पटना की एक चौपाल में कुछ दिन पहले बिहार की हालिया राजनीतिक हलचल की चर्चा चल रही थी. वरिष्ठ कम्युनिस्ट उपेंद्रनाथ मिश्रा ने कुछ दिन पहले का एक प्रसंग सुनाते हुए कहा, ‘पटना से सटे नौबतपुर के निकट तरेतपाली मठ में एक यज्ञ चल रहा है. यह यज्ञ चार माह तक चलने वाला है. उस यज्ञ में एक दिन लालू प्रसाद यादव अपने भरोसेमंद साथी के साथ पहुंचे. लालू ने सहयोग राशि के तौर पर यज्ञ में मोटी रकम दान में दी, अपने साथी को भी देने को कहा. बाद में वहां उपस्थित लोगों को समझाया कि ‘आप लोगों के बीच हमें लेकर गलतफहमी पैदा हुई थी कि हम दुश्मन हैं. गलतफहमी दूर कीजिए और खुद आंककर देखिए कि हमने क्या कभी आप लोगों का बुरा चाहा!’ लालू के शब्दों में पश्चात्ताप की झलक थी.’ बतकही चल रही थी, चटखारे ले-लेकर नेताओं से जुड़े प्रसंग सुने-सुनाए जा रहे थे. लिहाजा पहले तो लगा कि मिश्रा जी सिर्फ मजे लेने के लिए कहानी सुना रहे हैं. लेकिन तस्दीक करने पर मालूम हुआ कि लालू प्रसाद चार जुलाई को सच में वहां पहुंचे थे और मठाधीश धरनीधर से मिले थे. सार्वजनिक भाषण तो नहीं दिया लेकिन दान देने की बात जरूर सामने आई.
असल में तरेतपाली मठ के जरिए जिस सवर्ण समूह के बीच लालू प्रसाद पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं उसमें कुछ भी नया नहीं है. उनका इस मठ से पुराना रिश्ता रहा है. वैसे भी मंदिरों-मठों में लालू की की आवाजाही सामान्य बात है. कभी सोनपुर, कभी देवघर-बासुकीनाथ मंदिर, फौजदारी बाबा के दरबार में तो कभी तरेतपाली मठ में वे आते-जाते रहते हैं. धर्म के जरिए भावनाओं के दोहन की कोशिश भी करते रहे हैं. अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने कहा कि सरकार के पाप से राज्य अकाल के गाल में सामने वाला था लेकिन उन्होंने राबड़ी देवी के साथ जाकर भगवान की आराधना की तो बारिश हुई. इसके पहले भी लालू नीतीश द्वारा सूर्यग्रहण के दौरान बिस्कुट खा लेने का बयान दे चुके हैं. धार्मिक भावनाओं को उभारकर राजनीतिक पैंतरेबाजी करना उनकी प्रवृत्ति बनती जा रही है. जानकार मानते हैं कि सब कुछ गंवाने के बाद होश में आए लालू एक वोट बैंक की तलाश में ऐसे रास्ते पर निकल गए हैं जो उन्हें दोबारा खड़ा भी कर सकता है और उतनी ही संभावना है कि वे इतिहास का हिस्सा बन कर रह जाएं.
केंद्र में संभावनाओं के सभी दरवाजे बंद होने, कांग्रेस द्वारा कतई घास नहीं डाले जाने के बाद लालू प्रसाद ने बिहार में अपनी आवाजाही बढ़ा दी है. वरना बिहार और पटना से उनका नाता सुबह-शाम का ही रह गया था . लालू की इस कमजोरी को भांपकर ही नीतीश कुमार ने उन्हें ‘नान रेसिडेंट बिहारी’ का नाम दिया था. हालांकि दिल्ली में मगन लालू ने इस बीच अपने हिसाब से कुछ जरूरी घरेलू काम भी निपटाए. मसलन बेटे के लिए औरंगाबाद में लारा (लालू-राबड़ी) नाम से मोटरसाइकिल शो रूम खुलवाया, बेटियों की शादी की, विधानसभा चुनाव में दो सीटों पर हार कर घर में बैठी पत्नी राबड़ी देवी को विधान परिषद सदस्य बनवाया और दिल्ली में अपने पार्टी कार्यालय का नामकरण राबड़ी भवन कर दिया. जरूरी घरेलू कामकाज से निपट कर अब वे इधर कुछ दिनों से कमर कसकर बिहार की राजनीति में हाथ-पांव मारते हुए दिख रहे हैं. लेकिन उसकी दिशा अब भी तय नहीं कर पा रहे हैं. राजद के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘जमीन पर रहने और जमीनी सच्चाई से अवगत होने की हमारे नेता की आदत सालों पहले ही छूट गई है. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के उत्थान के बाद वे आंखों में चमक लिए घूम रहे हैं कि क्या पता कब करिश्मा हो जाए, लेकिन मुलायम-अखिलेश की तरह सरकार के खिलाफ जमीनी संघर्ष का माद्दा नहीं जुटा पा रहे हैं. उनके पास ठोस रणनीति का भी अभाव है.’
जदयू-भाजपा के रिश्ते में आई हालिया खटास से भी लालू उत्साहित हैं. उन्हें लगता है कि दोनों दलों का अलगाव उनकी वापसी को संभव बना सकता है.
मुसलिम-यादव समीकरण साधकर डेढ़ दशक तक बिहार में राज करने वाले लालू की कार्यशैली देखकर यह बात सही भी लगती है. इन दिनों दो-चार दिन के अंतराल पर वे नीतीश सरकार को निशाने पर लेते हैं और कभी-कभी आंकड़ों की भाषा में भी बात करते हैं. इससे लगता है कि वे गंभीर हैं. लेकिन इसी बीच वे कुछ ऐसा भी कर देते हैं या बोल देते हैं जिससे उनका पुराना खिलंदड़ रूप सामने आ जाता है. पिछले दिनों जब कुख्यात ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ मुखिया की आरा में हत्या हुई तो उन्होंने मुखिया को बड़ा आदमी बता दिया. पिछले सप्ताह जब वे अपनी पार्टी के स्थापना दिवस समारोह में पहुंचे तो उन्होंने नया शिगूफा छोड़ दिया कि राज्य का मुख्यमंत्री कोई सवर्ण भी हो सकता है. इसके बाद उन्होंने 50 प्रतिशत युवाओं को टिकट देने की घोषणा की. स्थापना दिवस समारोह निपटाने के बाद लालू प्रसाद सात से दस जुलाई तक समस्तीपुर, दरभंगा, सीतामढ़ी इलाके में चार दिवसीय यात्रा पर निकले तो पारंपरिक तौर पर नीतीश को फरेबी, ठग और विश्वासघाती नेता बताते रहे. इसी दौरान उन्होंने राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी द्वारा डेढ़ महीने पहले दिए गए एक बयान का जवाब भी दिया. डेढ़ माह पहले सुशील मोदी ने लालू को बूढ़ा कहा था. इतने दिनों बाद लालू को पता नहीं कैसे उस बयान की याद आ गई. उन्होंने मोदी को ललकारा- ’हमरा सचिव था मोदी अब हमको बूढ़ा कहता है. हिम्मत है तो पटना के गांधी मैदान में आके कुश्ती में फरिया ले.’
जानकार मानते हैं कि लालू का यह सब कहना, सवर्ण मोह में फंसते जाना उनके भटकाव और द्वंद्व को ही दिखाता है. नीतीश शासन से एक वर्ग में बढ़ती नाराजगी के बावजूद लालू उस खाली जगह को भरते हुए नहीं दिख रहे. वे सवर्णों को ललचाने में लगे हैं जबकि पिछले माह उनकी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में तीन प्रमुख सवर्ण नेता (रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह, उमांशकर सिंह) गायब थे. तब खुसुर-फुसुर शुरू हो गई थी कि शायद राजपूत नेता नाराज हो गए हैं, इस बार राजद के स्थापना दिवस में शामिल होकर उन तीन नेताओं में से एक जगतानंद सिंह ने सफाई दी कि वे शक-शुबहा दूर करने के लिए आए हैं. राजपूत नेता तो फिर भी लालू के खेमे में शुरू से रहे हैं लेकिन भूमिहारों ने उनसे हमेशा दूरी बनाए रखी. अब लालू प्रसाद की नजर इस वर्ग पर है जिसके बारे में यह कहा जा रहा है कि यह समूह धीरे-धीरे नीतीश से नाराज होता जा रहा है. बिहार में दलितों पर बढ़ते अत्याचार के दौर में भी अगर लालू सवर्ण राग गाते फिर रहे हैं तो उसके पीछे यही बड़ी वजह बताई जा रही है कि वे भूमिहारों को अपने पाले में करके समीकरण बदलना चाहते हैं. ऐसा करते समय वे यह भूल जाते हैं कि अगर सवर्णों के बीच उनकी खलनायक जैसी छवि बनी थी तो उसकी सबसे बड़ी वजह भूमिहार ही थे. जानकारों के मुताबिक भूमिहारों की लालू से रार बहुत गहरी है और नीतीश से छोटी-मोटी नाराजगी उन्हें लालू के पाले में नहीं ला सकती. इसके अलावा नीतीश के साथ भाजपा की बैसाखी है जिससे भूमिहार सबसे ज्यादा जुड़ाव महसूस करते हैं.
लालू वाम दलों से भी समर्थन की उम्मीद लगाए बैठे हैं. वरिष्ठ वाम नेता उपेंद्र नाथ मिश्र कहते हैं, ‘फिलहाल यह स्वप्न जैसा है. वामपंथी यहां अपनी जमीन तलाशने में लगे हुए हैं, वे लालू प्रसाद के साथ जाने की भूल दोबारा नहीं करेंगे.’ लालू की बढ़ी हुई सक्रियता के पीछे मिश्रा जदयू-भाजपा के रिश्तों में आई तल्खी की भूमिका देखते हैं. लालू इससे करिश्मे की उम्मीद लगाए बैठे हैं. उन्हें लगता है कि जिस दिन दोनों दल अलग हो जाएंगे, उस दिन जातीय समूह के आधार पर वे नीतीश से बड़े नेता बन जाएंगे, क्योंकि यादव और मुसलिम का उनका समीकरण राज्य में एक बड़ा वोट बैंक बनाता है. हालांकि इसको लेकर भी लालू कल्पनालोक में खोए हुए हैं. यादवों के सबसे बड़े गढ़ मधेपुरा में शरद यादव उन्हें आउट कर चुके हैं, सोनपुर में राबड़ी हार चुकी हैं और मुसलमानों में पसमांदा समूह का राजनीतिक बंटवारा करके नीतीश ने उनके एमवाई समीकरण में सेंध लगा दी है.
बड़ी संभावना है कि जिस दिन नरेंद्र मोदी के नाम पर नीतीश भाजपा से अलग होंगे, उस दिन लालू के पास से मुसलमानों का भी एक बड़ा वोट बैंक नीतीश के पाले में चला जाएगा.
इन सियासी हालात के विपरीत लालू प्रसाद के रणनीतिकार भाजपा-जदयू के बीच पैदा हुई खटास के आधार पर समीकरण बिठाने में लगे हैं. 2010 के विधानसभा चुनाव में एक सिरे से सफाये के बावजूद उनका विश्वास उस आंकड़े पर टिका है कि जदयू का वोट प्रतिशत राजद से सिर्फ चार प्रतिशत आगे है और भाजपा तमाम उफानी जीत के बावजूद वोट प्रतिशत में राजद से करीब दो प्रतिशत पीछे है. लालू के रणनीतिकारों को लगता है कि दोनों अलग हुए तो लालू ही सबसे बड़े नेता होंगे. नीतीश का कुरमी जातीय आधार लालू के यादव से काफी कम है और भाजपा इधर-उधर के जुगाड़ से लालू से पार नहीं पा सकेगी. लेकिन लालू के रणनीतिकार शायद अब भी लालू को भुलावे में रखना चाहते हैं. नीतीश को हटाकर भी देखें तो 1990 के बाद देश-समाज तेजी से बदला है. मध्यवर्ग का तेजी से उभार हुआ है और जाति के साथ दूसरे किस्म के विकास-अस्मिता आदि का घोल मिलाकर ही राजनीति का रसायन तैयार किया जा सकता है. यह लालू के एजेंडे से गायब है और यही नीतीश का प्रमुख हथियार है.