लैंगिक न्याय अभी भी दूर की कौड़ी

आज के आधुनिक युग में भी महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव जारी है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की विधानसभाओं, संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की प्रशंसनीय पहल इसलिए भी फलीभूत नहीं हो पा रही। क्योंकि पुरुष कानून बनाने और सम्बन्धित निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में अपनी प्रधानता को खत्म नहीं होने देना चाहते; अन्यथा लिंग न्याय के प्रति यह सोच मील का पत्थर साबित होती।

दुनिया के कमोवेश सभी देशों के संविधान और कानूनों में महिला-पुरुष को भले बराबर का दर्जा दिया गया हो; लेकिन इसके बावजूद लैंगिक न्याय ज़मीनी हकीकत में नहीं दिखता। महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में नज़रअंदाज़ किया जाना जारी है। ग्रामीण स्तर पर पंचायत के विकास से लेकर विधानसभा और संसद तक, लोगों की बेहतरी के लिए निर्णय लेने की सभी प्रक्रियाओं में, उन्हें 50 फीसदी आरक्षण के बावजूद उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है और यह आरक्षण दिखावा ही लगता है।

ग्रामीण स्तर पर यह आरक्षण इसलिए भी मज़ाक ही लगता है; क्योंकि वहाँ साक्षरता की कमी है। दूसरे पंचायत स्तर पर महिला पदाधिकारी बन भी जाएँ तो भी उसके नाम पर सत्ता की शक्तियों का इस्तेमाल परदे के पीछे से पुरुष ही करते हैं। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आदम और हव्वा को अलग-अलग मान्यताओं और धर्म-सिद्धांतों में अलग-अलग नाम दिये गये हैं। वे मनुष्यों के पहले माता-पिता थे, जिनसे मानव सृष्टि का विकास शुरू हुआ। बाद में अलग-अलग जातियों, धर्मों और समुदायों में समाज विररित हुआ। लेकिन सभी के माध्यम से, महिलाओं ने अपने पूरे इतिहास में मनुष्यों की वृद्धि, समृद्धि और प्रगति को तराशा है। माँ, बेटी, बहन, पत्नी और सभी से ऊपर घर निर्माता के रूप में महिलाओं की भूमिका व्यापक रही है; क्योंकि महिलाएँ पुरुषों पर प्रधानता का आनन्द लेती हैं। हालाँकि पुरुष-महिला एक साथ दुनिया भर में सर्वांगीण विकास के अद्भुत संयोजक हैं।

प्रतिनिधित्व में कमी

महिलाओं के इस तरह के अद्भुत गुणों के बावजूद, कमोवेश सभी स्तरों पर उनका प्रतिनिधित्व अपर्याप्त रहा है। आज भी कामकाजी महिलाओं से भी भेदभाव किया जाता है। कई जगह तो यह तक देखा गया है कि वरिष्ठ महिला कर्मचारी का भी सम्मान नहीं किया जाता। पीछे से उन पर फब्तियाँ कसी जाती हैं।

जन्म से ही शुरू हो जाता भेदभाव

महिलाएँ जन्म से ही लिंग-भेदभाव की शिकार हो जाती हैं। बच्चियों को जन्म लेते ही मार दिया इस बात का उदाहरण है कि उनके जीवन के नींव ही पूर्वाग्रहों और विसंगतियों के आधार पर समाज में डाली जाती है।

बचपन से ही लोगों के दिमाग में जड़ की तरह बैठी सोच को बदले बिना इस स्थिति को नहीं बदला जा सकता, भले कागज़ पर वॢणत कानून में और संविधान में भी आप लैंगिग समानता की जितनी मर्जी बातें कर लें, जो धरातल पर कहने भर को ही हैं।

कार्यालयों में पुरुष पितृसत्ता

बढ़ती साक्षरता, सूचना प्रसार और ज्ञान भण्डार के साथ वैश्विक भारत में सार्वजनिक प्रशासन के सभी क्षेत्रों; जैसे- शिक्षा, सरकारी सेवाओं, कानून लागू करने वाली एजेंसियों जैसे पुलिस, सुरक्षा बलों, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका, कॉर्पोरेट सेक्टर, व्यापार, वाणिज्य, उद्योग आदि में महिलाओं के िखलाफ सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों को दूर करने और लैंगिक समानता स्थापित करने की प्रक्रियाएँ जारी हैं। लेकिन पितृसत्ता का वर्चस्व की राह का रोड़ा बना हुआ है। पुरुष नहीं चाहते कि उनकी सत्ता के मैदान में महिलाएँ हिस्सेदार बनें। यही कारण है कि सार्वजनिक सेवाओं, पुलिस, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका और कॉर्पोरेट क्षेत्र के निदेशक मंडल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त रहा है। संक्षेप में निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नगण्य रहा है, जिससे लैंगिक न्याय अभी दूर की कौड़ी दिखता है।

फलीभूत नहीं हो पा रही पहल

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की विधानसभाओं, संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की प्रशंसनीय पहल इसलिए भी फलीभूत नहीं हो पा रही, क्योंकि पुरुष कानून बनाने और सम्बन्धित निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में अपनी प्रधानता को खत्म नहीं होने देना चाहते; अन्यथा लिंग न्याय के प्रति यह सोच मील का पत्थर साबित होती। संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के अनिवार्य 33 फीसदी प्रतिनिधित्व के लिए संविधान संशोधन के लिए कई बार विधेयक संसद में पेश किया गया; लेकिन इसे पारित नहीं किया जा सका।

एक बार विधेयक उच्च सदन (राज्य सभा) में पारित हो गया था, लेकिन यह लोक सभा  में पारित न हो सकने के कारण यह अधर में रह गया। केंद्र की वर्तमान एनडीए  सरकार, जो मनुस्मृति की एक प्रबल समर्थक और इसमें विश्वास रखने वाली सरकार है; व्यापक रूप से महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रही मानी जाती है और शायद ही उसकी  लैंगिक न्याय में कोई रुचि हो। महिलाओं के प्रति लगातार बढ़ती हिंसा और रेप की घटनाओं और संघ परिवार के लोगों की इसमें सहभागिता और आरोपियों को राज्य मशीनरी की तरफ से बचाने की कोशिशें और उन्हें समर्थन इसका बड़ा उदहारण है।

एकता से मिलेगा हक

सरकार ने महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए कई योजनाओं की घोषणा की है; लेकिन सवाल यह है कि क्या हम वास्तव में कमज़ोर हैं? आम महिलाओं ने बिना किसी राजनीतिक समर्थन के, बिना किसी सामाजिक कार्यकर्ता के, बिना किसी हाथापाई के शहीनबाग में शान्तिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन करते हुए ज़बरदस्त एकता दिखायी है। यह केवल एक उदाहरण नहीं है, बल्कि अपनी तरह का अविश्वसनीय कार्य है और यह साबित होता है कि जब मातृत्व की बात आती है, तो महिलाएँ 10 एक्स (तमाम अवरोधों के बावजूद श्रेष्ठता) के रूप में कार्य करती हैं। महिलाओं को समझना होगा कि उनकी एकता से ही लैंगिक समानता का हक उन्हें ्मिल सकता है।

मुझे एक बहुत लोकप्रिय और सच्चे मुहावरे कि ‘उसका स्पर्श एक घर को सुखद एहसास से भर देता है’ की याद आती है। इसलिए हम उनके सत्ता में प्रभावशाली भूमिका में होने की स्थिति में भारत की तस्वीर की कृपना कर सकते हैं। फिर भी, अभी सब कुछ खत्म नहीं है। जिस तरह से महिला शक्ति बढ़ रही है, एक उम्मीद है कि जल्द ही समय आएगा, जब लैंगिग न्याय यथार्थ रूप लेगा और महिलाओं के लिए वह सुखद क्षण होगा। लिंग न्याय मनुष्यों के न्यायसंगत विकास के लिए एक ज़रूरी कारक है। वर्तमान सामाजिक मंथन उम्मीद जगाता है कि लैंगिक समानता को हासिल किया जा सकता है।