कांग्रेस का कहना है कि वह पीछे नहीं देखेगी, आगे बढ़ेगी. लेकिन मुश्किल यह है कि न उसके पास पीछे देखने लायक कुछ बचा है और न आगे बढ़ने लायक. तो फिर?
पांच राज्यों में अपने खराब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस आत्मनिरीक्षण की तरह-तरह की मुद्राएं दिखा रही है. नतीजों के कुछ दिन बाद राहुल गांधी ने बड़ी सख्त भाषा में कहा था कि इस प्रदर्शन की जिम्मेदारी तय होगी और बड़ी कुर्बानियां होंगी. सोनिया गांधी ने कहा था कि पार्टी में नेता ज्यादा हो गए हैं और कार्यकर्ता कम. यह खबर भी आई कि सरकार के चार मंत्रियों ने पद छोड़कर संगठन में काम करने की इच्छा जताई है. अब इस प्रदर्शन के कारणों की समीक्षा के लिए बैठाई गई ऐंटनी कमेटी की रिपोर्ट के हिस्से बाहर आए हैं.
लेकिन इन हिस्सों से भी यही लग रहा है कि कमेटी आधा सच बोल रही है और उसे पूरा करते-करते सहम जा रही है. वह बता रही है कि पार्टी में भाई-भतीजावाद के आधार पर टिकट नहीं बांटे जाने चाहिए, लेकिन जिन लोगों ने बांटे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई हो या नहीं, इस पर खामोश है. वह बता रही है कि नेता और कार्यकर्ता के बीच बढ़ती दूरी उत्तर प्रदेश में हार की वजह बनी, लेकिन वह उन नेताओं की शिनाख्त नहीं कर रही जो इसके लिए जिम्मेदार हैं. रिपोर्ट में कुल मिलाकर जो एक ठोस आरोप दिखता है, वह मुसलिम आरक्षण के सवाल पर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद के बयान से और बटला हाउस के सवाल पर महासचिव दिग्विजय सिंह के बयान से होने वाले नुकसान का है. बाकी रिपोर्ट भ्रष्टाचार, महंगाई और कमजोर सांगठनिक ढांचे के वे जाने-पहचाने तर्क जुटाती है जो पहले से सबको मालूम हैं.
बहरहाल, सवाल है कि कांग्रेस इसके आगे क्या करेगी. इस सवाल का जवाब सोनिया गांधी ने दे दिया है. पिछले दिनों कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में उन्होंने आह्वान किया कि कांग्रेसी आपस में लड़ना छोड़ें और विरोधियों का मुकाबला करें. यही नहीं, उन्होंने यह भी इशारा किया कि 2014 के चुनाव बहुत दूर नहीं रह गए हैं और पार्टी को अब उनकी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए.
यानी साफ है कि न राहुल गांधी के कहे मुताबिक बड़ी कुर्बानियां हो रही हैं और न ही ऐंटनी कमेटी की सिफारिशों के बाद किसी पर कार्रवाई होने जा रही है. पार्टी पीछे नहीं देखेगी, आगे बढ़ेगी. लेकिन मुश्किल यह है कि न उसके पास पीछे देखने लायक कुछ बचा है न आगे बढ़ने लायक. कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल यह है- एक पार्टी के तौर पर उसका जो भी जीर्ण-शीर्ण ढांचा बचा हुआ है, वह पूरी तरह सोनिया और राहुल गांधी को समर्पित है, उनके किसी अनजाने जादू से अपने पुनरुद्धार की उम्मीद पाले बैठा है. संगठन अपने नेताओं को ताकत देने की जगह उनका परजीवी होने की जिद पर अड़ा है. इसका खमियाजा जितना पार्टी को भुगतना पड़ रहा है, उतना ही नेताओं को भी.
लेकिन क्या यह संकट सिर्फ इस बात का है कि नेता कांग्रेस को जमीन पर फैलाने की जगह नेहरू-गांधी परिवार के आसमान से उम्मीद लगाए बैठे हैं? या इसका वास्ता कांग्रेस के किसी अंदरूनी संकट से भी है? दरअसल एक पार्टी के तौर पर कांग्रेस की ऐतिहासिक भूमिका पूरे भारत और भारतीयता को जोड़ने की रही. उसके भीतर सभी विचारों और क्षेत्रों के हित जैसे सुरक्षित रहा करते थे- वह कई बार परस्पर विरोधी लक्ष्यों का साझा मंच भी दिखा करती थी. लेकिन जैसे-जैसे उसमें नेतृत्व की केंद्रीयता बढ़ी, यह लोकतांत्रिकता तार-तार होती गई, उसका लचीलापन क्षार-क्षार होता गया. 2004 में जब कांग्रेस सत्ता में लौटी तो उसकी एक वजह यह भी थी कि पहली बार उसने एकला चलो की नीति छोड़कर गठजोड़ की राजनीति का दामन थामा था. सोनिया गांधी अलग-अलग पार्टियों को जोड़कर उस लोकतांत्रिक सर्वानुमति को वापस लाने में कामयाब रही थीं जो कांग्रेस का पुराना चरित्र हुआ करती थी. 2009 में कांग्रेस की फिर से वापसी में इस चरित्र का भी हाथ रहा और इसकी वजह से पैदा हुए उन जनपक्षीय रुझानों का भी जिनके असर में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और सूचना का अधिकार जैसे कानून संभव हुए और अमल में लाए गए.
लेकिन 2009 के बाद अचानक कांग्रेस की चाल बदलती दिखती है.बल्कि इसकी शुरुआत 2008 में ऐटमी करार के सवाल पर वामदलों से चला आ रहा रिश्ता तोड़ने के साथ ही होती है. यही वह दौर है जब कांग्रेस के भीतर उदारीकरण की हामी शक्तियां निर्णायक ढंग से सिर उठाने को बेकरार हैं. इसके आस-पास वे घोटाले परवान चढ़ रहे हैं जिनकी मार अब कांग्रेस भुगत रही है. यही वह दौर है जब सरकार महंगाई और मुद्रास्फीति को विकास का अनिवार्य नतीजा बता रही है, माओवाद को देश का सबसे बड़ा दुश्मन व विदेशी निवेश के विस्तार को हमारी अपरिहार्य जरूरत.
देखा जाए तो अभी तक यह साफ ही नहीं है कि कांग्रेस की लाइन क्या है- वह देश के गरीबों के साथ खड़ी है या अमीरों के साथ
कहने को इसी दौर में राहुल गांधी दलितों और आदिवासियों के बीच पहचान और अस्मिता की नई राजनीति करने की कोशिश में हैं. लेकिन इस कोशिश के साथ न पार्टी की नीतियां दिखती हैं न सरकार का रवैया. अभी तक यह साफ ही नहीं है कि कांग्रेस की लाइन क्या है- वह देश के गरीबों के साथ खड़ी है या अमीरों के साथ.
कांग्रेस को इस दुविधा के पार जाना होगा. एक बड़ी अखिल भारतीय पार्टी के रूप में उसकी भूमिका खत्म हो चुकी है. नेताओं के पास नया एजेंडा नहीं है, इसलिए वे या तो सतही लोकलुभावन राजनीति के चक्कर में पड़ते हैं या फिर राहुल-सोनिया की तरफ देखते हैं. अब यह इन दोनों को तय करना है कि वे कोई नया राजनीतिक खाका तैयार करते हैं या पार्टी को लुंजपुंज यथास्थितिवाद के उसी दलदल में छोड़ देते हैं जो उसे राजनीतिक समझौतों के लिए वेध्य बनाता है और जनता की निगाह में अविश्वसनीय.
हार के नतीजों पर फौरी रिपोर्ट देखने-बांचने से पार्टी आगे नहीं जाएगी. उसके लिए वैचारिक और सांगठनिक दोनों स्तरों पर एक पूरी लड़ाई की जरूरत पड़ेगी. यह लड़ाई खाते-पीते नेता-पुत्रों के सहारे नहीं, वंचितों के बीच उभरने वाले नए नेतृत्व के साथ ही मिल कर लड़ी जा सकती है.