विरोध बनाम अभिव्यक्ति की आज़ादी

फिल्में समाज का आईना होती हैं। इस कारण स्वाभाविक है कि इनकी विषय वस्तु अक्सर सामाजिक तौर पर घट रही घटनाओं या खास व्यक्तियों पर ही आधारित होती है। विषय चाहे कोई भी हो पर फिल्मों का मकसद सदा मनोरंजन ही रहा है और रहेगा। जब भी मनोरंजन के अलावा किसी और पक्ष को ध्यान में रख कर कोई छायाचित्र बनाया गया तो एक तरफ विरोध और दूसरी ओर अभिव्यक्ति की आज़ादी का मामला सामने आ जाता है।

केवल मनोरंजन के लिए बनाई जाने वाली फिल्मों से धीरे-धीरे ये फिल्में इतिहास, पौराणिक कथाओं, खेल, और व्यक्तित्व की पृष्ठभूमि से होती राजनैतिक विषयों तक पहुंच गई। फिल्मों में राजनीतिक दखल तो शायद अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ से हो गया था और ‘आंधी’ जैसी फिल्मों ने इसे आगे बढ़ाया। लेकिन उस समय उन फिल्मों के किरदार किसी राजनेता जैसे होते थे, पर उनके नाम सीधे तौर पर उस नेता के नहीं होते थे। अब तो जो दो फिल्में चर्चा में हैं वे हैं ‘द एक्सिडेंटल प्राईम मिनिस्टर’ और ‘ठाकरे’। ‘द एक्सिडेंटल प्राईम मिनिस्टर’  में पूर्व प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह का किरदार अनुपम खेर ने निभाया है। दूसरी फिल्म ‘ठाकरे’ शिवसेना के सर्वेसर्वा बाल ठाकरे पर बनी है। देश के सेंसर बोर्ड ने इस के कुछ दृश्यों पर आपत्ति की है।  कुछ समाचार पत्रों की रिपोर्ट के मुताबिक शिवसेना का कहना है कि चाहे सेेंसर बोर्ड कुछ भी कर ले पर वे इस फिल्म को दर्शकों तक बिना किसी ‘कट’ के पहुंचा कर रहेंगे। वे लोग ऐसा किस प्रकार करेंगे इस बात का कोई खुलासा नहीं हुआ है।

जहां तक ‘द एक्सिडेंटल प्राईम मिनिस्टर’ की बात है तो इसे जिस समय रिलीज़ किया जा रहा है, वह समय है देश में आम चुनाव का। चुनाव एक-दो महीने दूर है। कांग्रेस पार्टी की इस पर नाराजग़ी है। उन्हें भरोसा है कि इस फिल्म के माध्यम से भाजपा कांग्रेस को बदनाम करने की कोशिश करेगी। उनके अंदेशे का बड़ा कारण है फिल्म में भाजपा के कट्टर समर्थक अनुपम खेर का होना। खेर ने ही फिल्म में डाक्टर मनमोहन सिंह की भूमिका निभाई है।  अनुपम खेर जो कुछ समय तक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में भाजपा के प्रतिनिधि के रूप में छात्रों पर अपना प्रभाव डालने का विफल प्रयास करते रहे इस फिल्म के ‘प्रोमो’ में भी है। यही वजह है कि कड़ाके की इस सर्दी में भी यह फिल्म राजनैतिक गलियारों में गरमी फैला रही है। भाजपा जो संवैधानिक अधिकार और अभिव्यक्ति के अधिकारों का तर्क देकर इसे रिलीज़ कराने के पक्ष में है वह कुछ ही समय पूर्व फिल्म ‘पदमावत’ के खिलाफ सिनेमा हाल फूंकने की बात क्यों कर रही थी? यह पार्टी फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ का पंजाब में विरोध करने के समय अभिव्यक्ति की आज़ादी के बारे में कोई बात नहीं करती थी। बात यहां खत्म नहीं होती है कि राजनैतिक दल केवल अपनी सुविधा और फायदे के लिए ही अभिव्यक्ति के इस मुद्दे को उठाते हैं जबकि इसमें विश्वास किसी भी पार्टी का नहीं है। अब प्रश्न यह उठता है कि इस प्रकार की राजनैतिक हितों वाली फिल्मों का आम लोगों पर क्या असर पड़ता है? पढ़े-लिखे लोग फिल्म के बारे में फैले विवाद से पैदा हुई उत्सुकता को शांत करने के लिए फिल्म देख लेते हैं, पर फिल्म से किसी पार्टी के बारे में उनकी सोच नहीं बदलती। लेकिन राजनैतिक दलों से जुड़े लोग तो बिना फिल्म देखे ही अपनी पार्टी के सिद्धांत के हिसाब से अपनी प्रतिक्रिया दे देते हैं।

बाकी रहा कम पढ़ा-लिखा और मज़दूर वर्ग। उसके ऊपर थोड़ा बहुत प्रभाव ज़रूर पड़ सकता है। पर राजनीति पर आधारित अब तक बनी फिल्मों में से कोई भी ऐसी मज़बूत फिल्म नहीं है जो आम दर्शकों के विचारों और उसकी आस्था को बदलने की समर्थता रखती हो। अधिकतर फिल्में तो ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’ की कहावत को चरितार्थ करती है। बहुत सी फिल्में तो प्रेम प्रसंगों पर ही आधारित रही हैं। वे सभी नायक और नायिका को अमीरी और गऱीबी की चैड़ी खाई को लांघ कर और जाति-पाति की जंज़ीरों को तोड़ कर अपने प्यार को विजयी बनाने की कहानियों पर आधारित रही हैं। यह विषय मध्यवर्गी  परिवारों के युवाओं को अपनी ओर तेजी से आकर्षित करता और फिल्म चल पड़ती थी। ‘जब-जब फूल खिले’, ‘पाकीजा’, ‘नीलकमल’, ‘नूरी’, ‘बॉबी’ और ‘गाईड’ जैसी   हजारों फिल्में इसी वर्ग में आती हैं। फिल्मों का यह ऐसा वर्ग है जिस पर कोई किंतु-परंतु होने की संभावना नहीं के बराबर होती है।

धीरे-धीरे बॉक्स आफिस को ध्यान में रखते हुए कुछ निर्माताओं ने नग्नता का मसाला फिल्मों में परोसना शुरू किया। यह हमारी फिल्मों के लिए नया तो नहीं था पर समाज के हर वर्ग को उसने आकर्षित किया। ‘जूली’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘राम तेरी गंगा मैली’,  ‘टारजन’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम्’ और ‘डर्टी पिक्चर’ जैसी फिल्मों में परोसे गए मसाले को लोगों ने पसंद तो किया पर इनके खिलाफ कहीं विरोध के स्वर भी सुनाई दिए। ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं पर बनी फिल्मों का एक अलग वर्ग है। इसमें सिकंदर, रूस्तम-सौराहब, झांसी की रानी, और मुगल-ए-आज़म जैसी फिल्में बनीं। ये सभी फिल्में पुराने समय के नायक और नायिकाओं के जीवन पर आधारित थी। ये वे लोग थे जिन्हें दर्शकों ने कभी रू-ब-रू  नहीं देखा था। इस कारण कभी इनका विरोध भी नहीं हुआ।

फिल्मों का एक और वर्ग जिसमें – संजू, दंगल, भाग मिल्खा भाग, सचिन ए बिलियन ड्रीम्स, एमएस धोनी की अनटोल्ड स्टोरी और मैरीकॉम जैसी फिल्में मौजूदा हस्तियों पर बनीं जिन्हें काफी सराहा भी गया। इनका कहीं विरोध देखने को नहीं मिला।