संगीत की लता

(FILES) In this file photo taken on June 18, 2010 singer Lata Mangeshkar attends the launch of photographer Gautam Rajadhyaksh’s Marathi coffee table book “Chehere” in Mumbai. - Beloved Bollywood singer Lata Mangeshkar has died at the age of 92. (Photo by AFP)

लता मंगेशकर। यह एक नाम भर नहीं है। संगीत साधना है और लता इसकी अनन्य साधक थीं। उन्होंने ताउम्र इसे जीया। साठ साल की उम्र पार करने के बाद भी उनकी आवाज़ में किसी युवती-सी खनक थी। निश्चित ही उनमें यह नैसर्गिक प्रतिभा थी। किशोरावस्था में परिवार के लिए कमाने का बोझ ढोकर भी लता ने कमाल का जीवट दिखाया। गायन में जब वह स्थापित हुईं, तो उनकी आवाज़ संगीत की दुनिया में पहचान बन गयी। लता एक ही थीं। उनके जाने से संगीत का एक ऐसा सितारा टूट गया है, जिसके बिना एक ख़ालीपन हमेशा रहेगा; भले ही उनकी आवाज़ सदियों तक जहाँ में गूँजती रहेगी।

लता के कई गीतों में उनके जीवन की पीड़ा का दर्द महसूस किया जा सकता है। देश-भक्ति से भरपूर कवि प्रदीप के लिखे गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ को लता ने जिस शिद्दत से गाया था, उसकी तारीख़ के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। यह कहा गया है कि लता ने यह गीत सन् 1962 के चीन-भारत युद्ध में सर्वोच्च बलिदान देने वाले वीरों की याद में 27 जनवरी, 1963 को जब नेशनल स्टेडियम में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में गाया था, तो नेहरू अपने आँसू नहीं रोक पाये थे।

लता शुरू में अभिनय करना चाहती थीं। उन्होंने किया भी था। सन् 1942 में पिता दीनानाथ शास्त्री की अचानक मृत्यु से उपजी पारिवारिक परिस्थितियों में जिम्मेदारी आ पडऩे के वक़्त लता मंगेशकर ने सन् 1948 तक अभिनय में कोशिश की। उन्होंने आठ फ़िल्मों में अभिनय किया। चूँकि लता पाँच भाई-बहनों- मीना, आशा, उषा और हृदयनाथ में सबसे बड़ी थीं। परिवार के पोषण का ज़िम्मा उनके नन्हें कन्धों पर था। भले ही उनका अभिनय करियर आगे नहीं बढ़ा; लेकिन उन्होंने पाश्र्व गायन से शुरुआत बेहतर की।

उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर एक शास्त्रीय गायक और थिएटर अभिनेता थे। उन्होंने थिएटर कम्पनी भी चलायी, जहाँ संगीत, नाटक तैयार होते थे। लता ने यहीं पाँच साल की छोटी आयु में अभिनय की शुरुआत की थी। अभिनय के बाद गायन को उन्होंने जीवन का रास्ता बना लिया।

एक बार लता ने बताया कि एक दिन उनके पिता के एक शिष्य राग का अभ्यास कर रहे थे। लता को लगा कि उसमें कुछ ख़ामी है, तो उन्होंने उसे दुरुस्त कर दिया। पिता को लौटने पर इसका पता चला, तो उनके मुँह से निकला- ‘मुझे अपनी ही बेटी में एक शागिर्द मिल गया।’ दीनानाथ ने लता की माँ से कहा कि हमारे घर में ही एक गायिका है, हमें इसका पता ही नहीं चला।

गायन के शुरुआती दिनों में उन्हें कहा गया कि उनकी आवाज़ में पतलापन है। एक तरह से एक पाश्र्व गायिका के रूप में फ़िल्म उद्योग ने उन्हें अस्वीकार ही कर दिया। यह वो ज़माना था, जब फ़िल्म उद्योग में गायिकी के मंच पर नूरजहाँ और शमशाद बेग़म जैसी गायिकाएँ विराजमान थीं।

हालाँकि समय के साथ लता की आवाज़ लोगों को भाने लगी; क्योंकि तब तक नूरजहाँ और शमशाद बेग़म की भारी आवाज़ के साथ-साथ पतली आवाज़ भी पसन्द की जाने लगी थी।

सन् 1949 में महल फ़िल्म के उनके गीत ‘आएगा आने वाला’ ने धूम मचा दी। इस गीत में लता की आवाज़ में हताशा, उम्मीद और इंतज़ार का अद्भुत मिश्रण था। संगीतकार खेमचंद प्रकाश की धुनों से पॉलिश हुआ यह गीत नक्शाब जारचवी ने लिखा था। शोहरत की बुलंदियों के सफ़र की यह मज़बूत शुरुआत थी। लता ने इसके बाद पीछे मुडक़र नहीं देखा। एक के बाद एक नायाब गीत उन्हें गायन का भगवान बनाते गये।

इसके बाद उसी साल आया बरसात फ़िल्म का गीत ‘हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का’ काफ़ी मशहूर हुआ। दिल अपना और प्रीत परायी का गीत ‘अजीब दास्ताँ है ये’ लता के गाये श्रेष्ठ गानों में एक माना जाता है। सन् 1960 में मुगल-ए-आज़म का ‘प्यार किया तो डरना क्या’ एक तरह से दमन के ख़िलाफ़ विद्रोह से भरा गीत था, जो हरेक की ज़ुबाँ पर चढ़ गया। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि सन् 1999 में लता के सम्मान में एक इत्र ‘Lata Eau de Parfum’ लॉन्च किया गया था। यही नहीं, उन्होंने एक भारतीय हीरा निर्यात कम्पनी, अडोरा के लिए स्वरंजलि नामक एक संग्रह भी डिजाइन किया। आपको हैरानी होगी कि इस संग्रह के पाँच पीस जब क्रिस्टीज में नीलाम किये गये, तो इनसे 105,000 पाउंड (1,06,31,271.00 भारतीय रुपये) हासिल हुए। लेकिन इन्हीं लता मंगेशकर ने पिता की मौत के बाद पैसे के लिए संघर्ष किया था और अपने छोटे भाई बहनों के लिए अपनी ज़रूरतों और ख़ुशियों की क़ुर्बानी दे दी। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि लता ने यह पैसे सन् 2005 में कश्मीर भूकम्प के लिए बने राहत कोष में दान कर दिये थे। दादा साहेब फालके, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और भारत रत्न जैसे बड़े पुरस्कारों से उन्हें नवाज़ा गया।

लता मंगेशकर क्रिकेट की दीवानी रहीं। उनका क्रिकेट के प्रति यह प्रेम सचिन तेंदुलकर के आने से बहुत पहले से है, जब वह युवा थीं। एक शख़्स, जो क्रिकेट से जुड़ा था, उनकी ज़िन्दगी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया था। यह थे राजस्थान की डूंगरपुर रियासत के महाराजा राज सिंह डूंगरपुर। डूंगरपुर रणजी भी खेले और बीसीसीआई के अध्यक्ष भी रहे। लता घर में क्रिकेट में हाथ आजमा लेती थीं। वाकेश्वर हाउस में क्रिकेट के इस प्रेम के दौरान ही लता की मुलाक़ात डूंगरपुर से हुई थी। ख़ुद राज सिंह ने सन् 2009 में एक साक्षात्कार में बताया था कि वाकेश्वर हाउस में वह लता मंगेशकर और उनके भाई के साथ क्रिकेट खेलते रहे थे। लता मंगेशकर और राज सिंह की काफ़ी मुलाक़ातों का भी ज़िक्र रहा है। कहते हैं कि दोनों एक-दूसरे को पसन्द करते थे और विवाह करने के लिए भी तैयार थे। हालाँकि दोनों का प्यार रिश्ते में नहीं बदल पाया। क्योंकि डूंगरपुर के पिता चाहते थे कि उनका बेटा राजपूत परिवार में ही विवाह करे। विवाह तो नहीं हो सका; लेकिन लता और डूंगरपुर दोनों ने ही जीवन भर विवाह नहीं किया। दोनों के प्यार की ऊँचाई का इससे पता चलता है। दोनों ताउम्र दोस्त ज़रूर रहे।

 

गीत, जो हर ज़ुबाँ पर चढ़ गये

महल (1949) का ‘आएगा आने वाला’, बरसात (1949) ‘हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का’, दिल अपना और प्रीत परायी (1960) का ‘अजीब दास्ताँ है ये’, ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’, मुगल-ए-आजम (1960) का ‘प्यार किया तो डरना क्या’, जब-जब फूल खिले (1965) का ‘ये समां’, गाइड (1972) का ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’, पाकीज़ा (1972) का ‘चलते चलते यूँ ही कोई’, शोर (1972) का ‘इक प्यार का नग़्मा है’, अनामिका (1973) का ‘बाहों में चले आओ’, मुकद्दर का सिकंदर (1978) का ‘सलाम-ए-इश्क़ मेरी जान’, बाज़ार (1982) का ‘फिर चढ़ी रात’, सिलसिला (1981) का ‘देखा एक ख़्वाब’, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे (1995) का ‘तुझे देखा तो’, रुदाली (1993) का ‘दिल हूम-हूम करे’, दिल से (1998) का ‘जिया जले’, कभी ख़ुशी कभी ग़म (2001) का ‘कभी ख़ुशी कभी ग़म’, वीर-ज़ारा (2004) का ‘तेरे लिए’ और रंग दे बसंती (2006) का ‘लुका छुपी’।

 

लता मंगेशकर की चार प्रतिज्ञाएँ

लता मंगेशकर के पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर का पहला श्राद्ध था। लता मंगेशकर की बहनों- मीना और आशा ने तरह-तरह के पकवान तैयार किये थे। 21 तरह की सब्ज़ियाँ तैयार की गयीं। लेकिन उनकी माई (माँ) को यह पसन्द नहीं आया। उस समय उन्होंने पंडित दीनानाथ की प्रिय चाँदी की एक थाली बेच दी। इससे लता को $गुस्सा आ गया। उन्होंने माई से पूछा- ‘आपने उनकी पसन्दीदा थाली क्यों बेची?’ तब माई ने कहा- ‘यह मेरे मालिक का श्राद्ध है। किसी ऐरे-ग़ैरे का नहीं है। उनका श्राद्ध उसी ठाटबाट से करना चाहिए, जिसमें वे रहे।’ उनकी माताजी ने उन्हें कहा- ‘एक चाँदी की थाली के लिए तुम क्यों आँसू बहा रही हो? अगर तुम अपने पिता की तरह गाती रहोगी, तो एक वक़्त ऐसा आएगा कि तुम पर सोने की वर्षा होगी।’

श्राद्ध के समय पिंडदान का समय था। किसी कौए का इंतज़ार था। लेकिन कौआ नहीं आया। क़रीब एक घंटे बाद माई ने कहा- ‘आप पाँच भाई-बहनों में से एक ने कुछ $गलत किया है, इसलिए कौआ नहीं आ रहा है। तुम पाँचों कुछ प्रतिज्ञा करो, ताकि कौआ पिंड को छुए।’ इस पर लता ने चार प्रतिज्ञाएँ कीं। पहली- प्रतिदिन संगीत का रियाज़ करना। दूसरी- नियमानुसार बाबा का श्राद्ध करना। तीसरी- हर वर्ष बाबा के श्राद्ध दिवस पर संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत करना। और चौथी- करने के बाद भी कौआ नहीं आया। तब लता दीदी के साथ सभी ने चौथी प्रतिज्ञा की कि हम संगीत के अलावा और कुछ नहीं करेंगे। इस प्रतिज्ञा के बाद कौए ने पिंड ग्रहण किया। (प्रस्तुति : मनमोगन सिंह नौला)