भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे भी व्यक्तित्व मिलते हैं जिनके प्रधानमंत्री बनने को लेकर किसी दूसरे ने तो क्या खुद उन्होंने भी शायद ही कल्पना की हो. वैसे तो पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री और फिर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी सिंह, नरसिंहा राव तक की ताजपोशी में अप्रत्याशितता का थोड़ा-बहुत अंश रहा है, लेकिन 1996 के बाद प्रधानमंत्री बनने वाले तीन नाम विशेष तौर पर ऐसे हैं जिन्होंने देश और दुनिया को हैरत में डाल दिया.
एचडी देवगौड़ा का नाम इस जमात में सबसे ऊपर है. प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने से पहले देवगौड़ा के बारे में लोगों का (विशेष तौर पर उत्तर भारतीयों का) सामान्य ज्ञान लगभग शून्य था. देश की बहुसंख्यक जनता को उनके बारे में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद ही मालूम हुआ. ‘हरदन हल्ली डोडेगौड़ा देवगौड़ा’ नाम छात्रों के सामान्य ज्ञान की परीक्षा में शामिल हो गया.
1953 में सक्रिय राजनीति में आए देवगौड़ा 1991 में पहली बार संसद पहुंचे थे. 1994 में जनता दल का अध्यक्ष बनने के बाद वे कर्नाटक के मुख्यमंत्री भी बने. उस वक्त कर्नाटक की राजनीति में देवगौड़ा के सितारे भले ही बुलंद थे, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी कोई खास पहचान नहीं थी. इस बीच 1996 में 13 दिन पुरानी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार संसद में बहुमत साबित करने में असफल रही. इस मौके पर गैरकांग्रेसी और गैरभाजपाई दलों ने मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया और देवगौड़ा इस मोर्चे के नेता बने. लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले दूर-दूर तक उनका नाम इस दौड़ में नहीं था. संयुक्त मोर्चे ने तब प्रधानमंत्री पद को लेकर पूर्व पीएम वीपी सिंह के नाम पर सहमति बनाई थी. लेकिन दूध के जले वीपी सिंह ने इस बार प्रधानमंत्री वाला छाछ पीने से इनकार कर दिया. वीपी सिंह के पास कांग्रेस पर भरोसा नहीं करने की पर्याप्त वजहें थीं.
इसके बाद दिग्गज वामपंथी नेता और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु का नाम प्रधानमंत्री के लिए प्रस्तावित हुआ. स्वयं ज्योति बसु भी इसके लिए सहमत थे. जब तक बात इससे आगे बढ़ती, सीपीएम की सेंट्रल कमेटी ने घोषणा कर दी कि अभी दिल्ली की सत्ता में वामपंथ प्रवेश का अवसर नहीं आया है. हालांकि अब वामपंथी इसको अपनी सबसे बड़ी गलती मानते हैं.
संयुक्त मोर्चे पर सरकार बनाने का दबाव बढ़ता जा रहा था. मुलायम सिंह के नाम पर भी विचार शुरू हुआ लेकिन उनके अपने सजातीय नेताओं की महत्वाकांक्षा ने उनका खेल खराब कर दिया. तब देवगौड़ा के भाग्य से छींका टूटा और वे सात रेसकोर्स रोड पहुंच गए. इस बीच कांग्रेस संगठन की कमान सीताराम केसरी के हाथ में आ चुकी थी. जानकार बताते हैं कि बेहद महत्वाकांक्षी प्रवृत्ति वाले केसरी को इस बात का बड़ा मलाल था कि सबसे बड़ा दल होने के बावजूद वे प्रधानमंत्री क्यों नहीं हैं? प्रधानमंत्री बनने के अरमान उनके मन में भी मचल रहे थे. लिहाजा देवगौड़ा के कामकाज से असंतुष्टि जताते हुए उन्होंने संयुक्त मोर्चे की सरकार को समर्थन जारी रखने से इनकार कर दिया. इस तरह देवगौड़ा 10 महीने में ही विदा हो गए. जब तक लोगों को उनका पूरा नाम याद हो पाता तब तक वे प्रधानमंत्री से पूर्व प्रधानमंत्री हो गए.
देवगौड़ा के इस्तीफे के बाद इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने. खुद के प्रधानमंत्री बनने की कहानी को बयान करते हुए गुजराल ने अपनी आत्मकथा ‘मैटर्स ऑफ डिस्क्रेशन’ में लिखा है कि प्रधानमंत्री पद को लेकर उनके नाम की चर्चा सबसे पहले पी चिदंबरम ने की थी. देवगौड़ा के कार्यकाल से असंतुष्ट हो कर जिस कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस लिया था वही कांग्रेस गुजराल के नाम पर फिर से सरकार के साथ हो गई. लेकिन गुजराल का नाम तब प्रधानमंत्री पद को लेकर कहीं से भी प्रत्याशित नहीं था. स्वभाव से ही गैरराजनीतिक लगने वाले गुजराल का प्रधानमंत्री बनना भी देवगौड़ा अध्याय की तर्ज पर तात्कालिक राजनीतिक स्थितियों की उपज था. जानकारों का मानना है कि खुद को प्रधानमंत्री बनाने के मकसद के चलते ही सीताराम केसरी ने देवगौड़ा को कुर्सी से हटवाया था. वे चाहते थे कि संयुक्त मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन देने के बजाय कांग्रेस को खुद सरकार बनाने का दावा करना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं हुआ मजबूरन एक बार फिर से संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी और गुजराल उसके नेता बने.
बेशक गुजराल राजनयिक से लेकर केंद्र में बतौर मंत्री भी काम कर चुके थे, लेकिन एक जननेता से कहीं ज्यादा उनकी छवि एक ब्यूरोक्रेट की थी जो नेता बन गया. चूंकि देवगौड़ा के इस्तीफे के बाद प्रधानमंत्री पद को लेकर संयुक्त मोर्चे में मुलायम सिंह जैसे तगड़े दावेदार थे जो देवगौड़ा के समय भी प्रधानमंत्री बनने से रह गए थे, लिहाजा उनकी तरफ से तिकड़मों की इस बार भी प्रबल संभावना थी. सीपीएम महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने भी इस बार मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का मन बना लिया था. लेकिन ऐन वक्त पर उन्हें मास्को जाना पड़ गया और उनकी अनुपस्थिति में गुजराल संयुक्त मोर्चे के नेता चुन लिए गए. इस लिहाज से देखा जाए तो बिना मैदान में उतरे ही गुजराल ने प्रधानमंत्री बन कर ‘राजनीति में कुछ भी संभव है’ के शाश्वत सिद्धांत को और मजबूत किया.
‘राजनीति में सब कुछ संभव है’ वाला शाश्वत सत्य 2004 में एक बार फिर से प्रकट हुआ. इस बार इसकी अप्रत्याशितता पिछले मामलों से भी ज्यादा थी. 2004 में आम चुनाव होने थे और ‘इंडिया शाइनिंग’ तथा ‘भारत उदय’ के जुमलों के जरिए एनडीए की वापसी की चौतरफा चर्चाएं चल रही थीं. चुनाव परिणाम सामने आए तो वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए पर कांग्रेस की अगुवाई वाला यूपीए भारी पड़ गया. यह एक बड़ा राजनीतिक भूचाल था.
लेकिन इससे भी बड़ा धमाका अभी होना बाकी था. कांग्रेस की अगुवाई में पूर्ण बहुमत हासिल कर चुके यूपीए के नेता के तौर पर सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता लगभग साफ हो गया था. लेकिन इससे पहले कि देश की राजनीति में नेहरू-गांधी वंश के नए उत्तराधिकारी को लेकर लिखी जा रही यह पटकथा फलीभूत होती कि 22 मई, 2004 को प्रधामनंत्री के रूप में अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने शपथ ले ली. दरअसल सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को हथियार बना कर विपक्षी दल भाजपा ने एक नई बहस छेड़ दी जिसमें बाद में शरद पवार जैसे खांटी कांग्रेसी भी कूद गए. इसके बाद सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार करते हुए मनमोहन सिंह का नाम आगे कर दिया.
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने की घटना से उस वक्त आम लोगों के साथ ही राजनीति के तमाम जानकार भी सन्न रह गए थे. सभी के लिए यह बेहद असाधारण घटना थी. इसकी बहुत बड़ी वजह उनका 24 कैरेट गैरराजनीतिक होना थी. हालांकि वे इससे पहले वित्तमंत्री के रूप में अपनी छाप छोड़ चुके थे, लेकिन उनका चयन इस लिहाज से आश्चर्यजनक था कि उस वक्त कांग्रेस में प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह जैसे धुरंधर नेता मौजूद थे. बावजूद इसके बाजी मनमोहन सिंह के हाथ लगी.
तमाम तरह की समानताओं और असमानताओं के बीच इन तीनों हस्तियों के मामले में एक बेहद दिलचस्प तथ्य यह भी है कि प्रधानमंत्री पद पर काबिज होते वक्त इनमें से कोई भी आम जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि यानी लोक सभा का सदस्य नहीं था.
कुल मिला कर देखा जाए तो देवगौड़ा, गुजराल और मनमोहन का प्रधानमंत्री बनना राजनीति में सब कुछ संभव है वाले सिद्धांत को बेशक सार्थक करता है. लेकिन इस सिद्धांत की सफलता के लिए जिस तरह के जोड़तोड़ और तिकड़मबाजी की जरूरत होती है इन तीनों के मामले में यह सब उस पैमाने पर नहीं हुआ. इसलिए इनका प्रधानमंत्री बनना एक तरह से ‘अंधे के हाथ बटेर’ वाली कहावत को भी बल देता नजर आता है.