अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए अब चार ही महीने रह गये हैं और दुनिया भर में इस पर चर्चा शुरू हो गयी है कि क्या डोनाल्ड ट्रंप फिर से इस पद पर चुने जाएँगे? पिछले कुछ रिकॉर्ड को देखें, तो वहाँ राष्ट्रपति दूसरे कार्यकाल के लिए चुने जाते रहे हैं। लेकिन ट्रंप के सामने दूसरे चुनाव के साल में कुछ ऐसी चुनौतियाँ सामने आयी हैं, जिन्होंने इस मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। दूसरे अभी तक अमेरिका में हुए तीन सर्वे में ट्रंप को उनके इस चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंद्वी पूर्व उप राष्ट्रपति डेमोक्रेट जोसेफ रोबिनेटे बिडेन जूनियर (जो. बिडेन) मुश्किल चुनौती देते दिख रहे हैं।
इस चुनाव के नतीजे पर भारत की भी खास नज़र रहेगी। क्योंकि हाल के वर्षों में, खासकर डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत अमेरिका के नज़दीक जाता दिखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कह चुके हैं कि ट्रंप से उनके रिश्ते दोस्त जैसे हैं। ह्यूस्टन (टेक्सॉस) में पिछले साल सितंबर में हाउडी मोदी और इस साल फरवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात के अहमदाबाद में नमस्ते ट्रंप जैसे भव्य कार्यक्रम मोदी की बात पर मुहर लगाते हैं। ऐसे में ज़ाहिर है, यह एक बड़ा सवाल है कि यदि अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनाव नतीजे में उटलफेर होता है, तो भारत के साथ इसके सम्बन्धों पर क्या असर पड़ेगा?
इस चुनाव से पहले अमेरिका में कुछ बड़े घटनाक्रम हुए हैं, जो राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं। चीन से निकलकर दुनिया भर में पहुँचे कोविड-19 ने सबसे ज़्यादा जानें अमेरिका में ली हैं। कोविड-19 के कहर के बीच अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत ने अमेरिका भर में बवाल मचा दिया है। जॉर्ज की मौत के बाद पूरे अमेरिका में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए हैं।
अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत के बीच मशहूर रैपर कान्ये वेस्ट ने भी चुनाव मैदान में कूदने की घोषणा कर दी है। आगामी चुनाव को लेकर कान्ये वेस्ट लोगों के बीच पहुँच रहे हैं। उनकी अभियान सलाहकार उनकी पत्नी मशहूर टीवी स्टार किम कार्दशियन हैं। गर्भपात विरोध, शिक्षा के लिए ईश्वर का भय और प्रेम लौटाना उनके बड़े मुद्दे हैं और वह कोविड-19 वैक्सीन के प्रति भी संदेह जता रहे हैं। माना जा रहा है कि वेस्ट भले खुद चुनाव न जीत सकें, मगर वर्तमान घटनाक्रम में जो बिडेन को पडऩे वाले सम्भावित अश्वेत वोट बड़ी संख्या में वेस्ट के हिस्से में जा सकते हैं, जिसका लाभ अंतत: ट्रंप को मिल सकता है।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि विरोधियों की गहरी नापसन्दगी के बावजूद ट्रंप के इस कार्यकाल के पहले तीन साल प्रभावशाली रहे हैं। लेकिन कोविड-19 महामारी से अमेरिका में एक लाख से ज़्यादा लोगों की मौत होने और अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की हिरासत में मौत (जिसे हत्या बताया जा रहा है) से भड़के आन्दोलन से चुनाव में कुछ दिलचस्प पेच आते दिख रहे हैं। अभी तक के सर्वे में बिडेन अमेरिका के 50 राज्यों में से से 25 में ट्रंप पर बढ़त हासिल करते दिखे हैं। ट्रंप 13 राज्यों में बिडेन से आगे हैं; जबकि पाँच राज्यों में दोनों में बराबर की टक्कर है। चार राज्य ऐसे हैं, जहाँ लोगों की राय अभी फैसला नहीं किया वाली है।
इस पर एक सर्वे जाने माने अखबार वाशिंगटन पोस्ट-एनबीसी ने मिलकर किया है। इसमें बिडेन को 50 फीसदी और ट्रंप को 42 फीसदी वोट मिलते बताये गये हैं। लेकिन इस सर्वे में जो बहुत दिलचस्प बात सामने आयी है, वह यह है कि ट्रंप को कॉलेज जाने वाले छात्रों का बड़ा समर्थन है। इसका कारण देश के युवाओं को रोज़गार में प्राथमिकता वाली ट्रंप की नीति हो सकती है। लेकिन दूसरी और देश की महिलाओं का ज़्यादा समर्थन बिडेन के लिए है। कोरोना से लोगों की बड़े पैमाने पर मौत भी अमेरिका के लोगों के लिए काफी बड़ा मसला है।
चुनाव की इस गहमागहमी के बीच ये खबरें भी मीडिया के एक हिस्से में आयी हैं कि यदि नवंबर में होने वाले चुनाव में ट्रंप हारते हैं, तो वह पद नहीं छोड़ेंगे। हालाँकि ट्रंप ने इन रिपोट्र्स को सिरे से खारिज किया है। उन्होंने ने इन रिपोट्र्स के बाद कहा कि चुनाव हारने पर वह शान्तिपूर्ण ढंग से प्रक्रिया अनुसार पद छोड़ देंगे। इसका मतलब होगा कि वह नहीं जीते। कोई अन्य आये और कार्य करे; लेकिन वह हारते हैं, तो यह देश के लिए बहुत खराब होगा। वैसे मशहूर राजनीतिक पत्रिका पॉलिटिको भी अपने एक सम्पादकीय में यह कह चुकी है कि ट्रंप की ओर से कभी भी ऐसा (पद न छोडऩे का) संकेत नहीं दिया गया। विदेश नीति ही नहीं, स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर जलवायु परिवर्तन तक पर दोनों की सोच और नीतियों में बड़ा अन्तर है। डेमोक्रेटिक नेशनल कमेटी के चेयरमैन टॉम पेरेज ने बिडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी के बाद कहा था कि बिडेन के मूल्य अमेरिका की बहुसंख्यक आबादी के मूल्यों को प्रतिबिम्बित करते हैं; ऐसे में हमें पक्की उम्मीद है कि बिडेन ही जीतेंगे।
लेकिन ट्रंप के चुनाव प्रबन्धक टिम मुरटो, जो बिडेन को स्लीपी कहते हैं; का दावा है कि इस चुनाव में ट्रंप बिडेन को नष्ट कर देंगे। ट्रंप की चुनाव मुहिम कमोवेश उन्हीं लाइंस पर है, जैसी पिछले चुनाव में डेमोक्रेट उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ थीं। इसमें वह विरोधियों पर आरोपों से लेकर अपने खिलाफ षड्यंत्र तक की बात कह रहे हैं।
डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद की बिडेन की उम्मीदवारी भी दिलचस्प रही। न्यूयॉर्क के पूर्व मेयर माइक ब्लूमबर्ग ने उनके खिलाफ जब अपना नामांकन वापस लिया था, तब तक अरबपति ब्लूमबर्ग, देशभर में टीवी विज्ञापनों और सोशल मीडिया अभियान में करीब 38 करोड़ डॉलर खर्च कर चुके थे। वैसे वे पहले भी चार चुनाव छोड़ चुके हैं। मैदान से हटने के बाद उन्होंने बिडेन को समर्थन का ऐलान कर दिया था। इसके बाद बिडेन ने अपनी पार्टी के साथी डेमोक्रेट नेता सीनेटर बर्नी सैंडर्स को पद की दौड़ में पीछे छोड़ा। याद रहे बिडेन ने डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी को लेकर साउथ कैरोलिना में पार्टी के प्राइमरी चुनाव में बड़ी जीत हासिल की थी। बिडेन ने हैरानी भरे नतीजे में टेक्सॉस में भी जीत दर्ज की थी और सैंडर्स से यह राज्य छीन लिया था। बिडेन ने वॢजनिया, नॉर्थ कैरोलिना, अल्बामा, टेनेसी, ओक्लाहोमा, अरकंसास, मिनेसोटा और मैसाचुसेट्स जैसे राज्यों में जीत दर्ज की; जबकि वामपंथ की तरफ झुकाव रखने वाले नेता बर्नी सैंडर्स ने कैलिफोर्निया, कोलोराडो और उटा के अलावा अपने गृह राज्य वरमोंट में भी जीत दर्ज की थी।
हाल के समय में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को कई राजनीतिक विरोधों का सामना करना पड़ा है। उनके वेस्ट विंग सलाहकार और कैंपेन सहयोगी ट्रंप के दोबारा चुने जाने को लेकर चिन्तित रहे हैं। कोरोनो वायरस से निपटने को लेकर ट्रंप की नीतियों के खिलाफ और फिर नस्लीय भेदभाव के मसले पर पूरे अमेरिका में प्रदर्शन इन सहयोगियों की चिन्ता का बड़ा कारण है। निश्चित ही इससे बिडेन समर्थक उत्साह से भरे हैं। अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन 25 मई को मिनोपोलिस में एक पुलिस अफसर ने कई मिनट तक घुटने से दबाये रखी थी, जिसे उसकी मौत का कारण माना गया है।
कोविड-19 के मामले बढऩे के बाद भी ट्रंप ने आॢथक आधार को प्राथमिकता दी और उनकी छूट की घोषणा से वायरस फैलने में मदद मिली, जिससे लोगों की बड़ी संख्या में मौत हुई। वैसे यह अलग बात है कि इसके बावजूद अमेरिका में आॢथक समस्या बढ़ रही है। विपक्षी ट्रंप के खिलाफ इस मुद्दे को उठा रहे हैं। ज़ाहिर है इसका असर ऐसे क्षेत्रों में उनके समर्थन पर पड़ सकता है, जो उनकी जीत के लिहाज़ से अहम हैं। यह भी मीडिया रिपोट्र्स में आया है कि ट्रंप को बिडेन की तुलना में कम चुनाव चंदा (फण्ड) मिला है।
युवाओं के विपरीत बड़ी उम्र के लोगों में ट्रंप के प्रति लोकप्रियता में कमी की बात सर्वे में सामने आ रही। पिछले चुनाव में और उसके बाद के तीन साल तक इस वर्ग का ट्रंप की ओर स्पष्ट झुकाव रहा है। इसके बावजूद ट्रंप के चुनाव प्रबन्धक यह दावा कर रहे हैं कि पिछले चुनाव में भी सर्वे ट्रंप को हारा बता रहे थे; लेकिन वह जीते थे। इस बार भी यही होगा। खुद ट्रंप ने कुछ समय पहले फॉक्स न्यूज रेडियो से कहा था कि वोटर्स मेरे पक्ष में हैं। पिछली बार भी मैं सर्वे में हर राज्य में हिलेरी से हार रहा था; लेकिन मैंने हर जगह जीत हासिल की। इसके बावजूद व्हाइट हाउस में उनके सलाहकार लगातार मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए रणनीति पर काम कर रहे हैं। ओहियो राज्य, जहाँ पिछले चुनाव में उन्हें महज़ 8 फीसदी ही वोट मिले थे, वहाँ विज्ञापन ब्लिट्ज जारी किया गया। एरिजोना में भी उनके समर्थक ट्रंप के लिए चुनौतियाँ को महसूस कर रहे हैं। अश्वेत युवा डेमोक्रेटिक समर्थक ट्रंप के खिलाफ एकजुट दिख रहे हैं। पिछली बार इन्होंने हिलेरी क्लिंटन का विरोध कर ट्रंप का समर्थन किया था, जिससे उन्हें जीतने में बड़ी मदद मिली थी। वैसे उनके शासनकाल में अमेरिका में बेरोज़गारी दर कम हुई है, जो ट्रंप के हक में जाती है। हालाँकि कोरोना ने फिर खेल बिगाड़ा है।
बिडेन ट्रंप पर दबाव बनाने के लिए यह भी घोषणा कर रहे हैं कि यदि वह चुनाव जीते, तो एच-1बी वीजा पर लागू अस्थायी निलंबन हटा लेंगे। बता दें कि ट्रंप प्रशासन ने 23 जून को एच-1बी वीजा और बाकी विदेशी कार्य वीजा को 2020 के आिखर तक निलंबित कर दिया था। बता दें एच-1बी वीजा भारतीय आईटी पेशेवरों के बीच काफी लोकप्रिय है। यह एक नॉन-इमीग्रेंट वीजा है, जो अमेरिकी कम्पनियों को विशेष कामों में विदेशी कर्मचारियों को नियुक्त करने की अनुमति देता है, जिनके लिए सैद्धांतिक या तकनीकी विशेषज्ञता की ज़रूरत होती है।
इस बीजा के निलंबन से भारतीयों में मायूसी फैली है। उधर बिडेन ट्रंप की इमीग्रेशन पॉलिसी को क्रूर बता रहे हैं। बिडेन ने यह कि वह राष्ट्रपति बने तो मुस्लिम यात्रा पर लगा प्रतिबन्ध वापस ले लेंगे और अमेरिकी मूल्यों और ऐतिहासिक नेतृत्व के हिसाब से शरणार्थी प्रवेश को बहाल करेंगे। बिडेन कह रहे हैं कि ट्रंप ने इस साल के बाकी समय में एच-1बी वीजा को समाप्त कर दिया, उनके प्रशासन में ऐसा नहीं होगा। उनका कहना है कि कम्पनी वीजा पर आये लोगों ने इस देश का निर्माण किया है।
बिडेन ने जुलाई के पहले पखबाड़े कहा कि अपने कार्यकाल के पहले दिन मैं 1.1 करोड़ दस्तावेज़ रहित इमीग्रेंट्स की नागरिकता की राह आसान करने के लिए कांग्रेस में विधायी इमीग्रेशन सुधार बिल भेजने जा रहा हूँ। इन लोगों ने इस देश के लिए बहुत ज़्यादा योगदान दिया है, जिसमें (एशियाई अमेरिकी और प्रशांत द्वीप समूह) एएपीआयी समुदाय के 17 लाख लोग शामिल हैं। बिडेन के मुताबिक, उनकी इमीग्रेशन पॉलिसी परिवारों को एक साथ रखने के लिए है।
भारत-अमेरिका सम्बन्ध
भारत-अमेरिका रिश्ता अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव से बहुत गहरे से जुड़ा है। दोनों देशों के वर्तमान प्रमुखों- ट्रंप और मोदी के बीच अच्छी मित्रता है। ट्रंप दोबारा जीतते हैं, तो ज़ाहिर है, यह रिश्ता जारी रहेगा। लेकिन सवाल यह है कि यदि जो बिडेन जीतते हैं, तो भारत और प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनके रिश्ते क्या ट्रंप जैसे ही रहेंगे? खुद बिडेन, जो बराक ओबामा के काल में अमेरिका के उप राष्ट्रपति रहे हैं, कहते हैं कि भारत और अमेरिका के रिश्ते दोनों देशों की सुरक्षा के लिहाज़ से अहम हैं। हमारी सुरक्षा की खातिर एशिया प्रशांत क्षेत्र में भारत जैसे सहयोगी का होना ज़रूरी है और साफतौर पर उनके (भारत) लिए भी हम ज़रूरी हैं।
बिडेन का कहना है कि अगर वह राष्ट्रपति चुनाव जीतते हैं, तो भारत-अमेरिका रिश्तों को और मज़बूत करने पर ध्यान देंगे। वे भारत को अमेरिका का स्वाभाविक साझेदार बताते हैं और उनका कहना है कि भारत के साथ बेहतर रिश्ता उनके प्रशासन की प्राथमिकता में होगा। भारत-अमेरिका रिश्ता दक्षिण एशिया में बहुत महत्त्व रखता है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारत-चीन का हाल का खूनी टकराव के बाद इसका महत्त्व और बढ़ जाता है। चीन की महत्त्वााकांक्षाओं और विस्तारवादी नीति को लेकर प्रधानमंत्री मोदी कमोवेश, वहीं रुख दिखा रहे हैं, जो ट्रंप दिखाते हैं।
हालाँकि विदेश मामलों के बहुत-से जानकार यह भी मानते हैं कि चीन के साथ तनाव के दौरान अमेरिका और ट्रंप दोनों की भूमिका भारत को उकसाने वाली रही है। चीन से अमेरिका के सम्बन्धों की तल्खी कोरोना वायरस के बाद गहरी हुई है और अमेरिका उसे घेरने के लिए भारत को एक उपयुक्त जगह मानता है। यही कारण है, बहुत जानकार मोदी सरकार को ट्रंप और अमेरिका के उकसावे में न आने की चेतावनी देते रहे हैं।
अमेरिका के साथ भी चीन का व्यापार समेत कई मुद्दों पर विवाद इस सुॢखयों में है। शायद यही कारण है कि बिडेन भी भारत के साथ यह साझेदारी को एक रणनीतिक साझेदारी बताते हैं और कहते हैं कि यह हमारी सुरक्षा के लिए ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण है। यहाँ यह ज़िक्र करना भी बहुत ज़रूरी है कि मनमोहन सरकार के समय भारत और अमेरिका के बीच सिविल न्यूक्लियर डील ओबामा प्रशासन के समय हुई थी और इसमें भारत की कांग्रेस पार्टी को सहमत करवाने में उप राष्ट्रपति, जो बिडेन की बड़ी भूमिका रही थी। वह खुद कहते हैं कि मुझे गर्व है कि करीब एक दशक पहले हमारे प्रशासन में मैंने भारत-अमेरिका सिविल न्यूक्लियर डील को कांग्रेस की सहमति दिलाने में बड़ी भूमिका निभायी थी। यह एक बड़ा सौदा है। बिडेन भारत के साथ रिश्ते की वकालत करते हुए कहते हैं कि रिश्तों की बेहतर प्रगति के दरवाज़े खोलने और भारत के साथ अपनी रणीतिक साझेदारी को मज़बूत करना ओबामा-बिडेन प्रशासन की प्राथमिकता में ऊपर था और अगर मैं राष्ट्रपति चुना गया, तो भी यह उच्च प्राथमिकता में रहेगा।
हालाँकि पिछले साल ह्यूस्टन में हाउडी मोदी और इस साल फरवरी में नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम को लेकर भारत में सवाल उठे हैं और अमेरिका के एक बड़े वर्ग में भी मोदी प्रशासन के प्रति इसे लेकर नाराज़गी रही है। कहा जाता है कि, खासकर डेमोक्रेट्स ने महसूस किया कि प्रधानमंत्री मोदी एक तरह से ट्रंप चुनाव मुहिम में हिस्सा ले रहे हैं। भारत में तो विपक्षी कांग्रेस ने इसे लेकर मोदी की कड़ी आलोचना तक की और आरोप लगाया कि यह भारत की घोषित विदेश नीति के खिलाफ है।
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में प्रवासी भारतीय बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं। इसलिए वहाँ रह रहे भारतीयों को अपने साथ रखने की कोशिश रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स हमेशा करते रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि ऐसा वह अपने स्तर पर करते रहे हैं। लेकिन मोदी के लिए जिस तरह हाउडी मोदी और अब नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम हुए, उसे लेकर आलोचकों ने कहा कि वह (मोदी) ट्रंप से अपनी निजी मित्रता के लिए एक तरह से उनके चुनावी कार्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं, जो उन्हें किसी भी सूरत में नहीं करना चाहिए था। यही कारण है कि बहुत-से विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को अमेरिकी सिस्टम के साथ सम्बन्धों को मज़बूत करने पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि सिस्टम किसी राष्ट्रपति का मोहताज नहीं होता, राष्ट्रपति तो बदल जाते हैं; व्यवस्था नहीं बदलती।
चीन के साथ सीमा पर जब तनाव बढ़ा था, तो प्रधानमंत्री मोदी ने ट्रंप से ही फोन पर बात की थी। जानकार कहते हैं कि इसका मकसद चीन को यह संदेश देना था कि अमेरिका हमारे साथ है, ताकि उस पर दबाव बनाया जा सके। वैसे यह भी सच है कि यह वही ट्रंप हैं, जिन्होंने अप्रैल में मलेरिया रोधी हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दवा न देने पर भारत को कड़े परिणाम भुगतने की चेतावनी दे दी थी, जिससे मोदी सरकार ने बेचैनी महसूस की थी। उसे कुछ घंटे के भीतर ही पैरासिटामोल और हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के निर्यात को अस्थायी तौर पर मंज़ूरी देनी पड़ी थी।
बहुत से विशेषज्ञ यह मानते हैं कि अमेरिका की भारत या अन्य देशों के नेताओं से दोस्ती अपने हितों तक ही सीमित होती है। यह तय है कि ट्रंप ही दोबारा चुनकर आते हैं, तो मोदी से उनकी मित्रता और गहरी ही होगी। बिडेन आते हैं तो, कहना कठिन है कि यह मित्रता किस स्तर की होती है। यदि अमेरिका में सत्ता परिवर्तन होता है, तो इसका निश्चित ही भारत में राजनीतिक संदर्भ में भी असर तो पड़ेगा ही।
हाल के वर्षों को देखें, तो अमेरिका के लिए भारत से ज़्यादा अमेरिका की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में पाकिस्तान ज़्यादा महत्त्वपूर्ण रहा है। पाकिस्तान के काफी हद तक चीन के पाले में चले जाने के बाद ज़रूर अमेरिका का रुख बदला है और उसमें भारत को महत्त्व दिया है। लेकिन ऐसा करना उसकी मजबूरी है। भारत के प्रति उसका प्यार अपने स्वार्थों से ज़्यादा कुछ नहीं।
यदि देखें, तो चाहे डेमोक्रेट हों या रिपब्लिकन, भारत को बहुत ज़्यादा महत्त्व किसी ने नहीं दिया है। अमेरिका में भारतीयों की संख्या पिछले वर्षों में बढऩे के बावजूद उनके वोट चुनाव में निर्णायक नहीं रहते। एच-1 वीजा पर अमेरिकी प्रशासन हमेशा मनमाना फैसला करता रहा है; जिसका असर भारतीय छात्रों पर पड़ा है। लेकिन एचवन वीजा के ग्रीन कार्ड और फिर नागरिक बनने यानी वोट डालने का अधिकार पाने में किसी भारतीय को आज की तारीख में 12 से 15 साल का समय लग जाता है।
वर्तमान में यह धारणा है कि भारतीय समुदाय रिपब्लिकन पार्टी से नाराज़ है। दिसंबर महीने तक एच-1 वीजा से लेकर कई अन्य वीजा सेवाएँ बन्द कर दी गयी हैं। इससे अमेरिका में रहने वाले भारतीयों परिवारों के कुछ सदस्य फँस गये हैं। कुछ तो ऐसे हैं, जिनका घर बार अमेरिका में है और आधा परिवार वीजा प्रक्रिया के कारण भारत में अटका हुआ है। भारतीय समुदाय मानता है कि ट्रंप का वीजा से जुड़ा निर्णय एक राजनीतिक फैसला है और चुनाव के बाद ट्रंप खुद प्रतिबन्ध खत्म कर देंगे। भारतीय आईटी इंजीनियरों को अमेरिका की जितनी ज़रूरत है, उतनी ही अमेरिका को भारतीय इंजीनियरों की है। चीन से तनातनी के बाद जो तस्वीर बदली है, उसमें भारतीय इंजीनियर और महत्त्वपूर्ण हो गये हैं।
ट्रंप के फैसले से भारतीय छात्र प्रभावित
ट्रंप को लेकर भारत के छात्र सॉफ्ट माने जाते रहे हैं। लेकिन हाल में अमेरिका में रहने वाले विदेशी छात्र ट्रंप प्रशासन के एक फैसले से प्रभावित हुए हैं। अमेरिकी सरकार ने कहा है कि जिन छात्रों की सभी क्लासेस ऑनलाइन शिफ्ट हो गयी हैं, उन्हें देश लौटना होगा। इमीग्रेशन एंड कस्टम एनफोर्समेंट डिपार्टमेंट ने जो आदेश जारी किया है; उसके मुताबिक, वह विदेशी छात्र जो अमेरिका में ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्सेस कर रहे हैं और जिनकी सभी क्लासेस ऑनलाइन कंडक्ट की जा रही हैं, उन्हें देश छोडऩा होगा। ट्रंप प्रशासन के इस फैसले से करीब 10 लाख छात्र प्रभावित हुए हैं, जिनमें से अकेले भारत के दो लाख से ज़्यादा छात्र हैं। वैसे अमेरिका में छात्र ही नहीं अप्रवासियों के मामले में भी चीन के ही लोग सबसे ज़्यादा रहते हैं, जिनके बाद भारतीयों का नम्बर आता है। अमेरिका में मौज़ूद हर 6 अप्रवासी में एक भारतीय है। देखा जाए, तो अमेरिका में भारतीय बड़ी संख्या में आईटी सेक्टर से जुड़े हैं। अमेरिकी की कुल आबादी 32.6 करोड़ है, जिसमें से अप्रवासियों की संख्या 4.5 करोड़ के करीब है। इस तरह वहाँ अप्रवासी कुल आबादी का करीब 14 फीसदी हैं। वहाँ चीन के 28 लाख से ज़्यादा, जबकि भारत के 26 लाख से ज़्यादा अप्रावासी हैं। अमेरिका में ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन वाले स्टूडेंट्स के लिए एफ-1 और एम-1 कैटेगरी के वीजा जारी किये जाते हैं। लेकिन ट्रंप प्रशासन के फैसले से छात्र बड़ी संख्या में प्रभावित होंगे। वैसे यह आदेश उन्हीं छात्रों पर लागू होगा, जिनकी सभी क्लासेस ऑनलाइन हैं और जिनका कॉलेज या यूनिवॢसटी जाना ज़रूरी नहीं। अकेले साल 2019 में 2,02,014 भारतीय छात्र अमेरिका गये थे। इनमें से ज़्यादातर न्यूयॉर्क, कैलिफोॢनया, टेक्सॉस, मेसाचुसेट्स और इलिनॉय में हैं।
जॉर्ज फ्लॉयड की मौत से उठा तूफान
अमेरिका में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत वहाँ एक बड़ा मुद्दा बना है। पूरे अमेरिका में हिंसक विरोध-प्रदर्शन हुए हैं और कुछ लोगों की इसमें मौत भी हुई है। हज़ारों गिरफ्तार हुए हैं। अरबों डॉलर की सम्पत्ति को नुकसान हुआ है। यहाँ तक कि व्हाइट हाउस के बाहर बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिसके बाद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को बंकर में जाने को मजबूर होना पड़ा। एक तरह से जॉर्ज फ्लॉयड अमेरिका में न्याय और बराबरी माँग के प्रतीक बन गये हैं। उनके समर्थक ट्रंप हो गये हैं, जिसका चुनाव में असर पड़ेगा। दरअसल 25 मई को अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड को जब पुलिस ने पकड़ा, तो उन्होंने कहा कि उन्हें साँस लेने में परेशानी हो रही थी। पुलिस हिरासत में उनकी मौत होने के बाद यह वीडियो अमेरिका भर में सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, जिसके बाद हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गये। फ्लॉयड (46) अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय से थे। वह नॉर्थ कैरोलिना में पैदा हुए और टेक्सॉस के ह्यूस्टन में रहते थे। काम की तलाश में कई साल पहले मिनियापोलिस चले गये थे। जॉर्ज मिनियापोलिस के एक रेस्त्रां में सुरक्षा गार्ड का काम करते थे और उसी रेस्त्रां के मालिक के घर पर किराया देकर पाँच साल से रहते थे। जॉर्ज को बिग फ्लॉयड के नाम से जाना जाता था। फ्लॉयड को एक दुकान में नकली डॉलर का इस्तेमाल करने के संदेह में गिरफ्तार किया गया था। पुलिस के मुताबिक, जॉर्ज पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 20 डॉलर (करीब 1500 रुपये) के फर्ज़ी नोट के ज़रिये एक दुकान से खरीदारी की कोशिश की। इसके बाद एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें पुलिस अधिकारी को घुटने से आठ मिनट तक जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन दबाते हुए देखा गया। वीडियो में जॉर्ज कहते हुए सुना जा सकता है कि मैं साँस नहीं ले सकता (आयी कान्ट ब्रीद)। बाद में फ्लॉयड की चोटों के कारण मौत हो गयी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक, गर्दन और पीठ पर दबाव के कारण फ्लॉयड की मौत दम घुटने से हुई। फ्लॉयड की मौत की खबर आग की तरह फैली और प्रदर्शन शुरू हो गये। मामले में श्वेत अधिकारी डेरेक चाउविन को गिरफ्तार किया और उन पर थर्ड डिग्री हत्या और मानव वध का आरोप लगाया गया। अब यह मामला चल रहा है।