पिछले दिनों दिग्विजय सिंह का बयान आया कि सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी से बेहतर प्रधानमंत्री साबित हो सकती हैं. इसके बाद सिंह के ही अंदाज में स्वराज ने भी चुटकी ली कि वे राहुल गांधी से बेहतर प्रधानमंत्री बनेंगे. इस राजनीतिक चुहल के दोनों के लिए अपने-अपने मायने हों या न हों, लेकिन इस लोकसभा चुनाव में राहुल व मोदी के बजाय इन दोनों को एक दूसरे के खिलाफ ही सबसे ज्यादा मेहनत करनी है.
विदिशा से सुषमा स्वराज के खिलाफ कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के छोटे भाई लक्ष्मण सिंह को टिकट दिया है. इतिहास बताता है कि पार्टी से पांच बार लोकसभा (राजगढ़ सीट पर कांग्रेस से चार और भाजपा से एक बार) और दो बार विधानसभा सदस्य रहे लक्ष्मण का प्रभाव अपनी पुश्तैनी रियासत राघौगढ़ के आगे नहीं जा पाता. स्थानीय पत्रकार नावेद खान बताते हैं, ‘ऐसे में विदिशा जैसी सीट पर उनकी उम्मीदवारी का सीधा मतलब है कि मुकाबला दिग्विजय सिंह बनाम सुषमा स्वराज है.’ यह इस बार विदिशा में लोकसभा चुनाव का सबसे दिलचस्प पहलू है. दूसरे दिलचस्प पहलू के बारे में यहां के एक अन्य रहवासी अमर यादव बताते हैं, ‘चुनाव लड़ने वाले नाम जरूर बड़े हैं, लेकिन क्षेत्र में लहर अभी किसी की नहीं है. कुछ दिन पहले सुषमा स्वराज की रैली हुई थी लेकिन उसमें भीड़ ही नहीं जुटी. ‘
अपने बनने यानी 1967 के बाद से ज्यादातर भाजपा के कब्जे में रही है. तकरीबन 35 फीसदी सवर्ण मतदाता वाले इस लोकसभा क्षेत्र में सवर्णों से लेकर अनुसूचित जाति (20 प्रतिशत), पिछड़ा वर्ग (15 प्रतिशत), अनुसूचित जनजाति (12 प्रतिशत) और मुस्लिम (10 प्रतिशत) तक का मतदाता वर्ग है लेकिन कोई पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि उसका किसी वोटबैंक पर कब्जा है. वैसे 1989 से यहां की जनता लगातार भाजपा उम्मीदवारों को जिताती रही है. पार्टी के लिए सुरक्षित सीट का दर्जा पा चुकी विदिशा से रामनाथ गोयनका (इंडियन एक्सप्रेस अखबार के प्रकाशक) और अटल बिहारी वाजपेयी (1991) जैसे दिग्गज भी चुनाव लड़ चुके हैं. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह यहां से चार बार लोकसभा सांसद रह चुके हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में बुदनी के साथ-साथ उन्होंने इस सीट से भी चुनाव लड़ा और जीता. बाद में उन्होंने यहां से इस्तीफा दे दिया था. सुषमा स्वराज को 2009 में शिवराज ही यहां लाए थे. कुछ उनके प्रभाव और कुछ कांग्रेस उम्मीदवार की ‘मेहरबानी’ से स्वराज साढ़े तीन लाख वोटों के भारी अंतर से जीती थीं. उस समय यह आंशिक तौर पर दिग्विजय सिंह की हार थी. चुनाव में राजकुमार पटेल कांग्रेस के उम्मीदवार थे लेकिन चुनाव नामांकन के ठीक आखिरी दिन उन्होंने उम्मीदवारी का पर्चा भरा और वह खारिज हो गया. इसके बाद यह चर्चा जोरों पर चल पड़ी कि पटेल ने भाजपा से सांठगांठ कर नामांकन पत्र भरने में गलती की थी. पटेल चूंकि दिग्विजय सिंह के करीबी माने जाते हैं इसलिए उनपर भी उंगलियां उठीं. इस बार लक्ष्मण सिंह के उम्मीदवार बनने पर माना जा रहा है कि दिग्विजय सिंह पिछली बार की गलती को सुधारना तो चाहते ही हैं साथ ही उन्हें भाजपा में जाकर वापस आए अपने भाई का पार्टी में पुनर्वास भी करना है. हालांकि क्षेत्र में पार्टी का अतीत देखते हुए कहा जा सकता है कि सिंह बंधुओं के लिए विदिशा से आश्वस्त होने की ज्यादा वजहें नहीं हैं.
लेकिन सुषमा स्वराज भी यहां आम लोगों के लिए ऐसी जनप्रतिनिधि साबित नहीं हो पाईं जिन्हें वे सरमाथे पर बिठाना चाहें. ग्रामीण क्षेत्रों में लोग उनसे खासे नाराज हैं. स्वराज ने पिछली बार चुनाव जीतने के बाद इस क्षेत्र में कुछ गांवों को चिह्नित कर उन्हें गोद लेने की बात कही थी लेकिन उस दिशा में उन्होंने कुछ नहीं किया. ऐसे और भी वादे हैं जो हकीकत नहीं बन सके. इन वजहों से पांच साल में उनकी कहने लायक कोई विरासत नहीं है. इसबार भी उन्हें जो समर्थन मिलेगा वह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की वजह से होगा. लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में खुद चौहान विदिशा सीट से सिर्फ 15 हजार मतों के अंतर से जीत पाए थे. इसके अलावा पिछले विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में भाजपा की लहर के बावजूद यहां की आठ विधानसभा सीटों में से दो सीटें भाजपा, कांग्रेस के हाथों गंवा चुकी है. बाकी में भी जीतहार का अंतर 2008 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले कम हुआ है. ये तथ्य कांग्रेस के लिए उम्मीद पैदा कर रहे हैं. लक्ष्मण सिंह के बहाने दिग्विजय सिंह की उपस्थिति ने इस क्षेत्र में पार्टी की गुटबाजी को एक हद तक खत्म कर दिया है. यदि हम लक्ष्मण सिंह और सुषमा स्वराज को एक बार किनारे कर दें तो आने वाले चुनाव में यह सीट एक पूर्व और एक वर्तमान मुख्यमंत्री के बीच जोरआजमाइश का नजारा दिखाने के लिए बिल्कुल तैयार है.