हर साल भारत से हज़ारों छात्र विदेशी विश्वद्यिालयों में पढऩे के लिए विभिन्न देशों में जाते हैं, इनमें ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा प्रमुख हैं। विदेशों में जाकर पढऩे वाले छात्रों की इच्छा पूरा करने के लिए बीते दिनों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने ऐलान किया कि वह विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कैंपस बनाने की अनुमति दे रहा है। भारत में कैंपस स्थापित करने के इच्छुक विदेशी विश्वविद्यालयों को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों का पालन करना अनिवार्य होगा। इसके पक्ष व विपक्ष में अलग से चर्चा हो रही है; लेकिन इस चर्चा के साथ यह जानना भी ज़रूरी है कि देश के स्कूलों में शिक्षा के स्तर की ज़मीनी हक़ीक़त क्या है।
हाल ही में जारी एक रिपोर्ट इस ज़मीनी हक़ीक़त से रूबरू कराती है। प्रथम फाउंडेशन नामक संगठन की एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन-2022 यानी असर रिपोर्ट बताती है कि देश के ग्रामीण इलाक़ों में कक्षा 3 और कक्षा 5 में छोटे बच्चों की बुनियादी शिक्षा एवं अंकगणितीय कौशल में गिरावट आयी है। इस रिपोर्ट के अनुसार, देश में बच्चों की पढऩे सम्बन्धी क्षमता 2012 से पहले के स्तर तक गिर गयी है, जबकि बुनियादी गणित कौशल 2018 के स्तर तक गिर गया है। यह रिपोर्ट इस पर भी रोशनी डालती है कि इन मध्यवर्ती वर्षों में जो धीमी प्रगति हुई थी, उसके उलट होने के संकेत भी मिलते हैं। सरकार के पास सन्तुष्ट होने या अपनी पीठ थपथपाने के लिए इस रिपोर्ट में एक बिंदु यह है कि स्कूलों में बच्चों की नामांकन दर में वृद्धि हुई है और वो भी सरकारी स्कूलों में।
ग़ौरतलब है कि असर-2022 रिपोर्ट जिस सर्वेक्षण पर आधारित है, उस सर्वे में देश के 616 ज़िलों के 19,060 गाँवों के सात लाख बच्चों को शामिल किया गया। सर्वे की प्रक्रिया के तहत गाँवों में घरों को आकस्मिक ढंग से चुना जाता है और चुने हुए घरों में तीन से 16 साल तक के बच्चों का सर्वे होता है। तीन से 16 साल की आयुवर्ग के बच्चों की नामांकन स्थिति और 5-16 आयु वर्ग के बच्चों के बुनियादी कौशल (पढऩा और सरल गणित) की जाँच की जाती है। वर्ष 2005 से यह प्रक्रिया जारी है; लेकिन वर्ष 2018 के बाद अब यानी चार साल बाद 2022 रिपोर्ट चालू महीने की 18 (जनवरी 2023) को जारी की गयी।
इस रिपोर्ट में वर्णित आँकड़े बताते हैं कि कोरोना महामारी की वजह से दो साल तक स्कूल बन्द रहने का असर बच्चों की पढ़ाई पर पड़ा है। यह बात दीगर है कि महामारी का स्कूलों में पढऩे आने वाले बच्चों की संख्या पर असर नहीं पड़ा है, बल्कि यह संख्या बढ़ी है। दरअसल आँकड़ों से भरपूर यह रिपोर्ट देश के शिक्षा मंत्रालय, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और निजी स्कूल संचालन सीमितियों के लिए एक आईना है। बच्चे जो किसी भी समाज व राष्ट्र के भविष्य हैं, उन्हें गुणवत्ता शिक्षा मुहैया कराना हर सरकार का दायित्व है। आँकड़ों पर निगाह डालें, तो पता चलता है कि देश के ग्रामीण इलाक़ों में सरकारी व निजी स्कूलों को मिलाकर अब 6-14 आयुवर्ग के 98.4 फ़ीसदी बच्चे स्कूल जाते हैं। पहली बार आँकड़ा 98 फ़ीसदी से ऊपर है। यानी देश में इस आयुवर्ग के दो फ़ीसदी बच्चे ऐसे हैं, जिनका स्कूल में नामांकन नहीं हुआ है। साल 2009 में शिक्षा का अधिकार लागू होने के बाद इस साल सरकारी स्कूलों में नामांकित 6-14 आयुवर्ग के बच्चे सबसे अधिक बढ़े हैं।
सन् 2018 में स्कूलों में नामांकित बच्चों की दर 97.2 फ़ीसदी थी। 4 साल पहले अर्थात् 2018 में 30.9 फ़ीसदी बच्चे निजी स्कूलों में थे; लेकिन 2022 में यह आँकड़ा घटकर 25 फ़ीसदी रह गया। सरकारी स्कूलों में दाख़िला लेने वाले 6714 आयु वर्ग के बच्चे 72.9 फ़ीसदी हो गये, जो कि 2018 में 66 फ़ीसदी ही थे। सरकारी स्कूलों में नामांकन बढऩे की ठोस वजह पर कोई मुहर तो नहीं लगी है; लेकिन इतना साफ़ है कि कोरोना महामारी ने जिस तरह लोगों की रोज़ाना कमायी, मासिक कमायी पर चोट की थी, उस हालात में निम्न आय वर्ग के लिए बच्चों की निजी स्कूलों में फीस भरना बहुत मुश्किल हो गया था। गाँवों के कई निजी स्कूलों की कमज़ोर आर्थिक हालत भी उनके बन्द होने की वजह रही। इधर सरकारी स्कूलों ने तालाबंदी के बावजूद अपने छात्रों के घरों तक पाठ्य पुस्तकें वितरित करने की व्यवस्था की, फोने के ज़रिये उन्हें पाठ्य सामग्री मुहैया करायी व मिड-डे मील उन तक पहुँचाने का भी बंदोबस्त किया। अभिभावकों को सरकारी स्कूलों से जुड़े रहने के फ़ायदे दिखे।
दरअसल यह एक अध्ययन का विषय है। लेकिन यह साफ़ दिखायी देता है कि महामारी के दौरान सरकारी स्कूलों में इस आयु वर्ग के बच्चों के नामांकन दर में वृद्धि हुई है और इस रुझान को सरकार अपने पक्ष में भुना सकती है। ध्यान देने वाली बात यह है कि वर्ष 2006 से 2014 तक निजी स्कूलों में नामांकन दर में वृद्धि हो रही थी और सरकारी स्कूलों के नामांकन दर में गिरावट देखी गयी।
सन् 2018 में इसमें थोड़ा सुधार हुआ और यह दर 65.6 फ़ीसदी हो गयी और नवीनतम आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2022 में यह दर 72.9 फ़ीसदी हो गयी है। चार साल पहले सन् 2018 में निजी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों की तादाद 30.9 फ़ीसदी थी, जो घटकर 2022 में 25 फ़ीसदी रह गयी। यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि 11-14 आयुवर्ग की सिर्फ़ दो फ़ीसदी लड़कियों का ही स्कूल में नामांकन नहीं हुआ है। जबकि 2018 में यह आँकड़ा 4.1 फ़ीसदी था और वर्ष 2006 में 10.3 फ़ीसदी था। देश में इस आयु वर्ग की स्कूल नहीं जाने वाली लड़कियों का अनुपात वर्ष 2022 में अब तक की सबसे कम दर दो फ़ीसदी पर आ गया है।
इस उल्लेखनीय समग्र गिरावट के बावजूद चिन्ता बराबर बनी हुई है; क्योंकि देश में तीन सूबों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 10 फ़ीसदी से अधिक लड़कियाँ स्कूल नहीं जा रही हैं। इसके साथ ही इस ओर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि देश में कक्षा एक से 8वीं तक के 30.5 फ़ीसदी बच्चे निजी ट्यूशन लेते हैं, जबकि 2018 में यह दर 26.4 फ़ीसदी थी। उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखण्ड में 2018 के मुक़ाबले 2022 में निजी ट्यूशन लेने वाले बच्चे 8 फ़ीसदी बढ़ गये हैं। बिहार में यह संख्या 71.5 फ़ीसदी है।
इन राज्यों में ऐसे बच्चों की संख्या क्यों बढ़ रही है, यह अध्ययन का विषय है। 2018 के मुक़ाबले ग्रामीण इलाक़ों में 6-14 आयुवर्ग के स्कूली बच्चों के बुनियादी शिक्षा और अंकगणितीय कौशल में गिरावट दर्ज की गयी है। राजस्थान में 5वीं के सिर्फ़ 6.3 फ़ीसदी बच्चे ही भाग कर पाते हैं और सिर्फ़ 4.9 फ़ीसदी को ही घटाना आता है, जो देश में सबसे बुरी स्थिति है। सन् 2018 से कक्षा तीन के छात्र जो दूसरी कक्षा के स्तर की पाठ्य पुस्तक पढऩे वालों की संख्या में गिरावट सन् 2022 में 24 राज्यों में दर्ज की गयी। इसी तरह गणित में भी भाग करने व घटाने वाले बच्चों की संख्या कम हुई है। मध्य प्रदेश में कक्षा 3 के 9.5 फ़ीसदी, झारखण्ड-छत्तीसगढ़ में 16 फ़ीसदी, गुजरात में 23 फ़ीसदी, बिहार में 21 फ़ीसदी और पंजाब में 31 फ़ीसदी बच्चे ही घटाना जानते हैं। जहाँ तक कक्षा पाँच का सवाल है, वहाँ भी भाग करने वाले बच्चों की संख्या में इन चार वर्षों में गिरावट साफ़ नज़र आती है। मिजोरम में वर्ष 2018 में ऐसे बच्चों की संख्या 35.8 फ़ीसदी थी, जो 2022 में घटकर 14.8 फ़ीसदी रह गयी है। पंजाब में यह दर 50.1 फ़ीसदी से घटकर 33.3 फ़ीसदी पर आ गई है। कक्षा 8 के 23 फ़ीसदी बच्चे ही घटाना जानते हैं। कोरोना महामारी का असर बच्चों की स्कूली शिक्षा पर पड़ा है।
जो बच्चे छोटी कक्षाओं में हैं, उनके पास सीखने और फ़ासलों को भरने का वक़्त है; लेकिन जो बच्चे पाँचवीं व आठवीं कक्षा में पढ़ाई में पिछड़ गये हैं, उनकी संघर्ष करने की सम्भावना अधिक है। राज्य सरकारों को इस और अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है। वैसे भारत सरकार स्कूली शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए निपुण भारत ओर फंक्शनल लिटरेसी एंड न्यूमेरेसी मिशन सरीखी योजनाएँ चला रही हैं। निपुण भारत का लक्ष्य यह है कि तीसरी कक्षा में पढऩे वाला हर बच्चा पढ़ सके और बुनियादी गणित कर सके।
सरकार ने इस बाबत स्कूलों को दिशा-निर्देश भेजे हें और अध्यापकों को प्रशिक्षित भी किया जा रहा है। सरकार अपनी तरह से प्रयासरत है कि बच्चों को गुणात्मक बुनियादी शिक्षा मुहैया करायी जाए, इसके लिए स्कूली ढाँचे में पेयजल, लड़कियों के लिए शौचालय और खेल के मैदान की व्यवस्था में सुधार जारी है और उधर निजी स्कूल गाँवों में अभिभावकों, बच्चों को अपनी ओर खींचने के लिए क्या रणनीति अपनाते हैं? यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।