पुस्तक मेले का मौसम बस आ ही गया है. राजधानी वाले शहरों से लेकर जिला मुख्यालयों तक के कई शहर में आयोजन शुरू होनेवाले हैं. बड़ी-बड़ी बातें कि हिंदी साहित्य की धाक तो देखिए, धमक तो देखिए…वगैरह-वगैरह. बड़ी-बड़ी चिंताएं भी कि अंगरेजी वालों ने तो यह कर दिया है हिंदी साहित्य का, वह कर दिया है हिंदी का…वगैरह-वगैरह. हिंदी में छपनेवाले लोकप्रिय लुगदी साहित्य से बचा भी जाएगा, क्योंकि उससे प्रतिष्ठा के हनन का भाव आता है. मोटे तौर पर कहें तो आत्ममुग्धता और सौतिया डाह का भाव एक साथ अगले कुछ माह तक एक-दूजे से टकराने का मौसम आ गया है. पुस्तक मेले में बननेवाले बड़े-बड़े मंचों पर और यूजीसी का फंड खत्म होने से पहले उसकी फंडेबाजी करने के लिए नवंबर-दिसंबर-जनवरी-फरवरी में सेमिनारों का पिकनिक अथवा सपरिवार अथवा सप्रेमी-सपे्रमिका सैर-सपाटा भी तो होता है. उसमें भी बड़ी-बड़ी बातें होंगी. पूर्वोत्तर के सुदूर शैक्षणिक संस्थानों से लेकर कन्याकुमारी तक के शैक्षणिक संस्थानों तक में. हिंदी का विभाग है तो भी तो प्रायः सभी विश्वविद्यालयों में और अमूमन सभी इलाके में. हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का यह एक बड़ा फायदा तो हिंदी को मिला ही है कि दे-दनादन विभाग खुले हैं और उन विभागों में प्रोफेसरों की नियुक्ति हुई है और फिर हिंदी के नाम पर सेमिनार आदि के लिए उदार मन से फंड जारी होता है, शातिर तरीके से उसकी फंडेबाजी होती है.
बहरहाल बात दूसरी. आत्ममुग्धता और सौतिया डाह के बीच असल बातों पर बात नहीं होगी. पुस्तक मेले में होनेवाले आयोजनों में हिंदी साहित्य की किताबें न बिकने का रोना तो रोया जाएगा लेकिन इसकी मूल वजह क्या है, इस पर शायद ही कोई खुलकर बोले. पाठकों को गरियाया जाएगा, थोड़ा लुका-छिपाकर प्रकाशकों को कोसा जाएगा और फिर इधर-उधर की कुछ और बातों का घालमेल कर एकरसा बातें हर मंचों पर दुहरायी जाएगी. कहा जाएगा- हिंदी का समाज मरा हुआ है, कंजूस है, संस्कृति ही नहीं है पढ़ने की. लेकिन ऐसे मंचों पर यह सवाल नहीं उठेगा कि देश के लगभग तमाम हिस्से में, तमाम विश्ववविद्यालयों में हिंदी विभाग है और लाखों की संख्या में हिंदी साहित्य पढ़नेवाले छात्र-छात्राएं हैं, हजारों की संख्या में हिंदी के प्राध्यापक-शिक्षक हैं तो फिर हिंदी साहित्य के किताबों की यह दशा क्यों है? क्यों बाजार में हजार निकल जाना ही बेस्टसेलर जैसा बना देता है. आखिर क्या कर रहे हैं हजारों की तनख्वाह लेकर देश के तमाम इलाके में पसरे हिंदी के प्राध्यापक. वे हिंदी साहित्य को लेकर कैसी चेतना विकसित कर रहे हैं अपने छात्र-छात्राओं में कि कम से कम वे भी पाठक नहीं बन पा रहे. और यह भी कि अगर हिंदी साहित्य के पाठक तक विश्वविद्यालयों के जरिये तैयार नहीं हो पा रहे तो क्या वे हिंदी साहित्य में शोध की दुनिया में कुछ नया देने में उर्जा लगाये हुए हंै, जो ऐसा नहीं कर पा रहे.
हिंदी साहित्य जगत में विश्वविद्यालयी परिसर में जो खेल चलता है, उसमें डॉ सुबादानी का कारनामा कोई इकलौता कारनामा हो,यह नहीं कहा जा सकता. वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति कहते हैं कि ऐसे-ऐसे प्राध्यापक हिंदी साहित्य में भरे हुए हैं, जिन्हें यह तक नहीं पता रहता कि आखिर हिंदी साहित्य जगत में हो क्या रहा है. वे किसी भी रचनाकार के साहित्य पर पीएचडी करवाने को तैयार हो जाते हैं और फिर खुद से रचनाकार से बात करने भी हिचक होती है तो छात्र-छात्राओं से रचनाकारों को फोन कर पूछते रहते हैं कि आपकी कोई नयी किताब आयी है क्या, फलनवा ने कुछ लिखा है क्या, हिंदी साहित्य में और क्या हुआ है नया. शिवमूर्ति कहते हैं कि दूसरी ओर विडंबना यह होती है कि जो शोध करने छात्र पहुंचे हैं, उनका स्तर यह होता है कि वे ठीक से एक आवेदन तक नहीं लिख सकते.
बहरहाल डॉ सुबादानी या मणिपुर विश्वविद्यालय के इस प्रकरण की चरचा प्रसंगवश हो गयी. यह बताने के लिए हिंदी साहित्य की पुस्तकों पर रोना रोने के मौसम में यह सब बातों पर बात नहीं होगी. हिंदी में अधिक से अधिक आयोजन हो, हिंदी के नाम पर जैसे हर साल सितंबर में सरकारी पैसे हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा आदि मनता है, वह चलता रहे, यही चिंता रहती है.
रूदन-क्रंदन से हिंदी का भला होगा, इसकी संभावना तो नहीं दिखती. आत्ममुग्ध होने से हिंदी साहित्य अपनी जड़ता को तोड़ पाएगा, इसकी संभावना भी नहीं दिखती. जड़ता को तोड़ने के लिए जड़ों को ही देखना होगा. विश्वविद्यालय में लाखों की संख्या में पढ़ रहे छात्र-छात्राओं को पहले हिंदी साहित्य से जोड़ना होगा, प्राध्यापकों को खुद हिंदी साहित्य का पाठक बनना होगा, और देश के हर विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग में बैठे डॉ सुबादानियों के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर आवाज भी बुलंद करनी होगी.