महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए शिवसेना अपने 30 साल पुराने दोस्त भाजपा का दामन छोड़, एनसीपी और कांग्रेस का दामन पकड़ रही है। शिवसेना का यह नया बेमेल दोस्ताना लोगों को हज़म नहीं हो रहा है। लेकिन बेमेल दोस्ताना शिवसेना के लिए नया नहीं है।
भाजपा और शिवसेना की ऐसी दोस्ती रही है, जिसमें दोस्ताना के साथ-साथ उनके बीच प्रतिस्पर्धा भी रही है। वैसे दोनों करीब 35 साल पहले आये थे, उस वक्त 1984 में महाराष्ट्र में भाजपा कोई बड़ी पार्टी नहीं हुआ करती थी। दोनों के बीच औपचारिक रूप से गठबन्धन ने जन्म लिया 1989 के लोक सभा चुनाव में। और यह 2014 तक चलती रही। 90 के दशक में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों ने वोटों का बँटवारा बेहद संगीन तौर पर कर दिया था। 1995 में हुए महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में इसका फायदा शिवसेना-भाजपा गठबन्धन को मिला। लेकिन उस वक्त चुनाव से पहले ही बाल ठाकरे ने फॉर्मूला तय कर दिया था कि जीतने के बाद मुख्यमंत्री का पद उसी दल को मिलेगा, जिसे ज़्यादा सीटें मिलेगी। तयशुदा वादे के मुताबिक मुख्यमंत्री शिवसेना का बना और उप मुख्यमंत्री का पद भाजपा को मिला। हालाँकि पॉवर को लेकर टशन दोनों के बीच चलती रही। उस समय शिवसेना बड़े भाई और भाजपा छोटे भाई की भूमिका में थीं। महाराष्ट्र की सत्ता पर भले ही भागीदारी की सूरत में आधिपत्य को लेकर दोनों के बीच मनमुटाव होते रहे और सुलझते भी रहे हैं। लेकिन इस दफा मामला उलझता ही चला गया। आज हैसियत के तौर पर भाजपा खुद को बड़ा भाई और शिवसेना को छोटा भाई साबित करने पर तुली हुई है।
हिंदुत्व का मुद्दा वह अहम मुद्दा है, जिसमें दोनों को अपनी-अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए भरपूर आँच मिलती रही है। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद, आर्टिकल 370, ट्रिपल तलाक, यूनिफॉर्म सिविल कोड ऐसे मसले हैं, जिनमें दोनों की सोच एक ही है और लगभग दोनों के वोट बैंक भी। लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना के पास भूमिपुत्र, मराठी अस्मिता, मराठी माणूस जैसे संवेदनशील मुद्दों के साथ-साथ शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे से भावनात्मक तौर पर जुड़े लोगों की समर्पित सेना का अतिरिक्त बल भी है। आज शिवसेना सत्ता के लिए कांग्रेस और एनसीपी के साथ एक बेमेल गठजोड़ के ज़रिये राजनीति का नया इतिहास लिख रही है। भले ही आज इस नये गठजोड़ पर लोगों की भौंहें तन रही हैैं; लेकिन समय-समय पर वक्त के मुताबिक अलग-अलग दलों के साथ गठबन्धन शिवसेना का इतिहास रहा है।
कभी राजनीति को गजकरण यानी खुजली की बीमारी कहने वाली शिवसेना के जन्मदाता कार्टूनिस्ट बाल ठाकरे ने शिवसेना को मराठी माणूस के उद्धारक के रूप में स्थापित किया। लेकिन जल्द ही वह पॉवर तथा राजनीतिक पार्टी के समीकरण को समझ गये और शिवसेना सियासी दल के तौर पर राजनीति का हिस्सा बनती चली गयी।
1967 में एसजी बर्वे जो कांग्रेस के नॉर्थ ईस्ट बम्बई से लोक सभा कैंडिडेट थे; को अपना समर्थन दिया। बर्वे, पक्के कांग्रेसी और मुम्बई के बेताज बादशाह माने-जाने वाले एस.के. पाटिल की पसन्द थे। हालाँकि एस.के. पाटिल और शिवसेना के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। मामला मराठी माणूस का था। बर्वे की जगह उस समय के पूर्व रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन चुनाव लडऩा चाहते थे, जबकि शिवसेना यह कतई नहीं चाहती थी।
1968 से 1970 तक शिवसेना, प्रजा समाजवादी पक्ष के साथ दोस्ती रही। 1968 में ही शिवसेना ने अपना पहला इलेक्शन मुम्बई महानगरपालिका के लिए लड़ा।
1972 में अंबेडकरवादी नेता लीडर आर.एस. गवई की पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के साथ शिवसेना की दोस्ती बनी। दलित पार्टियों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध की एक शुरुआत थी। इसी साल मुस्लिम लीग के समर्थन से शिवसेना बीएमसी के मेयर बने।
ऐसे वक्त में जब लगभग सभी राजनीतिक दल इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गाँधी के िखलाफ मोर्चा बाँधे हुए थे, शिवसेना साथ खड़ी थी। 1974 के लोक सभा के मध्यावधि चुनाव में कांग्रेसी लीडर रामराव आदिक को शिवसेना ने मदद की थी। 1977 में कांग्रेसी मुरली देवड़ा को मुम्बई के मेयर पोस्ट के लिए भी शिवसेना ने अपना समर्थन दिया था। 1980 में बाल ठाकरे ने ए.आर. अंतुले को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद के लिए अपना समर्थन दिया; बदले में शिवसेना को विधान परिषद् जगह मिली। वैसे कांग्रेसी अंतुले और ठाकरे के बीच अच्छी दोस्ती थी। एक ज़माने में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक और शिवसेना प्रमुख के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध जग-ज़ाहिर रहे हैं। कहा तो यहाँ तक जाता है कि मुम्बई से ट्रेड यूनियनों पर कम्युनिस्ट पार्टी का दबदबा खत्म करने के लिए शिवसेना को कांग्रेस द्वारा सुपारी दी गयी थी। हालाँकि शिवसेना ने हमेशा से इस बात को नकारा है। लेकिन शिवसेना और कांग्रेस की दोस्ती का इतिहास गवाह है।
माना जाता है कि मुम्बई महानगरपालिका चुनाव के दौरान कुछ गलतफहमी के चलते इस दोस्ती में दरार आ गयी और मुम्बई महानगर पालिका पर शिवसेना भगवा फहराने लगी। गौरतलब है 2007 राष्ट्रपति के मुद्दे पर शिवसेना ने कांग्रेस का साथ दिया था। मामला एक बार फिर मराठी माणूस का था और महाराष्ट्र की प्रतिभा ताई पाटील देश की राष्ट्रपति बनीं।