चीन के संदर्भ में यह कभी-कभार ही होता है कि चीजें ठीक वैसी हों जैसी दिखाई दे रही हैं. आम तौर पर अपने राजनीतिक इरादों को सात परदों के पीछे छिपाकर रखने वाले इस देश में एक मसले पर पिछले दिनों बड़ी साफगोई देखी गई. इसी साल 15 नवंबर को कम्युनिस्ट पार्टी का मुखिया बनने के बाद चीन के ‘प्रेसिडेंट इन वेटिंग’ जी जिनपिंग ने घोषणा की कि ‘क्वियांग्यू मेंग’ यानी चीन का ‘सुपरपावर ड्रीम’ अब देश की पकड़ में है. चिंता की बात यह है कि चीन में सत्ता परिवर्तन के बाद इस पहली घोषणा ने ही दक्षिण चीन सागर में एक तूफान-सा पैदा कर दिया है.
जिनपिंग बीजिंग स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में चीन का इतिहास दर्शाने वाली प्रदर्शनी में अनौपचारिक रूप से बोल रहे थे. छह सदस्यों की अपनी टीम से घिरे जिनपिंग के शब्द थे, ‘ इस समय हम चीनी राष्ट्र के पुनर्जीवन के लक्ष्य के बिल्कुल करीब हैं. और इतिहास के इस क्षण में इसे हासिल करने के बारे में हम सबसे ज्यादा आत्मविश्वास से भरे हुए हैं.’
लगभग इसी समय बीजिंग से अंतरराष्ट्रीय मीडिया को मिल रही खबरें भी दक्षिण चीन सागर में एक नया अध्याय शुरू होने की घोषणा कर रही थीं, जिसका असर दक्षिण चीन सागर के देशों और जापान तक में चिंता और गुस्से के रूप में देख्रा गया. ऐसा प्रतीत होता है जैसे चीन ने इस घोषणा के लिए सावधानीपूर्वक समय का चुनाव किया था क्योंकि इस समय अमेरिका में चुनाव खत्म ही हुए थे और इस खुमारी से निकल रहा देश बाकी दुनिया पर उस तरह नजर नहीं रखे हुए था. इसी समय चीन के तटीय प्रांत हैनान में एक कानून पारित करके पुलिस को एक जनवरी, 2013 से विदेशी जहाजों को पकड़ने, जब्त करने और क्षेत्र से बाहर निकालने का अधिकार दे दिया गया. इस कानून का सीधा मतलब है कि अगले साल से इस क्षेत्र से विदेशी जहाजों की आवाजाही बंद हो जाएगी. एक मोटे अनुमान के मुताबिक भारत का आधा व्यापार इसी रास्ते से होता है.
सीधे तौर पर इससे फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ब्रुनेई और सिंगापुर जैसे देश प्रभावित होंगे. इनकी पूरी अर्थव्यवस्था समंदर के इसी रास्ते पर निर्भर करती है. जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान का निर्यात मार्ग भी यही क्षेत्र है. दुनिया में निर्यात होने वाला आधा तेल इसी जल मार्ग से होकर गुजरता है. ब्रुनेई जैसे देश, जो चीन के तट से काफी दूर हैं, भी इस फैसले से आक्रांत हैं क्योंकि चीन के दावे के मुताबिक ब्रुनेई के किनारों तक अब चीन का प्रभुत्व होगा.
इसके साथ ही अभी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों और भारत के लिए चीन द्वारा जारी पासपोर्ट भी चिंता की एक बड़ी वजह है. इसमें छपे चीन के नक्शे में सभी विवादित क्षेत्रों को चीन का हिस्सा दिखाया गया है. इसके जवाब में इन देशों ने भी चीनी नागरिकों को अलग दस्तावेजों पर वीजा देना शुरू कर दिया. वहीं भारत ने इस तरह के पासपोर्ट को अस्वीकार्य कर दिया.
इस पूरे विवाद के बीच अब तक सिर्फ फिलीपींस ने ही चीन के प्रति कड़ी प्रतिक्रिया दिखाई है. अमेरिका के करीबी इस देश के राष्ट्रपति बेनिग्नो एक्विनो ने टीवी पर दिए अपने संबोधन में देश की आम जनता से पूछा था, ‘यदि कोई आपके आंगन में घुस आए और कहे कि वह उसका है तो क्या आप इस बात को मान लेंगे?’ इससे पहले एक्विनो फिलीपींस से लगते दक्षिण चीन सागर के हिस्से को आधिकारिक रूप से पश्चिम फिलीपींस सागर नाम दे चुके हैं.
तनावपूर्ण हो रही स्थिति के बीच दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का संगठन आसियान अब तक इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का ध्यान आकर्षित करने के अलावा कुछ नहीं कर पाया है. संगठन के महासचिव ने लंदन के अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा भी था कि यदि दक्षिण चीन सागर का विवाद नहीं सुलझाया गया तो यह फलीस्तीन जैसी जटिल समस्या का रूप ले सकता है. जहां तक चीन की बात है तो वह इन देशों से अलग-अलग बात करना चाहता है ताकि इन पर आसानी से दबाव डाला जा सके.
दक्षिण-पूर्व एशियाई देश सामूहिक रूप से चीन का सामना नहीं कर पा रहे हैं. इस कमजोरी की वजह वियतनाम के उप विदेश मंत्री पैम क्युयांग विन्ह के वक्तव्य से जाहिर होती है,’ आर्थिक ताकत का इस्तेमाल क्षेत्रीय विवाद सुलझाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए .’उल्लेखनीय है कि एक समय कुलांचे मारकर आगे बढ़ रही वियतनाम की अर्थव्यवस्था आज ढलान पर है. इस साल उसकी विकास दर पिछले 13 साल में न्यूनतम स्तर पर है. वियतनाम सरकार के आंकड़े बताते हैं कि दोनों देशों के बीच इस समय द्विपक्षीय कारोबार 36 अरब डॉलर है.
इस क्षेत्र में जापान पहले से ही चीन के साथ द्वीप विवाद की कीमत चुका रहा है. हाल ही में जापान ने सेनकाकू द्वीप समूह (जिसे चीन दाइयू कहता है) को निजी हाथों में जाने से रोकने के लिए खरीद लिया था. इसके बाद से चीन में जापानी सामानों की बिक्री का बहिष्कार होने लगा. जापान की कार कंपनियों ने अपने मुनाफे का अनुमान घटा दिया है. इनकी बिक्री में अभी तक 60 फीसदी तक की कमी दर्ज की गई है. जापानी कंपनियों और इनकी चीनी शाखाओं पर इस बीच कई हमले भी हुए.
इस क्षेत्र में अमेरिका का सबसे घनिष्ठ सहयोगी होने के बाद भी कहीं से ऐसा नहीं लग रहा है कि विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन को आसानी से दबाव में लाया जा सकता है. इस समय अमेरिका खुद अपने राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए जूझ रहा है. लेकिन अमेरिकी नीति निर्धारकों में जापान का इतना असर है कि वह अमेरिकी सरकार के दूसरे क्षेत्रों में दखल न देने की इच्छा के बावजूद अपने लिए समर्थन सुनिश्चित कर सकता है. दो हफ्ते पहले यह देखने को भी मिला. अमेरिका की सीनेट ने एक ऐसा बिल पास किया है जो यदि कानून बन गया तो द्वीप विवाद के मसले पर चीन से झड़प होने पर अमेरिका को जापान की मदद के लिए आना होगा. इस बिल में प्रावधान है कि यदि जापान प्रशासित क्षेत्र पर यदि कोई सशस्त्र हमला होता है तो यह सुरक्षा और सहयोग से जुड़ी अमेरिका-जापान संधि के अंतर्गत आएगा. अमेरिका के इस कदम की चीन की तरफ से तुरंत तीखी प्रतिक्रिया देखी गई. चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने पत्रकारों से कहा कि यह बिल उनके लिए चिंता की बात है और उन्हें इस पर सख्त आपत्ति है. चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ में भी कहा गया कि अमेरिका की इस ‘तात्कालिक कदम’ की उसे प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी और इससे उसे नुकसान उठाना पड़ेगा.
हालांकि अब तक अमेरिका ने आधिकारिक रूप से विवादित द्वीप समूह के मालिकाना हक पर कोई टिप्पणी नहीं की है. लेकिन पिछले दिनों अमेरिकी सरकार में एक वरिष्ठ अधिकारी अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान चीन को यह चेतावनी जरूर दे गए कि उनके देश की ‘तटस्थता’ के अन्य मतलब न निकाले जाएं.
इस समय जापान में भी विवादित द्वीप को लेकर जन आक्रोश बढ़ रहा है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से सबसे शांतिप्रिय देशों में शुमार जापान में चीन के ताजा रवैये से सुरक्षा चिंताएं बढ़ रही हैं. अमेरिका एक अरसे से जापान को क्षेत्रीय ताकत बनाना चाहता है, लेकिन जापान इस आग्रह पर कभी सहमत नहीं हुआ. वर्तमान हालात में संभव है कि जापान अमेरिका के सहयोग से इस भूमिका में खुद आ जाए. चीन के डर से क्षेत्र के बाकी देश भी जापान के अतीत को भुलाकर उससे सामान्य संबंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
सबसे दिलचस्प बात है कि इस पूरे विवाद में अपनी मजबूत नौसेना और सामरिक भूमिका की वजह से भारत चीन के खिलाफ एक महत्वपूर्ण पक्ष है. हालांकि भारत दक्षिण चीन सागर से सीधे नहीं जुड़ा है, फिर भी पेट्रोलियम पदार्थों के कारोबार और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ संबंधों की वजह से वह इस विवाद का महत्वपूर्ण हिस्सा है. पिछले कुछ सालों में भारत की सरकारी कंपनी ओएनजीसी वियतनाम के तटीय क्षेत्रों में तेल की खोज में लगी है. चीन को इस पर आपत्ति है. वह ओएनजीसी को आवंटित क्षेत्रों में तेल खोज के लिए अपनी तरफ से निविदाएं आमंत्रित कर चुका है. चीन के दबाव के बाद भी पिछले साल ओएनजीसी वियतनाम के साथ तेल खोज के लिए दोबारा करार कर चुका है. भारत की तरफ से यह जान-बूझकर उठाया गया कदम लग रहा है. भारत के नौसेना प्रमुख ने हाल ही में पत्रकारों से बात करते हुए कहा था कि भारतीय नौसेना ओएनजीसी की मदद के लिए तैयार है और इसकी तैयारी के लिए युद्धाभ्यास भी किया गया है.
इस समय चीन के प्रभाव को सीमित करने के लिए भारत और अमेरिका के बीच एक सामरिक गठजोड़ की बात चल रही है, लेकिन ओबामा के प्रशांत क्षेत्र की तरफ ध्यान देने के पहले से ही भारत इस क्षेत्र को तवज्जो
देता रहा है. यह भी उल्लेखनीय है कि क्षेत्र के ज्यादातर देश भारत की गंभीरता पर भरोसा करते हैं.
फिलहाल दक्षिण चीन सागर में महाशक्तियों की दिलचस्पी सिर्फ अपना प्रभुत्व दिखाने को लेकर नहीं है. दरअसल यह प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता वाला क्षेत्र है और इसलिए दुनिया की तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए कब्जे की लड़ाई का अखाड़ा बन रहा है. इस समय दुनिया के कुल तेल उत्पादन के तीसरे हिस्से की खपत एशिया में होती है. 2010 के आंकड़ों के हिसाब से वैश्विक खपत के मामले में चीन की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा 19 फीसदी है, वहीं अमेरिका के लिए यह आंकड़ा 18 फीसदी है. पेट्रोलियम पदार्थों की इस खपत में भारत का हिस्सा अभी काफी कम (पांच फीसदी) है. चूंकि भारत और चीन में तेल उत्पादन लगभग न के बराबर होता है, ऐसे में दोनों पक्षों का इस क्षेत्र में काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है.
जिनपिंग चीन में 21वीं शताब्दी के पहले प्रिंसलिंग राष्ट्रपति हैं. यानी वे उन परिवारों के सदस्य है जो माओत्से तुंग की सांस्कृतिक क्रांति के समय में काफी ताकतवर थे और जिनका चीन की राजनीति में आज बहुत प्रभाव है. इससे पहले जियांग झेमिन प्रिंसलिंग राष्ट्रपति थे. जेमिन ने 1996 में ताइवान पर मिसाइलें दागने का आदेश दिया था ताकि उसकी आजादी की महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगाया जा सके. जिनपिंग झियांग की परंपरा के राष्ट्रपति हैं. अगले साल मार्च में वे देश के राष्ट्रपति बन जाएंगे. तब उनके सामने ‘सुपरपावर ड्रीम’ को जमीनी हकीकत बनाने की जिम्मेदारी होगी. यह वे दस साल में करना चाहते हैं. ऐसे में यह देखना काफी महत्वपूर्ण हो जाता है कि चीन के इस सपने में बाकी देशों का स्थान कहां होगा.