धर्म के बहाने पूरी दुनिया में अब तक छोटे-बड़े हज़ारों युद्ध हुए हैं। ये युद्ध दो धर्मों के बीच तो बाद में शुरू हुए, पहले एक ही धर्म के लोगों में परस्पर हुए। हर धर्म की कहानी कहीं-न-कहीं युद्ध से ही शुरू हुई; और यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा, जब तक मानव का अस्तित्व है। ये युद्ध क्यों हुए? और क्यों जारी रहेंगे? इसका सबसे पहला और बड़ा कारण भ्रम और बुद्धिहीनता है। बुद्धिहीनता के चलते भ्रम पैदा होता है और भ्रम विवेक को खा जाता है, जिससे सत्य-असत्य में अन्तर समझ नहीं आता है। भ्रम का पोषक अविश्वास है। अविश्वास जब बढ़ता है, तब झूठ पर विश्वास बढ़ता है। झूठ का पोषक लालच है। लालच छल, हनन और कपट (बेईमानी) का कारण है। यही तीनों ठगी, चोरी और लूट का कारण बनते हैं। यह लूट ही युद्ध का पर्याय है। सदियों से होते आ रहे युद्धों में लूट ही तो हुई है, जो सबलों (ताक़तवरों) का असल ध्येय रहा है। युद्धों में धरती, धन-धान्य और स्त्रियों की लूट होती रही है। यह युद्ध सुख प्राप्ति के लिए किये गये। इसी सुख के लिए एक व्यक्ति दूसरे का नाश चाहता है।
धर्म की बात करें, तो हर धर्म जातिवाद और ग़रीबी-अमीरी के भेद को साथ लेकर चलता है। इसी के चलते एक धर्म के अन्दर भी और दो धर्मों के बीच भी, घृणा पनपती है। यही घृणा युद्ध का कारण बनती है। कुछ लोग इसे धर्म-युद्ध कहते हैं। परन्तु धर्म-युद्ध का वास्तविक अर्थ है- सत्य का असत्य पर आक्रमण, अच्छाई का बुराई पर आक्रमण; अर्थात् अच्छे लोगों का बुरे लोगों पर आक्रमण। अगर इसे उलट दें, तो उसे अधर्म युद्ध कहेंगे। अथात् असत्य और बुराई सत्य और अच्छाई पर आक्रमण करे, तो वह अधर्म युद्ध है।
अब लोग धर्म-युद्ध की परिभाषा नहीं समझते, क्योंकि उन्हें सही शिक्षा नहीं मिल रही। इसीलिए लोगों पर धर्मांधता हावी है। यही धर्मांधता सदियों से लोगों में घृणा और बैर कराती रही है, जिससे विभेद और युद्ध हुए हैं। राजनीति ने इस आग में घी की तरह काम किया है। धर्मांधता के चलते होने वाले युद्धों का ध्येय भी लूट के साथ-साथ हनन ही रहा है। ध्येय चाहे जो भी हो, परन्तु युद्ध का परिणाम अंतत: विनाश ही होता है; जिसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। पशु-पक्षियों में युद्ध भूख, अस्तित्व और अतिक्रमण के लिए होता है। हालाँकि मनुष्यों के बीच में होने वाले युद्धों के पीछे भी कहीं-न-कहीं दो बड़े कारण- भूख और अस्तित्व हैं। परन्तु इसकी पूर्ति के उपरान्त भी और अधिक सुख पाने की लालसा से मनुष्य अतिक्रमण, दमन, छल, कपट, लूट, चोरी, ठगी और हत्या के लिए आगे बढ़ा है।
सवाल यह है कि पूरे विश्व के लोग एक-दूसरे के साथ एकता व सौहार्द से क्यों नहीं रह सकते? क्या इससे किसी का धर्म मर जाएगा? क्या इससे उसका कथित ईश्वर रूठ जाएगा? क्या इससे उसे नरक में जाना पड़ेगा? क्या इससे उसका स्यवं का अस्तित्व नष्ट हो जाएगा? नहीं। यह सब तो उसके तुच्छ और बुरे कर्मों से होना है। धर्म ग्रन्थों में लिखा है- सभी से प्रेम कीजिए, तभी ईश्वर आपसे प्रेम करेगा। सभी पर दया कीजिए, तभी ईश्वर आप पर दया करेगा। फिर हम एक होकर क्यों नहीं रहते? भारत में एकता, प्रेम, सौहार्द के कई उदाहरण हैं, जिनमें से दो की चर्चा यहाँ आवश्यक है।
बरेली के मानराय कटरा में चुन्ना मियाँ ने सन् 1960 में लक्ष्मी-नारायण मन्दिर बनवाया, जिसका उद्घाटन देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने किया था। यह मन्दिर आज भी चुन्ना मियाँ का मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर में आज भी दोनों धर्म के लोग सेवा करते हैं। इसी शहर में आला हज़रत की मज़ार में सनातनधर्मियों का बड़ा योगदान है, जिसे कोई नहीं भुला सकता।
इसके अलावा अलीगंज के पुराने हनुमान मन्दिर का निर्माण नवाब शुजाउद्दौला की बेगम छतर कुँअर ने कराया था। कहा जाता है कि हनुमान जी की पूजा-पाठ करने से छतर कुँअर ने मंगलवार के दिन पुत्र के रूप में सआदत अली ख़ाँ उर्फ़ मंगलू को जन्म दिया। इसके बाद छतर कुँअर ने अलीगंज में मन्दिर का निर्माण कराया। आज भी यहाँ हर साल ज्येष्ठ माह में मंगल के दिन मंगल भण्डारा उत्सव होता है, जिसमें सनातनी और मुसलमान बड़े श्रद्धाभाव से सम्मिलित होते हैं। दोनों ही भण्डारे की व्यवस्था में शामिल होते हैं। यह सब बताने का अर्थ यह है कि ईश्वर तो एक ही है। हम सब लोग अपनी-अपनी भाषा के अनुसार अलग-अलग नामों से उसे पुकारते हैं; अपनी-अपनी समझ के अनुसार अलग-अलग स्वरूप मानकर उसी की उपासना करते हैं। कुल मिलाकर उसे बाँटने के चक्कर में लोग ही बँट गये हैं। मेरा एक शेर देखें-
‘‘ख़ुदा बाँटा, ज़मीं बाँटी, ज़ुबाँ, मज़हब सभी बाँटे
मगर इंसान ख़ुद ही बँट गया, ये ही हक़ीक़त है।’’