जुलाई, 2016 में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कैबिनेट में फेरबदल करने जा रहे थे, तो उनका कहना था- ‘मेरे लिए सफलता का अर्थ है कि लोग बदलाव महसूस करें। यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े, तो मैं इसे सफलता नहीं मानूँगा।’ लेकिन क्या मोदी सरकार ऐसा कुछ कर सकी कि लोग बदलाव महसूस कर सकें?’ राजनीतिक टिप्पणीकारों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनावी राजनीति में जितने चतुर सुजान साबित हुए, क्या नीतियों की कसौटी पर भी उतने ही खरे साबित हुए? लेकिन मौजूदा स्थितियों पर वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन की यह टिप्पणी बहुत कुछ कह देती है, जो उन्होंने मोदी के पदारूढ़ होने से पहले कर दी थी, कि ‘अगर वे चाहेंगे कि उनका प्रधानमंत्रित्वकाल दीर्घजीवी हो, तो उन्हें अपनी विचारधारा में भी ज़रूरी फेरबदल करने होंगे। आिखर जिस देश के वे प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं, वो बहुत बड़ा और बड़ी अपेक्षाएँ रखने वाला देश है। लेकिन इन अपेक्षाओं के पंख जैसे भी हों, इनके पाँव कहाँ हैं?’ खेल जगत में बेशक यादें धुँधली पड़ जाती हैं; लेकिन सियासी दंगल में ऐसा नहीं होता। बल्कि ये यादें शूल की तरह चुभने लग जाती हैं। सफलता के आवरण और गुणगान के पीछे जो मुद्दे कुलबुला रहे थे, उनको लेकर सरकार क्यों लोगों को मुतमईन नहीं कर सकी? अब अगर विपक्ष मंदी की नब्ज़टटोल रहा है, टूटती अर्थ-व्यवस्था को विस्मय से झाँक रहा है; रोज़गार, महँगाई और खेती-किसानी को लेकर सरकार को आईना दिखाने पर तुला है, तो क्या भावनाओं की हवाबाज़ी से अहम मुद्दों को दरकिनार करने से काम चल जाएगा?
बहरहाल, ताकत और अवसरों के केन्द्रीकरण ने विपक्ष को उठापटक का मौका दे दिया है । हालाँकि इस ऊर्जा और उत्साह के पीछे हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा के उतरते खुमार की छौंक भी है। मोदी सरकार की नेकनामी पर जिस तरह गरम हवा के थपेड़े लग रहे हैं। उसके मद्देनज़र विपक्ष में बदलाव की कोशिशों की जुस्तज़ू उठनी ही थी। विरोध का यह दायरा दिल्ली की सरहदों को लाँघते हुए पूरे देश में फैलना-पसरना है। यह कोशिश कितनी कामयाब होती है? बेशक यह देखना दिलचस्प होगा। बहरहाल कांग्रेस की अगुआई में 13 राजनीतिक दलों ने मोदी सरकार को सडक़ से संसद तक घेरने का खाँचा गढ़ लिया है। मोदी सरकार के िखलाफ घिर रहा तूफान कितना मज़बूत है, यह समझने के लिए यही तथ्य काफी है कि देश-भर के जि़ला मुख्यालयों पर सत्ता का भ्रम तोडऩे के लिए धरना-प्रदर्शन का लम्बा सिलसिला चलेगा।
जिस समय कांग्रेस की रहनुमाई में विपक्षी दल मोदी सरकार को उनके किये पर गौर करने को मजबूर कर रहे हैं, कांग्रेस के कद्दावर नेता और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सवालों की झड़ी लगा दी है, जो यह बताने को काफी है कि ‘आिखर दर्द कहाँ पर है और इसका इलाज कहाँ है? बेशक गहलोत का पत्रकारों के साथ संवाद ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के ‘आइडिया एक्सचेंज’ कार्यक्रम में था; लेकिन पूरी तरह मोदी सरकार की नीतियों, योजनाओं और प्रयोगों को कटघरे में खड़ा कर रहा था। मोदी सरकार की घेराबंदी को लेकर गहलोत ने कहा- ‘मंदी की चुभन में पूरा देश कराह रहा है। दरकती अर्थ-व्यवस्था को लेकर हरेक शख़्स में छटपटाहट है और यह बढ़ती जा रही है। इसलिए कांग्रेस के लिए यही मुनासिब वक्त है कि आगे आकर जनमत को सक्रिय करे। उन्होंने कहा लोग साफ महसूस कर रहे हैं कि मोदी सरकार के वादे हवा में टँग गये हैं। तबाही के इलाके से बाहर निकलने की कोई राह मोदी सरकार को सूझ तक नहीं रही है। जनता इसकी पूरी तरह नाप-जोख कर रही है।’ गहलोत ने कहा- ‘देश का मूड बदल रहा है। लोग गुस्से से बिफर रहे हैं। हर रोज़उनकी तादाद में इज़ाफा हो रहा है। जनता की इस नाराज़गी को अभियान में बदलने की ज़रूरत है। सडक़ पर उतरने और राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेडऩे का यही सही वक्त है।’
अपने ज़ेहन में छायी एक तस्वीर को गहलोत ने शब्दों में उकेरते हुए कहा- ‘जब आंदोलन ज़ोर पकड़ेगा, तो ज़्यादा से ज़्यादा लोग इसमें शामिल होंगे। जैसे-जैसे यह सिलसिला आगे बढ़ेगा, वैसे-वैसे लोगों का डर ख़त्म होने लगेगा कि इस लड़ाई में वे सिर्फ अकेले नहीं हैं। उनमें हौसला पैदा होगा।’ गहलोत ने सवाल किया कि न्यायपालिका जिस ढंग से काम कर रही है, क्या इससे पहले किसी ने ऐसी उम्मीद भी की थी? गहलोत का कहना था कि न्यायपालिका, आयकर महकमा, सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय अथवा नौकरशाह और एजेंसियाँ सभी एक ही दिशा में काम कर रही हैं। लोगों को बेमतलब डरा रहे हैं; जबकि डर के आगे जीत है। जब विपक्षी दल एक मकसद के साथ आगे बढ़ेंगे, तो क्या लोगों के सोच में तब्दीली नहीं आएगी? अगर आप पुख़्ता सोच के साथ आगे बढ़ेंगे, तो नौकरशाह और एजेंसियाँ बदलाव की दस्तक अनसुनी नहीं कर पाएँगी।
गहलोत ने बड़ी बेबाकी से कहा- ‘अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह ढलान पर जा चुकी है। जीडीपी के फार्मूले ने तो अर्थ-व्यवस्था दरकने के दर्द को भी अनसुना कर दिया। रोज़गार के दावे जड़ नहीं पकड़ पा रहे हैं। रोज़गार के अवसर हैं भी, तो गिने-चुने इलाकों में। ऑटोमोबाइल सेक्टर हो या रियल एस्टेट कारोबार, ये रोज़गार के चुम्बक हैं। लेकिन जब ये क्षेत्र खुद ही डूब रहे हैं, तो किसे रोज़गार देंगे? छोटे कारोबारियों का गुस्सा बुरी तरह खदबदा रहा है।’
गहलोत ने हैरानी जतायी कि मीडिया किस कदर दबाव में है? उन्होंने यहाँ तक कहा- ‘चुनाव आयोग एक सनक को लेकर काम कर रहा है। उस पर कोई उँगली उठाने वाला तक नहीं है।’ उन्होंने झारखंड में पाँच चरणों में चुनाव कराने के औचित्य पर सवालों की झड़ी लगा दी। चुनाव के दौरान सरकारी मशीनरी और फण्ड्स के बेजा इस्तेमाल की आशंका जताने से भी गहलोत पीछे नहीं रहे।
उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी आलोचना करते हुए कहा- ‘संघ एक प्रकार से अतिरिक्त संवैधानिक अथॉरिटी के रूप में काम कर रहा है। क्यों इस बाबत मीडिया ने कभी नहीं लिखा? राज्यपाल या मुख्यमंत्री, हर नियुक्ति में आरएसएस की सलाह लेने का क्या मतलब हुआ? क्या आरएसएस एक एक्स्ट्रा संवैधानिक अथॉरिटी के रूप में काम नहीं कर रहा है? संघ के चयन के बाद ही मुख्यमंत्री और राज्यपाल नियुक्त होते हैं। यहाँ तक कि अफसर ऑन स्पेशल ड्यूटी पर भी संघ की मजऱ्ी पर तैनात होते हैं। आिखर संघ की इतनी घुसपैठ क्यों? मीडिया इस पर खामोशी अख़्ितयार किये हुए है। क्या इसलिए कि उस पर प्रवर्तन निदेशालय महकमे के छापों की तलवार लटक रही है?’
गहलोत ने एक गहन रहस्य की ओर इशारा करते हुए सांकेतिक भाषा में कहा- ‘आप यह कभी नहीं जान सकते कि जनता का मूड कब बदल जाएगा? परिवर्तन की कहानी बहुत आहिस्ता से चलती है। अब जिस तरह एकाधिकारों का पोषण किया जा रहा है, परिवर्तन के संकेत साफ नज़र आने लगे हैं। इंदिरा गाँधी के मामले में भी जनता का मूड नाटकीय तरीके से बदला था। 1977 में सत्ता से बाहर किये जाने के बाद वे फिर से सत्ता पर काबिज़ हुई थी।’
गहलोत ने बड़ी बेबाकी से कहा- ‘इसी प्रकार नरेन्द्र मोदी के मामले में भी परिवर्तन हो सकता है।’ उन्होंने कहा कि यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि हार और जीत प्रजातंत्र के हिस्से हैं। लेकिन कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को हौसला तो दिखाना चाहिए। आगे बढक़र वार तो करना चाहिए?