानी 2008-09 से 2010-11 तक, महंगाई के चलते देश के लोगों ने तकरीबन छह लाख करोड़ रुपये अधिक खर्च किए. इसका क्या मतलब हुआ? मतलब यह हुआ कि अगर महंगाई को हमने पांच फीसदी पर नियंत्रित किया होता तो यह भार उनके ऊपर नहीं पड़ता. लेकिन महंगाई इन तीन वर्षों में आठ प्रतिशत या उससे ऊपर रही. वह 20 प्रतिशत तक भी गई. इस वजह से आपकी, हमारी और गरीबों की जेब से छह लाख करोड़ रुपये अधिक खर्च हुए. यानी दो लाख करोड़ रुपये हर साल. भारत सरकार का कुल कर राजस्व है तकरीबन 6.64 लाख करोड़ रुपये. इसका मतलब यह हुआ कि प्रतिवर्ष सरकारी राजस्व का लगभग एक तिहाई महंगाई के चलते इस देश के लोगों को अतिरिक्त देना पड़ रहा है.

कुछ महीने पहले एशियन डेवलपमेंट बैंक की भी एक रिपोर्ट आई थी. इसमें कहा गया है कि भारत में 20 महीने में जिस दर की महंगाई रही है और खासकर जैसे खाद्यान्नों की महंगाई रही है, उसके चलते पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए. हम आज प्रतिवर्ष आठ-नौ प्रतिशत की दर से विकास कर रहे हैं. विकास से गरीबी और गरीबों की संख्या घटनी चाहिए. लेकिन अगर हमने महंगाई पर नियंत्रण नहीं पाया तो उसका यही नतीजा होगा जो एशियन डेवलपमेंट बैंक ने कहा है. यानी और अधिक लोग गरीबी रेखा के नीचे जाएंगे, गरीबी घटेगी नहीं.

खुद इसी सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि देश की आबादी में सबसे कम आमदनी वाले नीचे के 20 प्रतिशत लोग अपनी आमदनी का 67 प्रतिशत खाने-पीने की चीजों पर खर्च करते हैं. अब अगर रसोई में आग लगी हो तो उस 20 प्रतिशत की क्या हालत होगी? हम ऊपर के 20 प्रतिशत को भूल जाएं, बीच के 20 प्रतिशत को भूल जाएं, ये जो नीचे के 20 प्रतिशत लोग हैं वे आज महंगाई की मार सहते-सहते मिट्टी में मिल रहे हैं. इन लोगों को यह नहीं कहा जा सकता है कि आज देश जो आठ फीसदी की दर से विकास कर रहा है तुम उसी को खाकर अपनी भूख मिटा लो. यह कैसी विकास दर है जो खुद लोगों को ही खा रही है. मैं सिरे से इस सिद्धांत को खारिज करता हूं कि किसी भी कीमत पर विकास होना चाहिए. अगर विकास का मतलब महंगाई है तो ऐसे विकास का कोई मतलब नहीं है.

बीच-बीच में सरकार में बैठे जिम्मेदार लोग इस तरह के बयान देते हैं जिससे महंगाई नियंत्रित होने के बजाय और बढ़ जाती है. प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, कृषि मंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष हर दो महीने बाद कहते हैं कि अगले दो महीने में हम महंगाई को नियंत्रित कर लेंगे. इसके दो महीने बाद फिर कहते हैं कि अगले दो महीने में हम महंगाई नियंत्रित कर लेंगे. इन बयानों के बाद जो मुनाफाखोर हैं वे सोचते हैं कि फिर दो महीने की मोहलत मिल गई है और अब जैसे चाहेंगे वैसे लोगों को चूसेंगे. महंगाई को लेकर सरकार कितनी असंवेदनशील है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि तेजी से बढ़ती महंगाई के बावजूद सरकार ने बार-बार पेट्रोल, डीजल, केरोसिन और रसोई गैस के दाम बढ़ाए. सरकार को इस बात को समझना होगा कि खाने-पीने की चीजों की महंगाई बढ़ेगी तो बाकी चीजों की कीमतों में भी वृद्धि होगी. विनिर्माण क्षेत्र इससे बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है. लेकिन संप्रग सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है.

प्रधानमंत्री ने खुद कहा है कि आज हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती आंतरिक सुरक्षा है. उन्होंने माओवाद को सबसे बड़ी चुनौती बताया है. लेकिन इसके बावजूद माओवाद के ऊपर कहीं कोई नियंत्रण नजर नहीं आ रहा है. हमें यह समझना चाहिए कि माओवाद किसी एक सूबे की समस्या नहीं है बल्कि यह पूरे देश की समस्या है. इससे निपटने में सरकार की जो भूमिका दिखनी चाहिए वह नहीं दिख रही है. जो कदम उठाए जाने चाहिए थे, वे कदम मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली दोनों सरकार ने पिछले आठ साल में नहीं उठाए हैं. अगर प्रधानमंत्री यह मानते हैं कि आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माओवाद है तो सच्चाई यह है कि यह खतरा घटा नहीं है बल्कि और बढ़ गया है. इसमें भी सबसे तकलीफ की बात यह है कि आंध्र प्रदेश में सरकार ने माओवादियों से समझौता किया और असम में उल्फा से. जबकि उल्फा को खदेड़कर असम से बाहर किया गया था. इसका मतलब यह हुआ कि जहां इस सरकार को राजनीतिक लाभ लेना होता है वहां माओवादियों से समझौता कर लेती है. एक तरफ तो ये समझौता करके चुनाव जीतते हैं और दूसरी तरफ उन्हें ही आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा भी बताते रहते हैं.

बाहरी आतंकवाद से निपटने में भी यह सरकार नाकाम दिखती है. अब भी हम देश को ऐसे सुरक्षा कवच में नहीं डाल पाए हैं जो जरूरी है. अमेरिका पर एक आतंकी हमला हुआ और उसके बाद उसने खुद को ऐसे सुरक्षा कवच में डाला कि उसके बाद आतंकवादी कभी अपने मंसूबों को पूरा करने में कामयाब नहीं हो पाए हैं. भारत में स्थिति इसके उलट है. यहां एक के बाद एक लगातार आतंकी हमले होने के बावजूद अब तक कोई चाक-चौबंद व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई है. स्थिति ऐसी है कि जो जब चाहे तब भारत पर हमला कर सकता है. भारत पर आतंकवादी खतरा अब भी बरकरार है और मुंबई में जिस तरह का हमला 2008 में हुआ था उस तरह के हमले की आशंका भी लगातार बनी हुई है. 

प्रतिवर्ष सरकारी राजस्व का लगभग एक तिहाई महंगाई के चलते इस देश के लोगों को अतिरिक्त देना पड़ रहा है

विदेश नीति के मोर्चे पर भी इस सरकार की नाकामी बिल्कुल साफ है. विदेश नीति के मामले में देखें तो इस सरकार का झुकाव अमेरिका की तरफ बहुत ज्यादा है. जब हमारी सरकार केंद्र में थी तो कांग्रेस हम पर लगातार आरोप लगाती थी कि हम अमेरिका के हिसाब से अपनी विदेश नीति बना रहे हैं. जब 2004 में कांग्रेस की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनी तो उस वक्त जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम इन लोगों ने बनाया था उसमें यह कहा गया था कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के समय विदेश नीति में अमेरिका के प्रति जो झुकाव दिखता था उसे हम दुरुस्त करेंगे. जबकि हुआ यह कि संप्रग सरकार की विदेश नीति कहीं अधिक अमेरिका के पक्ष में झुकी नजर आती है. अमेरिका के साथ 2005 में जब परमाणु समझौता हो रहा था तो उस वक्त लोगों को सरकार ने सब्जबाग दिखाया कि बस कल ही आपके घर में बिजली पहुंचने वाली है. लेकिन सात साल गुजरने के बावजूद उस समझौते के आधार पर एक मेगावाट बिजली का उत्पादन नहीं हो पाया है. वहीं दूसरी तरफ परमाणु ऊर्जा को लेकर देश का अपना जो शोध है उसे इस सरकार ने वैसा बढ़ावा नहीं दिया जैसा दिया जाना चाहिए था. परमाणु समझौते को लेकर जिस तरह का रवैया इस सरकार ने कदम-कदम पर दिखाया उससे अमेरिका के प्रति इस सरकार का झुकाव स्पष्ट दिखता है.

ईरान के साथ हमारे हमेशा से मित्रता के संबंध रहे हैं. ईरान ही एक ऐसा देश है जिसके जरिए हम अफगानिस्तान और मध्य एशिया जाते हैं. ईरान से भारत को काफी तेल मिलता है. लेकिन ईरान को भारत ने नाराज किया. अब अमेरिका के दबाव में आकर हम ईरान से तेल की खरीद कम कर रहे हैं. इसके बाद भारत सरकार अमेरिका को कहती है कि हमने आपके कहने पर ईरान से तेल खरीद में कटौती कर दी है और अब हमें छूट दे दीजिए. वहीं दूसरी तरफ रूस से संबंधों को लेकर भी यह सरकार नाकाम दिख रही है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का पाकिस्तान जाना भारत के लिए चिंता का एक बड़ा संकेत है. रूस को भारत हमेशा से अपना सबसे अच्छा मित्र मानता रहा है. लेकिन आज हमारा सबसे अच्छा मित्र हमारे सबसे बड़े दुश्मन के यहां जा रहा है. इससे पहले कभी रूस का कोई राष्ट्राध्यक्ष पाकिस्तान नहीं गया. आज रूस ऐसा इसलिए कर रहा है कि वह देख रहा है कि भारत अमेरिका के साथ अपनी सांठ-गांठ बढ़ा रहा है. अमेरिका के साथ भारत की गलबहियों को देखते हुए रूस ने भी अब स्वतंत्र तौर पर दूसरे देशों के साथ अपने संबंधों को नए सिरे से देखना शुरू कर दिया है.

सुरक्षा के मामले में देश की जो कमजोरी है उसे पूर्व सेनाप्रमुख जनरल वीके सिंह ने उजागर किया. रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की स्थिति पूरे देश के सामने है. हाल ही में अभिषेक वर्मा नाम के एक व्यक्ति की गिरफ्तारी हुई है. यह व्यक्ति बहुत दिनों से स्वतंत्र चल रहा था. लेकिन अब जाकर उसकी गिरफ्तारी हो पाई है. उसकी गिरफ्तारी इस बात का प्रमाण है कि रक्षा सौदों में कितने बड़े स्तर पर दलाली का काम चल रहा है. वॉर रूम लीक जैसी गंभीर घटनाएं भी इस सरकार की नाकामी को ही दिखाती हंै. कुल मिलाकर देखा जाए तो आज हर सुरक्षा सौदे में कहीं न कहीं भ्रष्टाचार है. इसका सबसे बुरा असर देश की रक्षा तैयारियों पर पड़ रहा है. 

नीतियों के स्तर पर दो बातें हैं. एक बात तो यह है कि आप कोई नीति बनाएं और फिर उसे लागू करें. ऐसा करने पर देश में नीतियों को लेकर भरोसा बढ़ेगा. लेकिन यहां तो कोई नीति ही नहीं बन पा रही है. नीतियों के स्तर पर संप्रग सरकार उम्मीद तो बड़ी बंधाती है लेकिन हकीकत में कुछ कर नहीं पाती. अभी हाल में रुपये के अवमूल्यन और महंगाई को लेकर जब हर ओर से सरकार पर दबाव बना तो प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्री तक ने कहा कि भारतीय रिजर्व बैंक इस बारे में बड़ी घोषणाएं करने वाला है. इससे सबकी उम्मीदें बढ़ गईं. लेकिन रिजर्व बैंक ने जो घोषणाएं कीं वे खोदा पहाड़ और निकली चुहिया की तरह थीं. इससे हुआ यह कि रुपया डॉलर के मुकाबले कहीं अधिक कमजोर हुआ और शेयर बाजार का सूचकांक भी नीचे गया. इस सरकार की आदत में यह शामिल हो गया है कि आशाएं बंधाओ और उस पर खरा नहीं उतरो.

 पेंशन बिल एक उदाहरण है. ममता बनर्जी इसका विरोध कर रही हैं. उनके विरोध की वजह से यह बिल संसद में नहीं आया. सरकार ने भाजपा से बात कर ली थी. हमने कहा था कि हम इस बिल का समर्थन करेंगे. लेकिन सरकार इस बिल को लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई. बजट सत्र के बाद सरकार ने यह घोषणा की कि यह बिल कैबिनेट के एजेंडे में आ गया है. इसके बाद ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल के दूसरे नेता और रेल मंत्री मुकुल रॉय ने चिट्ठी लिख दी और पेंशन बिल का विषय कैबिनेट के एजेंडे से हटा दिया गया. इस तरह की बातों से ज्यादा परेशानी होती है. आप कह रहे हो कि हम फैसला करने जा रहे हैं लेकिन आप फैसला कर नहीं पा रहे हैं. खुदरा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) लाने की इन्होंने घोषणा कर दी. इसके बाद जब विरोध हुआ तो सरकार ने अपने कदम पीछे हटा लिए. सरकार के इस तरह के रवैये से निवेशकों को ज्यादा निराशा होती है और सरकार के बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं बन पाती. आज अर्थव्यवस्था को लेकर सबसे बड़ी चिंता यह है कि यह विश्वास के संकट से जूझ रही है. जब यह सरकार बनी थी तब दावा किया गया था कि रोजगार के करोड़ों अवसर पैदा होंगे. लेकिन इस मामले में जो वैश्विक रिपोर्ट आ रही है और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट भी बता रही है कि रोजगार सृजन के मामले में हालत खराब है. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में रोजगार सृजन का काम हो ही नहीं रहा है. 

मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यह सरकार संघीय ढांचे को भी चुनौती देती दिख रही है. कई मामलों में केंद्र सरकार अपना निर्णय राज्यों पर थोपने का काम कर रही है. यही वजह है कि ज्यादातर राज्य केंद्र सरकार से नाराज हैं. राज्यों और केंद्र के बीच टकराव का वातावरण बना हुआ है. यह भारत की संघीय व्यवस्था के लिए बहुत अशुभ संकेत है. सबसे बड़ी बात यह है कि कोई भी सरकार जो नुकसान करके जाती है उन नुकसानों की भरपाई के लिए अगली सरकार को बहुत मेहनत करनी पड़ती है. 

आज कई राज्य केंद्र सरकार पर भेदभाव करने का आरोप लगा रहे हैं. यह सरकार उन राज्यों की मांगों को अधिक तवज्जो देती है जहां की सत्ताधारी पार्टी इनकी सहयोगी हो. लेकिन जिन राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकारें हैं, उनको लेकर इस सरकार का रवैया बिल्कुल अलग होता है. केंद्र सरकार का यह रवैया संघीय ढांचे के लिए एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है. जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी उस समय केरल में माकपा की सरकार थी. मुख्यमंत्री थे ईके नयनार. उस वक्त मैं केंद्रीय वित्त मंत्री था. उस दौरान नयनार ने मुझे एक पत्र लिखकर केंद्र की ओर से की गई मदद के लिए आभार जताया था और कहा था कि भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने माकपा की केरल सरकार के साथ कोई भेदभाव नहीं किया. वह पत्र आज भी वित्त मंत्रालय में कहीं न कहीं पड़ा होगा. बतौर केंद्रीय वित्त मंत्री जब मैं मूल्यवर्धित कर (वैट) सुधार की बात कर रहा था तब मैंने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु के नेतृत्व में पहली समिति बनाई. इसके बाद बंगाल के वित्त मंत्री असीम दासगुप्ता की अगुवाई में राज्यों के वित्त मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति इस मसले पर बनाई. ऐसा इसलिए किया कि हम लोग संघीय ढांचे में विश्वास रखते थे और भेदभाव की नीति पर नहीं चलते थे. माकपा से बड़ा भाजपा का राजनीतिक विरोधी कोई नहीं है. इसके बावजूद हमने केरल और पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकारों के साथ बिल्कुल वैसा ही व्यवहार रखा जैसा व्यवहार अपनी पार्टी की सरकारों के साथ रखते थे. जबकि मौजूदा सरकार कई राज्यों के साथ भेदभाव कर रही है. यह रवैया सरकार की संकीर्ण मानसिकता को दिखाता है. 

यह सरकार संवैधानिक संस्थाओं से टकराने में भी बिल्कुल हिचकिचा नहीं रही है. अल्पसंख्यकों के आरक्षण का ही मामला लीजिए. इस मामले में सरकार चलाने वाले लोग जानते हैं कि जो बात वे अल्पसंख्यकों के आरक्षण को लेकर कह रहे हैं वह असंवैधानिक है. इसके बावजूद सरकार के अलग-अलग मंत्री इस मसले पर बयानबाजी कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस मामले में जब सरकार के खिलाफ फैसला दे दिया तो फिर फटकार सुनने के लिए केंद्र सरकार उच्चतम न्यायालय चली गई. यह सरकार सिर्फ और सिर्फ वोट के लिए जान-बूझकर गैरसंवैधानिक कार्य कर रही है. केंद्र सरकार महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक (सीएजी), चुनाव आयोग, अदालत और लोक लेखा समिति (पीएसी) से अनावश्यक टकरा रही है. 2जी घोटाले पर बनी संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के मामले में भी सरकार का यही रवैया है. आज प्रधानमंत्री यह क्यों नहीं कहते कि मैं जेपीसी के सामने जाऊंगा. वे जानते थे कि पीएसी के पास यह अधिकार नहीं है कि वह किसी मंत्री को बुलाए. इसलिए उन्होंने कहा कि मैं पीएसी के सामने जाने के लिए तैयार हूं. आज जब जेपीसी में आने की मांग उठ रही है तो वे चुप्पी साधे हुए हैं.

इस सरकार के ज्यादातर मंत्री बहुत दंभी हैं. उनके मन में यह भाव पैदा हो गया है कि उनके जैसा दुनिया में और कोई है ही नहीं. मनमोहन सिंह के बारे में आम धारणा यह बना दी गई है कि वे बहुत सरल, सहज और सभ्य हैं. लेकिन इनकी सच्चाई को समझने के लिए एक घटना का जिक्र करना जरूरी है. मई, 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और जुलाई में बजट आया. बजट के बाद संसद में वित्त विधेयक पर विवाद चल रहा था. इस संबंध में हम लोग – जॉर्ज फर्नांडिस, लालकृष्ण आडवाणी और मैं – एक कागज देने मनमोहन सिंह के पास गए. थे. जॉर्ज फर्नांडिस ने कागज मनमोहन सिंह के हाथ में दिया और उन्होंने सबके सामने ही उसे उठाकर फेंक दिया. उस वक्त जॉर्ज फर्नांडिस ने यह भी कहा था कि मनमोहन सिंह ने अपने पुराने संबंधों का भी खयाल नहीं रखा. मनमोहन सिंह जब अधिकारी होते थे तो उन्होंने जॉर्ज फर्नांडिस के अंडर भी काम किया था. यह घटना प्रधानमंत्री की सरलता, सहजता और सभ्यता के दावों की पोल खोलती है. इस घटना से मनमोहन सिंह ने न सिर्फ अपने आचरण को दिखाया बल्कि दूसरे मंत्रियों को भी ऐसा ही व्यवहार अपनाने को प्रेरित किया. आज यही मंत्रियों के दंभी रवैये के रूप में सबके सामने आ रहा है.

रूस को भारत हमेशा अपना सबसे अच्छा मित्र मानता रहा है. लेकिन वह हमारी नीतियों के चलते हमारे सबसे बड़े दुश्मन के यहां जा रहा है

यह सरकार जनभावना की बिल्कुल कद्र नहीं करती. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि प्रधानमंत्री खुद अनिर्वाचित हैं. जो जनता के बीच जाते ही नहीं हैं, उन्हें यह कैसे पता होगा कि जनभावना क्या चीज होती है? हम जैसे चुनाव लड़ने वाले लोग जब अपने निर्वाचन क्षेत्र में जाते हैं तो हर रोज सैकड़ो लोगों से मिलते हैं और गांव-गांव घूमते हैं. मनमोहन सिंह का न तो कोई निर्वाचन क्षेत्र है और न ही उनसे उनके मतदाता मिलते हैं और न ही वे किसी गांव में जाते हैं. जनता दरबार ही लगा लिया होता! लेकिन ऐसा भी नहीं है. इसलिए जनभावना के प्रति उपेक्षा का भाव उनके लिए स्वाभाविक ही है. इस सरकार में तो जिनके भी हाथों में फैसला करने का अधिकार है वे सभी आराम से अपनी-अपनी जगह बैठे हुए हैं. 

जब 2004 में संप्रग की सरकार बनी तो उस वक्त कहा गया कि मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री होंगे, जो सिर्फ सरकार चलाएंगे. वहीं सोनिया गांधी संप्रग की अध्यक्ष होंगी और राजनीति देखेंगी. उस समय मीडिया में जमकर यह चला था कि इससे अच्छी व्यवस्था पहले कभी नहीं बनी. कुछ लोग कहने लगे कि मनमोहन सिंह सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) की तरह सरकार चलाएंगे और देश बहुत तेजी से तरक्की की राह पर बढ़ेगा. तरक्की की कयासबाजियों को इस बात ने भी बल दिया कि प्रधानमंत्री की पहचान बड़े अर्थशास्त्री के तौर पर थी. कहा गया कि प्रधानमंत्री को चुनाव भी कहीं से नहीं लड़ना है इसलिए वे चुनावी राजनीति के दबावों से मुक्त होकर काम कर सकेंगे. हम जैसे लोग जो चुनाव लड़ते हैं उनके पास उनके संसदीय क्षेत्र से विभिन्न मसलों पर लगातार फोन आते हैं. लेकिन मनमोहन सिंह के पास कोई फोन नहीं आता क्योंकि उनका कोई संसदीय क्षेत्र ही नहीं है. 

दुनिया की बड़ी पत्रिकाओं में ‘दि इकॉनोमिस्ट’ को शुमार किया जाता है. इस पत्रिका ने हाल में यह कहा कि पिछले आठ साल से भारत पर अनिर्वाचित प्रधानमंत्री शासन कर रहा है. बाहर वाले भी देखते हैं कि प्रधानमंत्री ने कभी चुनाव लड़ा नहीं. एक दफा दक्षिणी दिल्ली से चुनाव लड़े भी तो हार गए. संविधान में यह नहीं लिखा हुआ है कि प्रधानमंत्री लोकसभा का ही होना चाहिए. लेकिन संविधान की मर्यादा का तकाजा है कि प्रधानमंत्री लोकसभा का हो. जब प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार कांग्रेस ने बना दिया तो उनके सामने इस बात के लाले पड़ गए कि किसे सदन का नेता बनाएं. देश का प्रधानमंत्री पूरे देश का नेता होता है. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कम समय के लिए प्रधानमंत्री बना है या फिर अधिक समय के लिए. जो अपनी पार्टी का भी सर्वोच्च नेता नहीं ह,ै उसे देश या फिर देश के बाहर के लोग भारत का नेता कैसे मानेंगे.

 इस सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था को ही संप्रग के अनिर्वाचित प्रधानमंत्री वाले तरीके ने खंडित कर दिया. मनमोहन सिंह भले ही प्रधानमंत्री के पद पर हों लेकिन उनके पास कोई ताकत नहीं है. ताकत है सोनिया गांधी के पास, लेकिन उनके पास कोई जिम्मेदारी नहीं है. संप्रग का यह प्रयोग ही देश की अभी की सारी दिक्कतों की जड़ में है क्योंकि हर जगह नेतृत्व का अभाव दिखता है. ममता बनर्जी और डीएमके तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी सहयोगी थे. ये दोनों इस सरकार में भी हैं. लेकिन जो स्थितियां आज पैदा हो रही हैं वे हमारे समय में तो नहीं हो रही थीं. हम इन दोनों को ठीक ढंग से साथ लेकर चलते रहे. संप्रग से कहीं अधिक सहयोगी दलों को साथ लेकर चलने का काम राजग ने किया था. हम ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि हमारे पास अटल बिहारी वाजपेयी जैसा नेतृत्व था.

जबकि मनमोहन सिंह के पास नेतृत्व की क्षमता नहीं है. मनमोहन सिंह के पास न नैतिक ताकत है, न राजनीतिक. और न सरकारी ताकत. प्रधानमंत्री के पास कोई ताकत नहीं है. इस वजह से जिस नेतृत्व की आवश्यकता इस देश को अभी है वह नहीं मिल पाया. इस सरकार के शुरुआत के दो-तीन साल तो यह सोचते हुए कट गए कि प्रधानमंत्री बहुत ईमानदार हैं इसलिए सब ठीक चलेगा. लेकिन कभी-न-कभी तो इसे बिखरना ही था. अब संप्रग-2 में यह बिखराव बिल्कुल साफ दिख रहा है. यह सरकार नेतृत्व और विश्वसनीयता के गंभीर संकट से गुजर रही है. जब प्रणब मुखर्जी सरकार का हिस्सा थे तो सारी जिम्मेदारी उन पर छोड़ रखी थी.

 देश के प्रधानमंत्री को जब भी समय मिलता है तो वह संसद के सदन में आकर बैठता है. चाहे वह लोकसभा में बैठे या राज्यसभा में. जब संसद में प्रश्नकाल चल रहा होता है तब मनमोहन सिंह सदन में आते हैं. इसके बाद शून्य काल शुरू होता है और सांसद कहते रह जाते हैं कि मैं प्रधानमंत्री जी को यह बताना चाहूंगा, वह बताना चाहूंगा लेकिन मनमोहन सिंह इन बातों की अनदेखी करते हुए सदन से उठकर चले जाते हैं. संसद की इतनी अवज्ञा और किसी शासन में नहीं हुई. मनमोहन सिंह की संसद में कोई दिलचस्पी ही नहीं है. जो संसद में पला-बढ़ा उसे तो इसकी कार्यवाही में दिलचस्पी होगी लेकिन जिसका कोई संबंध ही नहीं रहा उसकी इसमें दिलचस्पी कैसे होगी? प्रधानमंत्री का संसद में रुचि नहीं होना इस सरकार और देश की एक सबसे बड़ी समस्या है.