शैलेंद्र कुमार ‘इंसान’
चालाक चीन को भारत ने इसी महीने संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी आयोग अर्थात् यूएन स्टैटिस्टिकल कमीशन के चुनाव जीतकर एक बड़ी मात दी है। परन्तु यह चीन जैसे धूर्त देश को सबक़ सिखाने के लिए पर्याप्त नहीं है। हालाँकि संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी आयोग के चुनाव जीतने में भारत की जीत इसलिए बड़ी है, क्योंकि यह चुनाव चीन और यूएई हार गये हैं।
विदित हो कि यूएन स्टैटिस्टिकल कमीशन अर्थात् संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी आयोग में कुल 53 मतदाता थे, जिसमें से भारत को 46 मत प्राप्त हुए। इस चुनाव में भारत, चीन, संयुक्त अरब अमीरात अर्थात् यूएई और साउथ कोरिया मैदान में थे। इस अंतरराष्ट्रीय जीत के बाद भारत सरकार में विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने देशवासियों को बधाई भी दी।
दूसरी ओर चीन ने अरुणाचल प्रदेश में 11 जगहों के नाम बदलकर उन पर अपना दावा जताया है। चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक़्ता माओ लिंग ने अरुणाचल प्रदेश का चीनी नाम भी रख दिया है। उसने अरुणाचल प्रदेश को ज़ेननेन कहा है। माओ लिंग ने दावा किया है कि राज्य परिषद् के भौगोलिक नामों के प्रशासन की प्रासंगिक शर्तों के अनुसार, चीन की सरकार के सक्षम अधिकारियों ने ज़ेननेन (अरुणाचल प्रदेश) के कुछ हिस्सों के नामों का मानकीकरण किया है। क्योंकि ज़ेननेन है और चीन का हिस्सा है। यह चीन का सम्प्रभु अधिकार है।
चीन के इस दावे और चालाकी के बीच भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के आधिकारिक प्रवक़्ता अरिंदम बागची ने जवाब में कहा है कि हमने ऐसी ख़बरें देखी हैं। यह पहली बार नहीं है, जब चीन ने ऐसी कोशिश की है। हाल में चीन ने अरुणाचल प्रदेश के लिए चीनी, तिब्बती और पिनयिन अक्षरों में नामों की तीसरी सूची जारी की है। हम इसे सिरे से ख़ारिज करते हैं। अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न और अटूट हिस्सा है। मनगढ़ंत नाम रखने से यह हक़ीक़त बदल नहीं जाएगी। इस मामले में अमेरिका भारत के साथ खड़ा है। अमेरिका ने भी कहा है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का हिस्सा है। अमेरिका अरुणाचल प्रदेश को लम्बे समय से भारत के अभिन्न अंग के रूप में मान्यता देता रहा है। अमेरिका जगहों का नाम बदलकर क्षेत्रीय दावों को आगे बढ़ाने के किसी भी एकतरफ़ा प्रयास का कड़ा विरोध करता है।
वास्तव में चीन ने अरुणाचल प्रदेश में नाम बदलने की यह तीसरी मानकीकृत भौगोलिक नामों की सूची जारी की है। वह हर हाल में दबाव बनाकर भारत को कमज़ोर करना चाहता है। परन्तु इससे चीन को ही नुक़सान होगा। क्योंकि उसकी अतिक्रमणवादी नीति से कई और देश भी परेशान हैं और अगर सभी देश भारत के नेतृत्व में चीन पर हमला करें, तो उसे इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। अगर भारत सुनियोजित तरीक़े से चीन पर चीन विरोधी देशों के साथ मिलकर हमला करता है, तो ताइवान और तिब्बत भी इस युद्ध में भारत का साथ देंगे। ऐसे में इन दो देशों से चीन को तबाह करने में आसानी होगी। इधर भारत नेपाल का भी साथ ले सकता है। बाकी सिक्किम, अरुणाचल, लद्दाख़, उत्तराखण्ड तो भारत के मोर्चे वाले क्षेत्र हैं ही।
चीन की ग़ुस्ताख़ी यह है कि उसने अभी तक अरुणाचल प्रदेश में जगहों के नाम बदलने की सूची पहली बार 14 अप्रैल, 2017 में जारी की थी। उसने रोमन लिपि में इन छ: जगहों के नाम वोग्यानलिंग, मिला री, क्वाइडेंगार्बो री, मेनकुका, बुमो ला और नामकापुब री रखे थे। इस दौरान जब तिब्बती धार्मिक गुरु दलाई लामा अरुणाचल प्रदेश गये थे, तो चीन ने उनके दौरे का भी विरोध किया था। इसके बाद 2021 में चीन ने अरुणाचल के 15 स्थानों का नाम बदला था। इन नामों की सूची चीनी, तिब्बती और रोमन लिपि में जारी की, जिसमें उसने आठ आबादी वाले क्षेत्रों के नाम सेंगकेंगजोंग, मिगपेन, गोलिंग, डांबा, मेजाग, डागलुंग जोंग, मनी गैंगे और डूडिंग रखे। चार पर्वतों के नाम वामो री, देउ री, कुनमिंगजिंगजे फेंग और ल्हुनजुब री रखे। दो नदियों के नाम जेनयोंगमो हे, दुलेन हे रखे। जबकि एक पहाड़ों से निकलने वाले रास्ते का नाम से ला-दर्रा रखा। वहीं अब 2023 में उसने 11 जगहों के नाम और बदल दिये हैं। चीन ने अरुणाचल प्रदेश में ही जगहों के नाम नहीं बदले हैं, बल्कि वह पूर्वी लद्दाख़ को भी क़ब्ज़ाने की लगातार कोशिशें कर रहा है। इनमें दो रिहायशी क्षेत्र हैं, पाँच पर्वतों की चोटियाँ हैं, दो नदियाँ हैं और दो अन्य क्षेत्र हैं।
विदित हो कि चीन अरुणाचल प्रदेश के 90,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को अपनी ज़मीन बताता है। वह अरुणाचल प्रदेश को साउथ तिब्बत बताता है। प्रश्न यह है कि उसने सन् 2014 के बाद जिस प्रकार से चीन के सीमावर्ती भारतीय क्षेत्रों को अपना बताना और उन पर क़ब्ज़ा जमाना शुरू किया है, उस पर प्रधानमंत्री और गृह मंत्री कुछ बोलते क्यों नहीं? चीन के इस दुस्साहस के पीछे आख़िर किसका समर्थन है? चीन का दुस्साहस इतना बढ़ चुका है कि अक्टूबर, 2021 में तत्कालीन उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर आपत्ति तक जतायी थी। चीन की इस आपत्ति पर केंद्र सरकार ने इतना ही कहा था कि अरुणाचल प्रदेश में भारतीय नेताओं के दौरे पर आपत्ति का कोई तर्क नहीं है। प्रश्न यह है कि भारत का चीन के प्रति इतना नर्म रुख़ क्यों रहता है? कड़ा जवाब देने का साहस पूर्व सेना अध्यक्ष (तत्कालीन) जनरल बिपिन रावत ने दिया था। लेकिन कुछ ही महीनों में उनकी एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। जनरल विपिन रावत की इस दुर्घटना को लेकर भी कई प्रश्न उठे, जिनके उत्तर अभी तक नहीं मिल सके हैं।
भारत के पूर्वी क्षेत्र को तिब्बत की सीमा को मैकमोहन लाइन कहते हैं। भारत और चीन के बीच विवाद भी इसी मैकमोहन लाइन को लेकर है। सन् 1914 से पहले तक ब्रिटिश शासन में तिब्बत और भारत के बीच कोई तय सीमा रेखा नहीं थी। उस व$क्त की भारत सरकार, चीन और तिब्बत की सरकारों के बीच शिमला में समझौता हुआ। भारत में मैकमोहन लाइन दर्शाता हुआ मैप पहली बार सन् 1938 में ही आधिकारिक तौर पर प्रकाशित किया गया। शिमला समझौते में चीन का प्रतिनिधित्व रिपब्लिक ऑफ चीन के अधिकारी ने किया था। सन् 1912 में किंग राजवंश को उखाड़ फेंकने के बाद रिपब्लिक ऑफ चीन बना था। यह कम्युनिस्ट सरकार सन् 1949 तक ही सत्ता में रह पायी।
इसके बाद चीन में नयी सरकार आती है और देश का नाम पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चीन हो जाता है। सन् 1951 में चीन ने तिब्बत पर क़ब्ज़ा किया और पहली बार भारत और चीन के बीच रिश्ते तब ख़राब हुए जब कर लिया। चीन का कहना था कि वो तिब्बत को आज़ादी दिला रहा है। इसी दौरान भारत ने तिब्बत को अलग राष्ट्र के रूप में मान्यता दी।
तिब्बत आज भी भारत के साथ रहना चाहता है और चीन से मुक्ति चाहता है। लेकिन चीन तिब्बत के अलावा अरुणाचल प्रदेश को भी अपना हिस्सा बताने का दुस्साहस कर रहा है और इसे साउथ तिब्बत कहता है। चीन अरुणाचल पर अपने दावे के समर्थन में तवांग मठ और तिब्बत में ल्हासा मठ के बीच ऐतिहासिक सम्बन्धों का हवाला देता है। चीन 400 साल पुराने तवांग के मठ पर क़ब्ज़ा कर बौद्ध धर्म को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। पाँचवें दलाई लामा के सम्मान में सन् 1680-81 में मेराग लोद्रो ग्यामत्सो ने इस मठ की स्थापना की थी। तिब्बत के छठे दलाई लामा का जन्म भी तवांग के पास सन् 1683 में हुआ था।
भारत की पूर्वोत्तर का सुरक्षा कवच कहा जाने वाला अरुणाचल प्रदेश पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा राज्य है। अरुणाचल प्रदेश नॉर्थ और नॉर्थ वेस्ट में तिब्बत, वेस्ट में भूटान और ईस्ट में म्यांमार के साथ यह अपनी सीमा साझा करता है। तवांग में चीन की दिलचस्पी सामरिक वजहों से है, क्योंकि यह भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में स्ट्रैटेजिक एंट्री दिलाता है। तवांग तिब्बत और ब्रह्मपुत्र वैली के बीच कॉरिडोर का एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। सन् 1962 में चीनी सैनिकों ने भारत पर हमला करने के लिए इसी दर्रे का इस्तेमाल किया था। यह दुनिया में तिब्बती बौद्ध धर्म का दूसरा सबसे बड़ा मठ है। चीन का दावा है कि मठ इस बात का सुबूत है कि यह ज़िला कभी तिब्बत का था। सन् 1959 में चीन से भागने के बाद वर्तमान दलाई लामा हफ़्तों तक तवांग मठ में रुके थे।
चीन का दावा तो पूरे अरुणाचल पर है, लेकिन उसकी जान तवांग ज़िले पर अटकी है। तवांग अरुणाचल के नॉर्थ-वेस्ट में हैं, जहाँ पर भूटान और तिब्बत की सीमाएँ हैं। चीन जानता है कि तिब्बत में यदि कभी चीन सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह होगा तो तवांग इसका प्रमुख केंद्र होगा। विदेश मामलों के जानकार मानते हैं कि चीन बार-बार ऐसी हरकतें करके भारत और अपने लोगों को बताना चाहता है कि अरुणाचल उसका हिस्सा है। लेकिन फिर भी चीन 20 से 25 बार ऐसी हरकतें कर चुका है। हालाँकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह बात ख्यात है कि अरुणाचल प्रदेश क़ानूनी रूप से भारत का हिस्सा है और भारत के साथ ही रहेगा। चीन जी-20 में हिस्सा नहीं लेगा।
यानी अरुणाचल में अगर कोई बड़ी मीटिंग या समिट होगी या दोनों देशों के बीच कोई वार्तालाप होगा, तो वह इस तरह का इरिटेटिंग इश्यू लाएगा। अगर आप इतिहास देखेंगे तो चीन काफ़ी कोशिशों के बावजूद अभी तक ताइवान को अपने अधिकार में नहीं ले पाया है, तो भारत के राज्यों पर क़ब्ज़ा करना तो उसके लिए और मुश्किल है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि केंद्र सरकार ख़ामोश बैठा रहे, उसे चीन को मुँहतोड़ जवाब तो देना ही पड़ेगा, भले आज नहीं तो कल, राज़ी से नहीं तो जबरन, क्योंकि चीन ऐसे मानने वाला नहीं है। भारत सरकार को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के तहत कई सीमावर्ती देशों की ज़मीन अपने क़ब्ज़े में ले रखी है।
चीन का 14 देशों के साथ 22,240 किलोमीटर लम्बी सीमा है। चीन का इन सभी देशों के साथ विवाद है। चीन जिस ज़मीन पर ग़ैर-क़ानूनी रूप से अपना हक़ जताता है, उसकी जगहों के अपनी ओर से नाम बदल देता है और 15 से 20 साल बाद जारी अपने नक्शों में इन जगहों को दिखाता है। रूस और कनाडा के बाद चीन सबसे बड़ा देश है। इसका कुल एरिया 97,6,961 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 43 प्रतिशत ज़मीन दूसरों से हड़पी हुई है। इसी नीति के तहत चीन भारत पर ही नहीं, ताइवान पर भी अपना आधिपत्य चाहता है। अपनी इस चाल के समर्थन के लिए अब चीन रूस को अपने साथ लेने की कोशिश में लगा है। विपक्ष चीन की अतिक्रमणवादी नीति और भारत सरकार की ख़ामोशी पर लगातार मोदी सरकार को घेरता रहा है, लेकिन भारत सरकार इसे ख़ुद के ख़िलाफ़ विपक्ष की साज़िश मानती है, जो कि ग़लत और व्यर्थ की बात है।