1993 में जब मैं अपने दोस्तों के साथ रांची छोड़कर दिल्ली आया तो पांडवनगर में पहले माले पर बना दो छोटे-छोटे कमरों का एक घर हमारा पहला ठिकाना बना. अपने बहुत कम असबाब के साथ हम चार लड़के- मैं, राजेश प्रियदर्शी, संजय लाल और मंजुल प्रकाश उस घर में एक साथ रहा करते थे. मंजुल प्रकाश अपने साथ अपना टेप रेकॉर्डर भी लाया था जिसने हमें हमारा पांचवां दोस्त दिया- जगजीत सिंह. उस अजनबी शहर के संघर्ष भरे दिनों में जगजीत सिंह की गजलों के साथ हमारी सुबहें भी शुरू होतीं और शामें भी ढलतीं. ‘तेरा शहर कितना अजीब है, न कोई दोस्त है न रकीब है’- अक्सर हमें लगता कि जगजीत तो सिर्फ हमारे लिए गा रहे हैं. आम तौर पर बड़ी लापरवाही से अपना सामान रखने वाला मंजुल जगजीत सिंह के कैसेट बहुत संभाल कर रखता था और साहित्य से नाक भौं सिकोड़ने वाला रिश्ता रखने के बावजूद जगजीत सिंह की वजह से मेरे साथ विश्व पुस्तक मेले में जाकर गालिब का दीवान खरीद लाया था.
जगजीत सिंह की आवाज अचानक शब्दों को एक तरह की वैधता और सुरों को एक तरह की वास्तविकता दे डालती थी
हालांकि जगजीत सिंह के गायन से यह मेरा पहला परिचय नहीं था. शायद यह अस्सी का दशक रहा होगा जब पहली बार एक गैरफिल्मी गीत सुनकर मेरे पांव थम गए थे- ‘दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है.’ निदा फाजली की निहायत मानीखेज पंक्तियों को एक उतनी ही तल्लीन और गहरी आवाज गा रही थी. जिंदगी की पहेली को समझने की कोशिश में राग और विराग के बीच बना जो सूफियाना अंदाज होता है वह इस आवाज में जैसे न जाने कितनी रंगतों के साथ खुल रहा था. शायद इसी के आसपास मेरे किशोर दिनों को एक और गीत ने अपने से बांध लिया- ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी.‘ ये वे दिन थे जब हमारी आवाज भारी हो रही थी, चेहरे सख्त हो रहे थे, नई आती दाढ़ी-मूंछ का नुकीलापन अपनी ही निगाह में चुभता था और किसी कोमलता, किसी मासूमियत के पीछे छूट जाने का अनजाना-सा एहसास एक अनजानी उदासी भरता था. इसके बीच आए इस गीत ने जैसे एक मरहम का काम किया, एक मीठी हूक का, जो तब नहीं मालूम था कि ताउम्र बनी रहेगी और जगजीत सिंह को हमारे लिए जरूरी बनाए रखेगी.
इन्हीं दिनों दो फिल्मी गीत भी फिज़ाओं में गूंजने लगे- एक तो फिल्म `प्रेम गीत’ का `होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो.’ और दूसरा, `साथ-साथ’ का `ये तेरा घर ये मेरा घर, ये घर बड़ा हसीन है.’ अब सोचता हूं कि कई यादगार गीतों से भरी फिल्मी दुनिया के बीच ऐसा क्या था इन दोनों गानों में जिन्हें हम आज तक याद रखते हैं. न उम्र की सीमा हो और न जन्म का बंधन हो- ऐसी कामना करने वाले गीत तो हमारे यहां हजारों में हैं. दरअसल यह जगजीत सिंह की आवाज थी जो अचानक शब्दों को एक तरह की वैधता, सुरों को एक तरह की वास्तविकता दे डालती थी. उन्हें सुनते हुए अचानक जैसे पूरा माहौल असली हो उठता था, कामनाएं प्राप्य मालूम पड़ती थीं और गीत अपने सही अर्थ के साथ खुलता था.
कह सकते हैं कि यह भी कोई अनूठी बात नहीं थी. फिल्मी दुनिया में हमारे पास कई अनूठी और चित्र बनाने वाली आवाजें रहीं. कुंदनलाल सहगल, मोहम्मद रफी, मुकेश, किशोर कुमार, हेमंत कुमार, तलत महमूद, मन्ना डे, महेंद्र कपूर से लेकर लता मंगेशकर, आशा भोसले और कई दूसरे कलाकार तक अपने गायन से स्थितियों को बिल्कुल वास्तविक-दुख को बिल्कुल रोता हुआ, सुख को बिल्कुल हंसता हुआ, उदासी को बिल्कुल ड़ूबा हुआ और उल्लास को बिल्कुल उड़ता हुआ- बना डालते थे. फिर जगजीत सिंह अलग से- और वह भी फिल्मी संगीत की संपन्न दुनिया से बाहर- क्यों इतने बड़े हुए?
इस बात को समझने के लिए 70 और 80 के दशकों के उस दौर को समझना होगा जब हिंदी फिल्मों का संगीत अपनी कर्णप्रियता को छोड़ एक तरह के शोर और कोलाहल में बदल रहा था. निश्चय ही इसके अपवाद थे, लेकिन अचानक फिल्मी गीतों में एक तरह की स्थूलता चली आई थी- उनमें न संवेदना की गहराई रह गई थी, न स्मृति का विलास. एक तात्कालिक थिरकन और गूंज थी जो बस तब तक बनी रहती थी जब तक गीत चलता रहता था. उन गीतों में थिरकती हुई कायाएं थीं, तड़पती हुई आत्माएं नहीं थीं.
इस खालीपन के बीच जगजीत सिंह की आवाज आई- उस पुराने सोज को नया रंग देती हुई जो हमसे छूटता जा रहा था. इस आवाज की और भी खासियतें थीं. यह परंपरा से बंधी आवाज थी, लेकिन अपनी मौलिकता का भी निरंतर संधान करती थी. जगजीत सिंह की सफलता का एक पहलू इस तथ्य से भी बनता है कि उन्होंने बड़े करीने से शास्त्रीय और लोकप्रिय को एक साथ साधा. जगजीत सिंह से पहले गजल संगीत के जानकार लोगों की महफिल का नूर हुआ करती थी. जगजीत सिंह उसे बिल्कुल लोगों के बीच ले आए. निश्चय ही इसी दौर में पंकज उधास ने भी गजलें गाईं और वे लोकप्रिय भी हुईं, लेकिन उनमें एक तरह का सपाटपन था जिसकी सीमा बहुत आसानी से समझ में आती रही. जगजीत सिंह का कमाल यही था कि गजल को आम लोगों की जमीन पर उतारते हुए भी उन्होंने उसकी उड़ान बनाए रखी. उनकी गायकी का दूसरा सिरा उनके गीतों के चयन से भी जुड़ता था. जगजीत ने बहुत संभाल कर गजलें चुनीं. गालिब को चुना तो वे शेर छोड़ दिए जो लोगों को सहज ढंग से ग्राह्य नहीं हो पाते. निदा फाजली को भी लिया तो वे शेर लिए जो सीधे दिलों तक उतरते थे.
जगजीत अपनी उन्हीं गजलों और गीतों के सहारे हमारे बीच जिंदा हैं जो जिंदगी की धूप में घने साये का काम करते रहे
इत्तेफाक से यह वही दौर था जब भारत का गांव अपने टोले छोड़कर नए बनते शहरों में मुहल्ले बसा रहा था. साठ और सत्तर के बाद शहरीकरण की जो विराट प्रक्रिया शुरू हुई उसने एक बड़ा नागर मध्यवर्ग बनाया. इसके अलावा रोजगार और नौकरी के दबाव ने बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग के नौजवानों को विस्थापित होने को मजबूर किया. अपने गांव, घर, आंगन छोड़कर आई यह पीढ़ी अपने आप को एक शून्य में पा रही थी. उसे आर्थिक सुरक्षा हासिल हो रही थी, उसके सामाजिक संबंध नए सिरे से बन रहे थे, लेकिन उसका छूटा हुआ सांस्कृतिक संसार उसे अकेला और उदास करता था. ऐसे में उसके पास पुराने ट्रांजिस्टर और पुराने फिल्मी गीतों का सहारा था या उन नई गजलों का जो जगजीत सिंह और भारतीय उपमहाद्वीप के मेंहदी हसन और गुलाम अली जैसे उनके कुछ समकालीन- उसके लिए गा रहे थे. यह अनायास नहीं था कि अचानक इनकी गजलें हिंदी फिल्मों में भी इस्तेमाल की जाने लगी थीं. ‘निकाह’ में गुलाम अली का ‘चुपके-चुपके रात दिन’ हो या ‘अर्थ’ में जगजीत सिंह का `तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो’, अचानक लोगों की जुबान पर चढ़ गए. उदासी, अकेलेपन और अपनी जड़ों से कटने की तकलीफ पर इस दौर की गजलें जैसे फाहे का काम करने लगीं. जगजीत छोटे-छोटे कमरों और नए ठिकानों में नई पहचान खोज रहे लोगों के दोस्त होते चले गए. ‘हम तो हैं परदेस मे, देस में निकला होगा चांद’ और ऐसे ढेर सारे दूसरे गीत इसलिए भी लोगों के दिलों में उतर गए कि वे उन्हें उनके छूटे हुए घरों, छतों, आंगनों, नीम के पेड़ और बगीचों तक पहुंचाते थे. इसी तरह शहर के अकेलेपन के बीच अपनेपन की राहत या दोस्ती की चाहत या अनजानी-सी मोहब्बत की ढेर सारी बारीक और कोमल अभिव्यक्तियां जगजीत की रेशमी आवाज में घुलती हुई एक साथ कई पीढ़ियों के अनुभव-संसार को सहलाती रहीं. लगातार बढ़ती स्मृतिशिथिलता के दौर में जगजीत हमारी स्मृति, हमारी संवेदना बचाते रहे.
लेकिन क्या यह सिर्फ नॉस्टैल्जिया था- एक स्मृतिजीवी उछाह- जिसने जगजीत सिंह को इतना लोकप्रिय बनाया? निश्चय ही जगजीत सिंह लगातार अपनी गायकी को नए आयामों से जोड़ते रहे. गजलों या कुछ फिल्मी गीतों के अलावा उन्होंने निदा फाजली के लिखे दोहे भी गाए और उनकी नज्में भी. अक्सर उनकी गायकी में जिंदगी की कशमकश को उसकी परतों के साथ पहचानना मुमकिन होता था. `ये जिंदगी जाने कितनी सदियों से यों ही शक्लें बदल रही है’, जैसी सादा नज्म को उन्होंने इतनी गहराई से गाया कि उसे बार-बार सुनने की इच्छा हुआ करती थी. गुलजार के साथ मिलकर उन्होंने कई नए प्रयोग किए. गुलजार के बनाए सीरियल ‘मिर्जा गालिब’ में गालिब की शख्सियत को उसके पूरे फैलाव और उसकी जटिलताओं के साथ जितना नसीरुद्दीन शाह के अभिनय ने पकड़ा, उतना ही जगजीत सिंह की आवाज और उनके संगीत ने भी. दरअसल लगातार अपने को मांजने की, कुछ नया देने की, प्रयोग करते रहने की यह जो कोशिश रही वह उन्हें अपने समकालीन गायकों से आगे ले जाती रही.
हालांकि सफलता सबके पांवों को अटकाती-भटकाती है और कभी-कभी अतिरिक्त तेजी से कदम उठाने को मजबूर करती है. वक्त बदला तो कुछ जगजीत सिंह भी बदले. उनके बाद के काम में एक तरह की कारोबारी व्यस्तता दिखाई पड़ती है. उनके आखिरी कुछ एलबम कुछ नई चीजों के बावजूद उनकी पुरानी गायकी की छाया भर लगते हैं. उनकी गजलों में अपने हिस्से की राहत खोजने वाले उनके लाखों मुरीद तब कुछ हैरान और उदास हुए जब उन्होंने अपने अजीम गायक को अटल बिहारी वाजपेयी की बेहद सतही गीतनुमा कविताएं गाते देखा- सिर्फ इसलिए कि वाजपेयी तब देश के प्रधानमंत्री थे. उन्हें जल्द ही पद्मभूषण के रूप में इसका पुरस्कार भी मिल गया.
हालांकि वह पद्मभूषण पीछे छूट चुका है, अटल बिहारी वाजपेयी के लिखे हुए गीत कोई नहीं सुनता है और जगजीत अपनी उन्हीं गजलों और गीतों के सहारे हमारे बीच जिंदा हैं जो जिंदगी की धूप में घने साये का काम करते रहे और जिनसे चार दोस्तों का एक छोटा-सा नया बसेरा सुबह-शाम रोशन हो उठता था. उस कमरे का वह पांचवां दोस्त नहीं रहा, और याद दिलाता गया कि बाकी चार भी वही नहीं रहे जो वे हुआ करते थे. उनके निधन की खबर सुनी तो मुझे अपने पुराने दिन, पुराने दोस्त याद आए और याद आया वही गीत- ‘तुम चले जाओगे तो ये सोचेंगे, हमने क्या खोया हमने क्या पाया.’