छह दशक पहले 25 नवंबर 1949 को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा की बैठक में देश की संसदीय प्रणाली को लेकर एक वक्तव्य दिया था. उन्होंने कहा था, ‘राजनीति के क्षेत्र में हम लोग ‘एक व्यक्ति – एक वोट’ की नीति को स्वीकृति देने जा रहे हैं.’ इसके साथ ही उन्होंने आशंका और हिदायत के मिले-जुले भाव में एक दूसरी बात भी कही थी. संसद के केंद्रीय हाल में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, ‘कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा उनके राजनीतिक दलों का व्यवहार कैसा होगा? भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या पंथ को देश से ऊपर रखेंगे? मैं नहीं जानता. लेकिन यह बात निश्चित है कि यदि राजनीतिक दल पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता फिर से खतरे में पड़ जाएगी…’
बेशक बाबा साहब ने कभी नहीं चाहा होगा कि उनका यह अंदेशा भविष्य में सच साबित हो, लेकिन हालिया चुनावी मौसम के दौरान घटी कुछ घटनाओं में ऐसा होने के साफ संकेत नजर आ चुके हैं. बीते दिनों उत्तर प्रदेश की अलग-अलग जगहों पर भाजपा और समाजवादी पार्टी के नेताओं अमित शाह और आजम खान ने धर्म विशेष के प्रति राग-द्वेष पैदा करने वाली बयानबाजी करके जहां ‘देश को पंथ से पहले’ रखने के विचार को उलट दिया, वहीं महाराष्ट्र में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को दो-दो बार वोट डालने का नुस्खा सिखा कर केंद्रीय मंत्री शरद पवार ने ‘एक व्यक्ति – एक वोट’ के सिद्धांत को भी आंखें दिखा दी. इन घटनाओं के बीच बीते 14 अप्रैल को बाबा साहब की 123 वीं जयंती भी मनाई गई.
इस बीच केंद्रीय चुनाव आयोग ने आचार संहिता के उल्लंघन वाले इन मामलों का संज्ञान ले कर आजम खान और अमित शाह की चुनावी रैलियों पर प्रतिबंध लगाने के साथ ही उन पर मुकदमा दर्ज करने के आदेश जारी कर दिए. इससे पहले चुनाव आयोग शरद पवार को भी नोटिस भेज चुका था. लेकिन जब तक इन कदमों को लेकर उसकी सराहना होती, भाजपा और समाजवादी पार्टी ने उस पर सवाल उठा दिए. अपने-अपने नेताओं को निर्दोष बताते हुए दोनों ही पार्टियां आयोग की कार्रवाई को गलत बताने में लग गई. भारतीय जनता पार्टी ने अमित शाह के खिलाफ आयोग के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया और आयोग के फैसले के खिलाफ अदालत जाने समेत सभी विकल्पों पर विचार करने की बात भी कही. बाद में शाह के गलती मान लेने के बाद आयोग ने उन पर लगाया प्रतिबंध हटा दिया.
अभी आजम के साथ ऐसा नहीं हुआ है क्योंकि वे अपनी गलती मानने को तैयार नहीं हैं और उलटे आयोग को तरह-तरह से दोषी ठहराने में लगे हुए हैं. इसमें उनका साथ सपा के तमाम अन्य नेता भी समय-समय पर दे रहे हैं. आयोग के फैसले को गलत बताते हुए पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव का चेतावनी-भरे अंदाज में कहना था, ‘आयोग के रवैये से उनकी पार्टी का हर कार्यकर्ता आजम खान बन जाएगा. ऐसे में चुनाव आयोग किस-किस पर कार्रवाई करेगा?’ इस पूरे घटनाक्रम के बीच मामला तब और खतरनाक हो गया जब आजम ने आयोग पर केंद्र सरकार का मुलाजिम होने तक का आरोप लगा दिया. बकौल आजम, ‘चुनाव आयोग भी सीबीआई की तरह केंद्र के इशारे पर काम कर रहा है.’ लेकिन अपनी इतनी आलोचना और आरोपों पर कोई और कदम उठाने की बजाय आयोग चुप्पी साधे हुए है..
इस सबके बीच एक और घटना का जिक्र किया जाना बेहद जरूरी है. यह घटना शरद पवार को भेजे गए उस नोटिस से संबंधित है जो उन्हें अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से दो-दो बार वोट डालने की बात कहने के चलते आयोग ने भेजा था. भारतीय दंड संहिता की धारा 171 D के तहत दो-दो बार वोट देना तथा ऐसा करने के लिए किसी को प्रेरित करना दोनों ही अपराध हैं. इस मामले के सामने आने पर शरद पवार ने इसे मजाक में कही हुई बात बताया और आयोग को जवाब भेज कर इस पर खेद जता दिया. पवार के इस जवाब से चुनाव आयोग संतुष्ट नहीं था, बावजूद इसके उसने इस मामले का पटाक्षेप कर दिया. शरद पवार को भेजे गए आदेश में आयोग ने लिखा, ‘हालांकि आयोग आपके जवाब से संतुष्ठ नहीं है, फिर भी आपके द्वारा खेद जताने के बाद मामले को समाप्त किया जाता है.’ आयोग ने शरद पवार को अनुभवी नेता होने की दुहाई देकर भविष्य में ऐसा न करने की सलाह भी दी. लेकिन अगर आयोग शरद पवार के जवाब से संतुष्ट नहीं था तो फिर उसने मामले को खत्म क्यों किया ?
आचार संहिता से जुड़े मामलों पर स्पष्टीकरण और जानकारी के लिए चुनाव आयोग के अधिकारियों से बात करने की कई निष्फल कोशिशों के बाद तहलका ने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल किया. हमने यह जानने की कोशिश की कि संहिता के उल्लंघन की ज्यादातर शिकायतों पर आयोग आखिर कैसी कार्रवाइयां करता है. सूचना के अधिकार तथा अन्य स्रोतों से भी जुटाई गई जानकारियां बताती हैं कि आचार संहिता के उल्लंघन संबंधी ज्यादातर मामलों को चुनाव आयोग पवार की तरह संतोषजनक जवाब न मिलने के बावजूद उनके मामले की तरह ही निपटाता है. तहलका के पास ऐसे मामलों की अच्छी-खासी फेहरिस्त है जो भड़काऊ भाषण देने, धार्मिक आयोजनों में सरेआम नोट बांटने, आचार संहिता के बावजूद नई योजनाओं की घोषणा करने और पेड न्यूज से संबंधित हैं. लेकिन इन सभी मामलों का हश्र लगभग एक जैसा ही रहा.
सूचना के अधिकार के तहत तहलका ने चुनाव आयोग से पूछा कि 2012 में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन की उसे कितनी शिकायतें मिलीं. बेहद जटिल हिंदी में आयोग की तरफ से मिले जवाब का मजमून यह था कि इस तरह की शिकायतों को संकलित करना संभव नहीं है. जब चुनाव आयोग से यह पूछा गया कि इन शिकायतों पर उसने क्या कार्रवाई की तो भी आयोग ने यही जवाब दिया कि न तो उसके पास इसका पूरा ब्यौरा रहता है और न ही ऐसा किया जाना संभव है.
इसके बाद तहलका ने सवाल किया कि आयोग इतना ही बता दे कि आचार संहिता का उल्लंघन करने की शिकायत मिलने पर वह क्या कार्रवाई कर सकता है. इस सवाल का जवाब आया कि ऐसे मामलों में आयोग नोटिस देने और दोषी पाए जाने पर चेतावनी जारी करता है.
आयोग से मिले इन जवाबों के बाद हमने उसके प्रकाश में आए नवीनतम दस मामलों में की गई कार्रवाइयों का व्यौरा मांगा. इस पर आयोग ने जो जानकारी दी उनमें दोषी पाए जाने पर सबसे बड़ी कार्रवाई चेतावनी थी. इन दस मामलों में से सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर बैठे दो लोगों के मामले दिलचस्प हैं:
पिछले साल त्रिपुरा विधान सभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग नें प्रदेश के मुख्यमंत्री माणिक सरकार को आचार संहिता का उल्लंघन करने पर नोटिस भेजा. प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने निर्वाचन आयोग को दी गई एक शिकायत में आरोप लगाया था कि उन्होंने चुनाव आचार संहिता के दौरान मुख्यमंत्री कार्यालय में एक स्थानीय टेलीवीजन चैनल को इंटरव्यू दिया जिसके जरिए उन्होंने राजनीतिक बयानबाजी की और अपनी सरकार की प्रशंसा की. आदर्श आचार संहिता के मुताबिक आचार संहिता की समयावधि में राजनीतिक उद्देश्य से सरकारी मशीनरी का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए. सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी बताती है कि आयोग ने इसे आचार संहिता का उल्लंघन माना था. लेकिन कार्रवाई के नाम पर उसने बस इतना किया कि माणिक सरकार को सरकारी मशीनरी का दोबारा दुरुपयोग न करने की चेतावनी देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली.
दूसरा मामला भी 2013 में ही हुए कर्नाटक विधानसभा चुनावों का है. एक चुनावी रैली में प्रदेश के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री केएस ईश्वरप्पा ने एक समुदाय विशेष के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करते हुए भाषण दिया. इस भाषण पर चुनाव आयोग ने उन्हें 12 अप्रैल, 2013 को नोटिस भेज कर ‘जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और ‘भारतीय दंड संहिता’ की धारा 505 के उल्लंघन के लिए जवाब मांगा. आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक आयोग मान चुका था कि ईश्वरप्पा का बयान आचार संहिता के उल्लंघन के साथ ही सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने वाला और नागरिकों के विभिन्न वर्गों में वैमनस्य को बढ़ावा देने वाला था. आईपीसी की धारा 505 के तहत अपराधी पाए जाने पर तीन साल तक कैद हो सकती है. लेकिन 23 अप्रैल को दिए अपने फैसले में आयोग ने ईश्वरप्पा को सिर्फ फटकार लगाई और भविष्य में सावधानी बरतने की नसीहत देकर मामले को खत्म कर दिया.
साफ है कि आचार संहिता के उल्लंघन के बाद आयोग की कार्रवाई नोटिस देने, अफसोस जताने और भविष्य में ऐसा न करने की नसीहत वाले तयशुदा खांचे में ही बंधी हुई है. लेकिन क्या यह तरीका वाकई में असरकार है?
इस सवाल के जवाब के लिए हम एक और बड़े नेता से जुड़ा मामला देखते हैं. हाल ही में केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ उत्तर प्रदेश की एक चुनावी रैली में अशोभनीय टिप्पणी की थी, जिस पर उन्हें नोटिस भेजा जा चुका है. इन्हीं बेनी बाबू को दो साल पहले भी आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप में आयोग ने तलब किया था. 2012 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान बेनी बाबू ने एक चुनावी सभा में कहा कि यदि प्रदेश में उनकी पार्टी की सरकार आई तो मुसलमानों को दिए जाने वाले आरक्षण में बढोतरी की जाएगी. बेनी प्रसाद ने तब यह भी कहा कि चुनाव आयोग चाहे तो उन्हें इस बात के लिए नोटिस दे सकता है. इस तरह देखें तो उन्होंने आचार संहिता का उल्लंघन तो किया ही था साथ ही चुनाव आयोग को खुलेआम चुनौती भी दी थी. बाद में बेनी प्रसाद वर्मा ने चुनाव आयोग के नोटिस के जवाब में अफसोस जताने के उसी कुख्यात तरीके का सहारा लिया, जिसके बाद चुनाव आयोग ने उन्हें भविष्य में ऐसा नहीं करने की सलाह देकर छोड़ दिया.
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क्या है आदर्श चुनाव आचार संहिता ?
आदर्श चुनाव आचार संहिता यानी वे नियम जिनका पालन उम्मीदवारों और उनकी पार्टियों के लिए चुनाव के दौरान करना जरूरी है. इन नियमों को राजनीतिक दलों के साथ समन्वय और उनकी सहमति के साथ ही बनाया गया है, ताकि चुनाव के दौरान पारदर्शिता होने के साथ ही सभी राजनीतिक दलों के लिए समान अवसर प्रदान किए जा सकें. चुनाव की तारीखों के एलान के साथ ही संबंधित राज्य में चुनाव आचार संहिता भी लागू हो जाती है और सभी सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक निर्वाचन आयोग के कर्मचारी बन जाते हैं. आचार संहिता की मुख्य बातें :
- कोई भी राजनीतिक पार्टी या प्रत्याशी ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे अलग-अलग समुदायों के बीच वैमनस्य की भावना को बढ़ावा मिले.
राजनीतिक पार्टी या प्रत्याशियों पर निजी हमले नहीं किए जा जाने चाहिए, हालांकि उनकी नीतिगत आलोचना की जा सकती है. - चुनाव प्रचार के लिए धार्मिक स्थलों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. साथ ही वोट हासिल करने के लिए जाति या धर्म आधारित अपील नहीं की जा सकती.
- मतदाताओं को किसी भी प्रकार के प्रलोभन या किसी धमकी के जरिए वोट देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है.
- मतदान से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार संबंधी किसी भी तरह की सार्वजनिक रैली और बैठक प्रतिबंधित है.
- मतदान के दिन मतदान केंद्र के 100 मीटर के दायरे में चुनाव प्रचार नहीं किया जा सकता.
- प्रत्याशी या राजनीतिक दल मतदान केंद्रों पर वोटरों को लाने लेजाने के लिए वाहन मुहैया नहीं करा सकते.
- चुनाव प्रचार के दौरान आम लोगों की निजता या व्यक्तित्व का सम्मान होना चाहिए.
- प्रत्याशी या राजनीतिक दल किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति का इस्तेमाल उसकी इजाजत के बिना नहीं कर सकते.
- राजनीतिक पार्टियों को सुनिश्चित करना जरूरी है कि उनके कार्यकर्ता दूसरी राजनीतिक पार्टियों की रैली आथवा सभाओं में किसी भी तरह से बाधा नहीं डालेंगे.
- राजनीतिक पार्टी या प्रत्याशी को रैली, जुलूस अथवा मीटिंग करने से पहले स्थानीय पुलिस को जानकारी देकर प्रस्तावित कार्यक्रम का समय और स्थान बताना होगा.
- किसी इलाके में निषेधाज्ञा लागू होने पर इससे छूट पाने के लिए प्रशासन की अनुमति जरूरी होगी.
- किसी भी स्थिति में पुतला जलाने की इजाजत नहीं होगी
सत्ताधारी पार्टी के लिए दिशानिर्देश
- चुनाव की घोषणा होने के बाद संबंधित सरकार आदर्श चुनाव आचार संहिता के दायरे में आ जाएगी.
- इस दौरान प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री कोई भी नई घोषणा नहीं कर सकते.
- सरकारी दौरों को चुनाव प्रचार के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.
- चुनाव प्रचार के लिए सरकारी धन का इस्तेमाल नहीं हो सकता.
- सरकारी मशीनरी, सरकारी वाहन, सरकारी आवास तथा अन्य सुविधाओं का इस्तेमाल चुनाव संबंधी गतिविधियों के लिए प्रतिबंधित है.
- चुनाव आचार संहिता के दौरान सरकार कैबिनेट की बैठक नहीं कर सकती.
- अधिकारियों, कर्मचारियों के तबादले और तैनाती संबंधी मामलों में चुनाव आयोग की अनुमति ली जानी अनिवार्य है.
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बेनी बाबू जैसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं जिनमें एक ही व्यक्ति अलग-अलग चुनावों में अलग-अलग तरीके से आचार संहिता का उल्लंघन करता है मगर चुनाव आयोग हर बार उससे निपटने का एक ही तरीका अपनाता है नोटिस देना, जवाब लेना और दोषी पाए जाने पर चेतावनी देना. इसका मतलब साफ है कि आचार संहिता के उल्लंघन वाले मामलों को निपटाने का यह ‘नोटिसछाप’ फार्मेट कहीं से भी कारगर नहीं है. ऐसे में सवाल उठता है कि जब मामला ढाक के तीन पात जैसा ही होना है तो फिर चुनाव आयोग नियमतोड़ू राजनेताओं के खिलाफ नोटिस देने से आगे कोई कदम क्यों नहीं उठाता?
संविधान के अनुच्छेद 324 के मुताबिक चुनाव आयोग को देश में चुनाव प्रक्रिया के संचालन संबंधी जितने भी अधिकार प्राप्त हैं वे सभी पारदर्शी ढंग से चुनाव संपन्न कराने के लिए हैं, ताकि देश का संचालन धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक और लोकतांत्रिक ढांचे के अनुरूप हो सके. लेकिन असलियत यह है कि चुनाव प्रक्रिया के जटिल दौर में इन ढाचों को तोड़ने-मरोड़ने वाली ताकतों से निपटने के लिए आयोग के हाथ में कुछ भी नहीं है. नेशनल इलैक्शन वाच के संस्थापक सदस्य प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री बताते हैं, ‘भले ही कितना ही गंभीर मामला क्यों न हो, चुनाव आयोग आचार संहिता के उल्लंघन की स्थिति में संबंधित व्यक्ति अथवा पार्टी को नोटिस देने और दोषी पाए जाने की स्थिति में फटकार लगाने के सिवाय कुछ नहीं कर सकता. रिप्रजेंटेशन आफ पीपुल एक्ट 1951 में भी आयोग को ऐसा अधिकार नहीं मिला है कि वो आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों का नामांकन रद्द कर सके. उसके पास इतना ही अधिकार है कि वो चुनावों को लेकर बनाई गई व्यवस्था का जहां तक संभव हो सके पालन कराए.’
जिस रिप्रजेंटेशन आफ पीपुल एक्ट 1951 की बात प्रोफेसर शास्त्री कर रहे हैं उसमें चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर सजाओं के संबंध में आयोग को जो अधिकार दिए गए हैं वे बेहद सीमित हैं. इस एक्ट के आधार पर चुनाव आयोग आचार संहिता तोड़ने वालों के अपराध को श्रेणीबद्ध तो कर सकता है, लेकिन उन्हें दंडित करने का अधिकार सिर्फ अदालत के पास ही है. ऐसे में आदर्श चुनाव आचार संहिता की उपयोगिता और प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़ा हो जाता है.
यह सवाल इस लिए भी सोचने योग्य है कि आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद देश में आचार संहिता के उल्लंघन के मामले रुक नहीं रहे हैं. 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में ही आचार संहिता के उल्लंघन की साढे सात लाख से अधिक शिकायतें पाई गई थी. इस बार के लोकसभा चुनाव की बात करें तो अब तक चुनाव आयोग आजम खान, अमित शाह और बेनी प्रसाद वर्मा से लेकर कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित और सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव जैसे बड़े नेताओं को कारण बताओ नोटिस थमा चुका है. यह रफ्तार बताती है कि आचार संहिता की धज्जियां उड़ाने में नेताओं को कोई खतरा नहीं दिख रहा है.
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) डॉ एस वाई कुरैशी इस मसले को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि, ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता कोई कानून नहीं है. यह आयोग द्वारा बनाई गई ऐसी नैतिक व्यवस्था है जिसके जरिए राजनीतिक दलों से अपेक्षा की जाती है कि चुनाव प्रक्रिया को साफ सुधरा बनाने में वे आयोग की मदद करें. यही वजह है कि आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में आयोग के अधिकार नोटिस देने और चेतावनी जारी करने तक सिमट जाते हैं.’
क्या सीमित अधिकार की यह दुहाई चुनाव आयोग की लाचारी को नहीं दिखाती? अगर आयोग के पास अधिकार ही नहीं हैं तो फिर उसके द्वारा दिए जाने वाले नोटिस और चेतावनियों का क्या औचित्य है? यह सवाल इस लिए भी लाजिमी है कि आयोग द्वारा खींची गयी आचार संहिता की लगभग सभी लकीरें चुनावों के दौरान तोड़ी जाती रहीं हैं जिसके परिणाममस्वरुप नियम तोडने वाले शख्स को फौरी लाभ मिल जाता है. इस तरह की करतूतों में भड़काऊ भाषण देने, सार्वजनिक मंचों से पैसा बांटने, नई योजनाओं की घोषणा करने और धारा 144 के उल्लंघन से लेकर निर्धारित राशि से ज्यादा धन खर्च करने तक के मामले शामिल हैं.
निर्धारित राशि से ज्यादा धन खर्च करने का एक मामला तो पिछले साल काफी गरमाया भी था. यह मामला लोकसभा में विपक्ष के उपनेता और भाजपाई सांसद गोपीनाथ मुंडे के उस बयान से उपजा जिसमें उन्होंने दावा किया कि 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने चुनाव प्रचार पर आठ करोड़ रुपये खर्च किए थे. आदर्श चुनाव आचार संहिता कहती है कि कोई भी प्रत्याशी चुनाव आयोग द्वारा तय की गई राशि – जो 2009 में 25 लाख थी – से अधिक धन खर्च नहीं कर सकता है.
चुनाव आचार संहिता के दौरान नई योजनाओं की घोषणा करने का एक मामला पिछले साल तमिलनाडु की एक विधानसभा सीट पर उपचुनाव के दौरान भी सामने आ चुका है. दरअसल यहां अपनी पार्टी के प्रत्याशी का प्रचार करने पहुंची जयललिता ने आचार संहिता लगी होने के बावजूद इलाके के स्कूल और अस्पताल के उच्चीकरण करने समेत और भी कुछ नई घोषणाएं कर दी. आयोग के पास इस मामले की शिकायत पहुंची जिसे उसने सही पाया और जयललिता को नोटिस भेज दिया. लेकिन आयोग को भेजे अपने जवाब में जयललिता ने ऐसी किसी भी नई घोषणा करने की बात से इंकार कर दिया. उनका कहना था कि उन्होंने पुरानी घोषणाओं को दोहराने के साथ ही नई बातों को लेकर सिर्फ आश्वासन दिए थे. जयललिता के इस जवाब से असंतुष्ठ होते हुए भी आयोग के पास उन्हें भविष्य में ऐसा न करने की नसीहत देने के सिवा कोई और चारा नहीं था.
सवाल फिर से वही खड़ा हो जाता है कि यदि ऐसा है तो आचार संहिता की जरूरत ही क्या है. प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं कि, ‘चुनाव आयोग अगर आचार संहिता के उल्लंघन संबंधी मामलों का संज्ञान लेना और नोटिस देना भी बंद कर दे तो चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारणों की बाढ़ आ जाएगी. कम से कम आचार संहिता के होने से ऐसे मामलों में अंकुश तो लगाया ही जा सकता है.’
‘इस बात से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि सीमित शक्ति के बावजूद चुनाव आयोग ने काफी हद तक आचार संहिता के उल्लंघन वाले मामलों को नियंत्रित करने का काम किया है.’ इस बात से सहमति जताते हुए डा. कुरैशी कहते हैं, ‘सब कुछ नहीं से कुछ तो सही वाली स्थितियां है जिन्हें चुनाव सुधारों के जरिए ही ठीक किया जा सकता है.’
चुनाव सुधारों की जिस जरूरत की ओर कुरैशी का इशारा है, उस पर एक नजर डाले बिना यह कथा अधूरी होगी.
दरअसल चुनाव सुधार कोई आज का मुद्दा नहीं है. सामाजिक और राजनीतिक मोर्चों पर चुनाव सुधार की मांगें वर्षों से उठती आई हैं. 90 के दशक के बाद आयोग ने इस दिशा में गंभीरता से विचार करना शुरू किया हालांकि चुनाव सुधारों को लेकर आयोग ने कानून मंत्रालय के सामने पहला प्रस्ताव 1970 में ही रख दिया था. इसके बाद 1975 में आठ राजनीतिक दलों ने भी मिल कर एक साझा प्रस्ताव सरकार के सामने रखा था. इसके बाद 1977 और 1982 में फिर से चुनाव आयोग ने सरकारों को चुनाव सुधारों से संबंधित प्रस्ताव भेजे.
इस तरह देखा जाए तो चुनाव आयोग लगातार सरकार को अपनी तरफ से चुनाव सुधारों की याद दिला रहा था, लेकिन सरकार इन पर आंखें मूंदे रही. 1990 में चुनाव आयोग ने इस मसले पर अपने तेवरों में कड़कपन लाना शुरू कर दिया. इसका असर यह हुआ कि सरकार ने पहली बार तब के कानून मंत्री दिनेश गोस्वामी की अध्यक्षता में एक समिति बना दी. समिति के गठन के दो साल बाद 1992 में तब के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव को एक पत्र लिखकर गोस्वामी समिति की रिपोर्ट लागू करने की सिफारिश की. ऐसा करने के बजाय सरकार ने अगले साल वोहरा समिति और फिर 1998 में इंद्रजीत गुप्त समिति बना दी. इन दोनों समितियों ने भी चुनाव व्यवस्था में सुधार के लिए कई महत्त्वपूर्ण सिफारिशें की जिन पर धूल की मोटी परत जम चुकी है.
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एक ही पाले में राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी
वैसे भले ही वे विपरीत ध्रुवों पर हों, लेकिन आचार संहिता के उल्लंघन की बात हो तो भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और कांग्रेस की नैय्या के खिवैय्या राहुल गांधी एक ही पाले में खड़े नजर आते हैं. दोनों के खिलाफ आयोग की कवायद भी एक जैसी ही रस्मअदायगी वाली रही है.
बात पिछले साल छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के दौरान की है. एक चुनावी रैली में पहुंचे नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कांग्रेस पार्टी की आलोचना करते हुए ‘खूनी पंजा’ शब्द का प्रयोग किया. इसे आचार संहिता का उल्लंघन मानते हुए चुनाव आयोग ने उन्हें नोटिस थमा दिया. आयोग के नोटिस के जवाब में मोदी की सफाई थी कि उन्होंने प्रचलित मुहावरे के अनुरूप इस तरह के शब्दों का प्रयोग किया था. मोदी के इस जवाब के बाद आयोग ने उन्हें दुबारा ऐसा न करने की सलाह देकर इस मामले को निपटा दिया.
इसी दौरान मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी एक चुनावी रैली में इंदौर पहुंचे. अपने भाषण में मुजफ्फरनगर दंगों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उन दंगों से प्रभावित कुछ मुस्लिम युवाओं को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी बरगलाने की कोशिश कर रही हैं. इस बयान से पूरे देश में बवाल मच गया. भाजपा ने राहुल गांधी पर धार्मिक सौहार्द बिगाड़ने का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग से शिकायत की. आयोग ने उन्हें नोटिस भेज जवाब मांगा. जवाब में राहुल ने कहा कि उन्होंने जो कुछ बातें कहीं वे धार्मिक आधार पर बंटवारे के लिए नहीं बल्कि आपसी सौहार्द बढ़ाने के लिए थी. उनके इस जवाब से चुनाव आयोग संतुष्ठ नहीं हुआ और उसने उन्हें आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी मानते हुए भविष्य में संयत रहने की चेतावनी दी.
इन दोनों ही मामलों में एक बात बेहद महत्वपूर्ण यह है कि दोनों ही नेताओं को आयोग ने अपना जवाब सौंपने के लिए पहले तय किए गए वक्त से ज्यादा मोहलत दी थी. मोदी ने चुनाव प्रचार में व्यस्त होने की दलील दी थी तो वहीं राहुल गांधी का तर्क था कि छुट्टियों के चलते वे जवाब देने के विए और वक्त चाहते हैं. जिस उदारता की बात उपर की गई है ये घटनाएं उसकी तरफ साफ इशारा करती हैं.
इससे पहले 2012 में भी राहुल गांधी कानपुर में आचार संहिता का खुलेआम उल्लंघन कर चुके थे. तब उन्होंने प्रशासन द्वारा तय की गई दूरी से बहुत आगे तक रोड शो किया था. चुनाव आयोग तक शिकायत पहुंचने के बाद कानपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी हरिओम ने राहुल गांधी के अलावा इस रोड शो के आयोजक कांग्रेसी नेता महेश दीक्षित पर भी धारा 144 का उलंलंघन करने के चलते मामला दर्ज किया. लेकिन ऐसा होते ही पूरी कांग्रेस आयोग के खिलाफ जहर उगलने लगी थी. पार्टीनेता और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने तब आयोग को सीधी चुनौती देते हुए यहां तक कह दिया कि, ‘आयोग में अगर हिम्मत है तो उनके खिलाफ भी कार्रवाई करके दिखाए, क्योंकि राहुल गांधी को इस रोड शो में मैं ही लेकर गया था.’ चुनाव आयोग को खुलेआम चेतावनी देने वाले वे अकेले नेता नहीं हैं. उनसे पहले भी दो और केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद तथा बेनी प्रसाद वर्मा इसी तरह आयोग को ललकार चुके थे. 2007 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी आचार संहिता उल्लंघन के दोषी करार दिए जाने के बावजूद आयोग ने चेतावनी देकर छोड़ दिया था. सवाल स्वाभाविक है कि आयोग को इस कदर खुले आम आंख दिखाने वालों के खिलाफ वह कुछ करता क्यों नहीं.
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अप्रैल 2012 में तत्कालीन सीईसी एसवाई कुरैशी ने चुनाव सुधारों को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक कड़ा पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने और चुनाव में धनबल की भूमिका पर डंडा चलाने का खास तौर पर जिक्र किया गया था. उन्होंने पत्र में एक समाचार पत्रिका में छपी रिपोर्ट का हवाला भी दिया जिसके मुताबिक 2004 से 2009 के दौरान लोकसभा की चर्चा में शरीक होने वाले सांसदों की संख्या मात्र 174 थी. कुरैशी ने पत्र में लिखा कि, ‘हमें कुछ जिम्मेदार प्रतिनिधि चाहिए जिसके लिए चुनाव सुधार बेहद जरूरी हैं.’ उन्होंने पत्र में यह भी लिखा कि आयोग द्वारा भेजे गए बहुत से सुझावों को बिना संविधान संशोधन के ही लागू किया जा सकता है.
इस सबके बाद भी हुआ कुछ नहीं. यहां पर एक और गौर करने वाला तथ्य यह भी है कि चुनाव आयोग इससे पहले 1998 से लेकर 2006 तक चार बार सरकार से इसी तरह की मांग कर चुका है. सरकार के रवैये से दुखी कुरैशी कहते हैं, ‘बहुत हैरानी की बात है कि चुनाव सुधारों को लेकर इतनी उदासीनता क्यों है. दो दशक से सरकार के पास दो दर्जन से अधिक सुझाव पड़े हैं, लेकिन इनको लागू करने के बजाय सरकार आम सहमति नहीं बन पाने का बहाना बना कर हर बार चुनाव सुधारों से भाग रही है.’
राजनीतिक दलों के बीच रायशुमारी नहीं होने की जिस बात को सरकार कह रही है, क्या वाकई में चुनाव सुधारों में हो रही देरी का असली कारण यही है. यह जानने के लिए इस कथा को एक दूसरे घटना क्रम की तरफ मोड़ते हैं.
बात पिछले साल मई की है. चुनाव सुधार को लेकर राजनीतिक दलों की राय जानने के लिए विधि आयोग ने देश की सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को पत्र भेज कर उनके सुझाव मांगे थे. लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कर्नाटक के एक राजनीतिक दल वेल्फेयर पार्टी ऑफ इंडिया के अलावा किसी भी पार्टी ने कोई सुझाव देने की जहमत नहीं उठाई. हैरानी की एक बात और भी यह थी कि संसद के सभी सांसदों में से सिर्फ आठ ने ही सुधारों को लेकर अपने सुझाव आयोग को भेजे. राजनीतिक दलों के इस उदासीन रवैये पर बीते दिनों विधि आयोग के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश अजित प्रकाश शाह ने भारी निराशा भी जताई थी.
तो क्या अब भी यह माना जाना चीहिए कि चुनाव सुधारों को लेकर राजनीतिक दलों में आम राय नहीं है? इस पर चुटकी लेते हुए कुरैशी का कहना था, ‘चुनाव सुधारों को लेकर भले ही इनके बीच आम राय न बन रही हो, लेकिन इस बात पर तो सभी पार्टियां एक मत हैं कि किसी भी सूरत में चुनाव सुधार के लिए सुझाव नहीं सौंपेंगे.’
चुनाव आयोग द्वारा सरकार को सौंपे गए चुनाव सुधारों की सूची देखे जाने पर मालूम पड़ता है कि इनमें से बहुत सारे सुधार वर्तमान परिस्थितियों में सख्त जरूरत बनते जा रहे हैं. जानकारों का मानना है कि इन सुधारों के जरिये देश में साफसुथरी राजनीति की स्थापना करने में बड़ी मदद मिल सकती है. पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता के सुझाव का जिक्र किया जाना यहां पर बेहद प्रासंगिक है. आयोग का मानना है कि राजनीतिक पार्टियों को मिल रहे धन के स्रोत सार्वजनिक होने चाहिए ताकि यह पता लगाया जा सके कि उन्हें मिलने वाला पैसा काला धन तो नहीं. लेकिन इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने के बजाय सभी राजनीतिक दल इस बात के जिक्र तक से नाराज दिखते हैं.
केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में लाने के फैसले पर उनकी नाराजगी इसका सटीक प्रमाण है. पिछले साल सूचना आयोग ने एक अपील पर सुनवाई करते हुए फैसला दिया कि छह राष्ट्रीय पार्टियां – कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, एनसीपी और बसपा – आरटीआई एक्ट की धारा 2 के तहत सार्वजनिक इकाइयां हैं. इस आदेश का उद्देश्य राजनीतिक दलों को मिलने वाले अनुदान के स्रोतों का पता लगाना था. लेकिन इस आदेश के आते ही ज्यादातर पार्टियां नाराज हो गई और एकजुट होकर इसकी जबर्दस्त मुखालफत करने लगीं. इस फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए सरकार ने संसद में एक संशोधन प्रस्ताव भी पेश किया. हालांकि यह बिल संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया है, लेकिन इसने राजनीतिक दलों की मंशा की ओर तो इशारा किया ही है. प्रोफेसर त्रिलोचन शास्त्री कहते हैं ‘राजनीतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि उनके आय के स्रोत सार्वजनिक हों.’
लेकिन यहां पर यह सवाल तब भी उठता है कि अगर राजनीतिक दल चुनाव सुधारों को लेकर आगे भी गंभीर नहीं होते हैं, तो क्या चुनाव आयोग को भी हाथ-पैर चलाना बंद कर देना चाहिए?
‘बेशक चुनाव सुधारों को लेकर कानून बनाने का काम संसद का है, लेकिन वहां ऐसे लोगों और दलों की अधिकता है जो चुनाव प्रक्रिया की खामियों को लेकर ही आगे बढ रहे हैं. ऐसे में आयोग को इस लिए दोष दिया जाना चाहिए कि उसने इन खामियों को दूर करने के लिए सुझाव तो दिए लेकिन उन सुझावों को लागू करवाने के लिए जिद नहीं पकड़ी. ‘ समाजशास्त्री तथा अब आम आदमी पार्टी के नेता प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं, ‘चुनाव आयुक्तों को चाहिए कि वे इस संस्था को और मजबूती देने वाले अधिकारों की मांग को लेकर और गंभीरता दिखाएं वरना लोग सीबीआई की तरह चुनाव आयोग को भी सरकार का टूल कहने लगेंगे.’ आजम खान द्वारा आयोग पर लगाये हालिया आरोप के संदर्भ में देखा जाए तो इन आशंकाओं का ट्रेलर अभी से दिखाने लगा है.
हालांकि आईआईएम के पूर्व प्रोफेसर तथा एडीआर के सदस्य जगदीप छोकर इसके लिए चुनाव आयोग को पूरी तरह दोष देने से इनकार करते हैं. आयोग के अब तक के रवैये को सकारात्मक बताते हुए वे कहते हैं कि, ‘वर्तमान परिस्थियों में जिस तरह सीमित अधिकारों के सहारे चुनाव आयोग अपना काम कर रहा है वह सराहनीय है. लेकिन यह बात भी उतनी ही जरूरी है कि अगर वह अपनी तरफ से अतिरिक्त प्रयास ना करे तो सरकार से सुधारों की उम्मीद करना दिवास्वप्न देखने जैसा ही होगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘ऐसी सूरत में न्यायपालिका का विकल्प भी है लेकिन उसपर निर्भरता बढने से आयोग की खुद की क्षमताओं पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो जाएंगे.’
प्रोफेसर छोकर की कही बात के उदाहरण हम हाल ही में देख चुके हैं. पिछले साल चुनाव सुधारों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने सभी प्रत्याशियों को खारिज करने (‘इनमें से कोई नहीं’) और सजायाफ्ता लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने संबंधी दो महत्वपूर्ण फैसले सुनाए. इन दोनों ही मुद्दों को बहुत पहले से ही चुनाव सुधारों की सूची में डाल कर आयोग सरकार की हां की बाट जोहता आ रहा था. दागी नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का सुझाव उसने 1989 में ही दे दिया था जबकि नकारात्मक मतदान के अधिकार का सुझाव उसने 2001 में सरकार को सुझाया था. लेकिन सरकार ने इन्हें कभी कोल्ड स्टोर से बाहर ही नहीं निकाला. चुनाव आयोग इसके बाद चुप बैठ गया. बाद में भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाने वाले कुछ सामाजिक संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों फैसले सुनाए.
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धूल फांकते सुझाव
- राजनीति का अपराधीकरण रोकना- 15 जुलाई 1998 को चुनाव आयोग द्वारा सरकार को एक प्रस्ताव भेजा गया जिसके तहत ऐसे लोगों पर चुनाव लड़ने से रोक का प्रस्ताव दिया गया था जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हों.1999, 2004 और 2006 में आयोग ने सरकार को इस बाबत फिर से याद दिलाई.
- राजनीतिक दलों के लिए पारदर्शी कार्यप्रणाली – राजनीतिक दलों के कामकाज पर निगरानी रखने के लिए आयोग ने एक प्रस्ताव दिया जिसके मुताबिक उनकी आय के सभी स्रोतों के साथ ही सभी खर्चों को भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए.
- चुनावी लाभ के लिए धर्म का दुरुपयोग रोकना -1994 में लोकसभा में एक विधेयक पेश किया गया था. जिसके तहत राजनीतिक दलों द्वारा धर्म के दुरुपयोग रोकने को रोके जाने के प्रावधानों को विकसित किए जाने की बात की गई. लेकिन 1996 में लोकसभा के भंग हो जाने के बाद से इस पर कोई पहल नहीं हुई. आयोग ने 2010 में प्रस्ताव दिया कि इस पर फिर से विचार किया जाना चाहिए.
- ‘पेड न्यूज’ को चुनावी अपराध घोषित करने के लिए कानून में संशोधन (2011)
- कार्यकाल समाप्त होने से छह माह पहले से ही सरकारी विज्ञापनों पर रोक (2004)
- उम्मीदवारों द्वारा झूठे शपथ पत्र के लिए सजा (2011)
- भ्रष्ट आचरण में लिप्त रहने वाले हारे हुए उम्मीदवारों के खिलाफ भी याचिका दाखिल करने का अधिकार (2009)
- चुनाव से ठीक पहले आयोग की सहमति के बिना चुनाव अधिकारियों के स्थानांतरण पर प्रतिबंध (1998) जुलाई, 2004 में आयोग ने इस बात को दोहराया.
- आरपी अधिनियम के तहत आयोग को नियम बनाने की शक्ति (1998)
- पंजीकरण रद्द करने का अधिकार- 1998 में चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार से दलों का पंजीकरण रद्द करने का अधिकार मांगा. मामला अब तक लंबित है.
- जनमत सर्वेक्षणों पर पाबंदी – इस बार लोक सभा चुनावों की घोषणा के मौके पर मुख्य निर्वाचन आयुक्त वीएस संपत का कहना था कि उन्होंने जनमत सर्वेक्षणों पर पाबंदी के अपने प्रस्ताव को एक बार फिर से कानून मंत्रालय को भेजा है. गौरतलब है कि चुनाव आयोग ने 2004 में ही जनमत सर्वेक्षणों और मतदान के बाद होने वाले सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश कर दी थी, लेकिन सरकार ने सिर्फ एग्जिट पोल पर रोक लगाना ही उचित समझा.
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इस तरह जो श्रेय आयोग के हिस्से आ सकता था वह सुप्रीम कोर्ट के खाते में जुड गया. हालांकि दागियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केंद्र सरकार ने अध्यादेशी गिद्ध-दृष्टि डाल दी थी, लेकिन जन-दबाव के चलते वह इस कदम से पीछे हट गई. कई लोगों का यह भी मानना है कि राहुल गांधी के हस्तक्षेप की वजह से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने वाला अध्यादेश नहीं आया. लेकिन उनके हस्तक्षेप के पीछे भी जनता का दबाव ही तो था.
इस आदेश के खिलाफ अध्यादेश नहीं ला पाने के जो भी कारण रहे हों, लेकिन यह साफ है कि चुनाव सुधारों को लेकर वर्तमान सरकार का रुख कतई सकारात्मक नहीं रहा.
देश की मौजूदा व्यवस्था के मुताबिक चुनाव संबंधी नियमों में सुधार अथवा संशोधन की जिम्मेदारी कानून मंत्रालय की होती है. चुनाव संचालन नियमन 1961 तथा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में फेरबदल की पहल भी कानून मंत्रालय द्वारा ही की जा सकती है. इसे लेकर चुनाव आयोग केवल अपने सुझाव ही दे सकता हैं जिसे मानना या न मानना पूरी तरह सरकार पर निर्भर करता है. लेकिन चुनाव सुधारों को लेकर सरकार द्वारा उठाए गये कदमों की पड़ताल करने पर हालिया सरकार की कुल जमा उपलब्धि इतनी ही रही है कि उसने चुनाव आयोग द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठकों में हर बार ‘पाक साफ’ काम करने का बयान दिया है. असलियत में उसका व्यवहार हमेशा इसके उलट रहा है. पिछले बीस सालों में चुनाव सुधारों को लेकर आयोग द्वारा भेजे गये सुझावों पर अमल करने के बजाय सरकार उन पर कुंडली मार कर ही बैठी है. अनिश्चतता के भंवर में हिचकोले खा रहे इन सुझावों की संख्या दो दर्जन से अधिक हो चुकी है (देखें बाक्स). लेकिन इससे भी चिंताजनक बात यह है कि सरकार ने ऐसे उपक्रम भी किये हैं जिनमें चुनाव आयोग की बची-खुची शक्तियों को पूरी तरह खत्म कर देने की साजिश भी नजर आती है. आगे बताई जा रही घटना इस का जीता जागता प्रमाण है.
2012 में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों के दौरान सियासी गलियारों से एक खबर निकली. खबर का मजमून यह था कि केंद्र सरकार आचार संहिता को कुछ इस तरह की वैधानिक शक्ल दे रही है कि इससे चुनाव आयोग के अधिकार काफी सीमित हो जाएंगे. इस पर बवाल होते ही सरकार के तीन मंत्री इसका खंडन करने में जुट गए. तत्कालीन केंद्रीय मंत्री और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी इस जमात में शामिल थे. इस बीच सितंबर 2011 का एक कैबिनेट नोट मीडिया में लीक हो गया. इस दस्तावेज ने मंत्रियों का झूठ सामने ला कर रख दिया. दस्तावेज की भाषा साफ तौर पर चुनाव आयोग के खिलाफ थी. इसके मुताबिक चुनाव आचार संहिता को विकास कार्यों की राह का स्पीड ब्रेकर बताते हुए उसे वैधानिक शक्ल देने की जरूरत पर बल दिया गया था. सरकार की इस मंशा से आगबबूला हो कर चुनाव आयोग ने तुरंत अपनी नाराजगी जाहिर की थी. तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त कुरैशी का कहना था कि आयोग सरकार के इन मंसूबों को किसी भी हाल में कामयाब नहीं होने देगा. आखिरकार आयोग के तेवरों और विपक्ष के दबाव के बाद सरकार को इस योजना को टालना पड़ा.
एक और उदाहरण है जो यह दिखाता है कि आयोग अगर अपने रवैये को लेकर सख्ती अपना ले तो वह सरकारों को अपनी बात मनवाने के लिए मजबूर कर सकता है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ उसका टकराव इसकी ताजा मिसाल है. चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान कुछ अधिकारियों के तबादलों के निर्देश दिए थे. लेकिन ममता ने ऐसा करने से इंकार करते हुए आयोग को सीधी चुनौती दे दी. गुस्साए आयोग ने जब समूचे पश्चिम बंगाल में चुनाव रद्द करने की धमकी दी तो ममता को बैक फुट पर आना पड़ा.
जानकारों की मानें तो अतीत में आयोग द्वारा जिस तरह से चुप्पीनुमा कार्यप्रणाली को अंजाम दिया जाता रहा है उससे सत्ता में बैठे लोगों को हिम्मत मिलती रही है. आयोग को चाहिए कि चुनाव सुधारों को लेकर वह अब अपनी पूरी ताकत झोंक दे. इतना साफ है कि चुनाव सुधारों को लेकर सरकार समेत राजनीतिक दल समय-समय पर भले ही अपनी प्रतिबद्धता जताते रहे हों लेकिन असलियत में चुनाव आयोग की सेंसरशिप उन्हें किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है. ऐसे में यदि चुनाव आयोग भी इसे अपनी नियति मान लेता है तो वक्त आ गया है कि उससे भी कुछ कड़े सवाल पूछ लिए जाएं.