स्वतंत्रता और लेखक का संबंध आवयविक है। कुछ इस तरह कि एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता। यह भी सही है कि लेखक के लिए स्वतंत्रता एक साथ स्थिति और संभावना होती है।
पुणे में हुई पीईएन इंटरनेशनल के अधिवेशन में विश्वविद्यालय के सभागार में बोलते हुए मैंने कहा कि लेखक के लिए स्वतंत्रता एक अनिवार्य ज़रूरत है क्योंकि जैसा वह चाहता और महसूस करता है वैसा ही लिख भी सके। उसका विश्वबोध, सच्चाई की समझ और अहसास जैसे उसे लगते हैं, वैसे ही हमारे समय के मानवीय हालात, अपनी जटिलताओं, तनावों, अंतविरोधों और बेचैनियों के साथ उसे नज़र आते हैं। उसे लगता है कि उसे स्वतंत्रता चाहिए जिससे वह साहस, कल्पना और विश्वास के साथ मानवीय विडंबना के बारे में लिखे और खोज भी कर सके। कल्पना का जो लोकतंत्र लेखक रखने की कोशिश करते हैं वे दिए हुए के वरिक्स विकल्प का सपना देखते हैं। वह संभव ही नहीं अगर स्वतंत्रता न हो।
परम स्वंतत्रता संसार में संभव नहीं है। हर जगह वह कंटी-छंटी ही मिल पाती है। हो सकता है कि राजनीतिक कानूनी स्वतंत्रता हो पर आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता न हो। आर्थिक स्वतंत्रता हो पर मुक्त चिंतन की आध्यात्मिक स्वतंत्रता न हो। नयाचार और प्रयोग पर मुमानियत हो। लेखक इन सीमाओं के अंदर रह कर ही अपनी स्वतंत्रता अर्जित करने और उसे व्यापक बनाने की चेष्टा करते हैं।
लेखक वैसे भी कुछ विभिन्न जीव होते हैं। उनके लिए जीवन और अस्तित्व, यथार्थ और कल्पना, अनुभव, और संघर्ष, भावना और विवेक, सच और निश्चय बेचैनियां और दबाव आदि प्रश्नांकन के पात्र होते हैं। साहित्य की विश्वसनीयता और नैतिक औचित्य निकलते ही इस सच्चाई से हैं कि साहित्य यथासंभव सच कहने की हिम्मत और हिकमत करता है पर अपने सच पर संदेह भी। उसका सत्य संशय विद्ध सत्य होता है जो उसे राजनीतिक नैतिक और आर्थिक वैज्ञानिक और सामाजिक सत्यों से बिलकुल अलग कर देता है।
सत्य और संशय से घिरे लेखक मजिस्टे्रेट या जज होने से इंकार करते हैं। सत्य हमारे समय में लगातार संकट में है। वह लगभग हर क्षेत्र में अल्पसंख्यक होता जा रहा है। यह शायद इतिहास में अभूतपूर्व है। झूठ को इससे पहले शायद ही कभी ऐसे अवसर, तकनीकी सहायता और मानवीय समर्थक मिले होंगे कि झूठ न इस सत्यतीत समय में सत्य को बुरी तरह से ढांक घेर लिया। लगने लगा है कि दुनिया झूठ से ज्य़ादा तेजी से बदल रही है बजाए सत्य के। इस समय लेखक अल्पसंख्यक हैं तो सत्य के साथ है। वे सत्य की सचाई पहचानते, सत्य के गलत और स्वपन गढऩे और उसकी उपस्थिति पर इसरार करने का अलोकप्रिय काम कर रहे हैं। राजनेता, विचारधारियों, टेक्नोक्रेट, धर्मनेताओं की तरह वे झूठ सत्य को छुपाने के लिए नहीं, जाहिर करने के लिए गढ़ते हैं। उनके गल्प सत्य के गल्प होते हैं। लेखकों के बोलने, सुने गुने जाने, उनके सतय के प्रश्नों से दो चार होने के अवसर निरंतर घट रहे हैं। कई बार लगता है कि पाठक और समाज लेखकों द्वारा खोजे पाए सत्य को जानना चाहता है। यह मात्र खासख्याली है।
एक पहल यह भी है कि हमारा समय और समाज इस समय भीषण विस्मृति की चपेट में है। उसे सांस्कृतिक और सामाजिक स्मृतियों से वंचित किया जा रहा है। राजनीति और मीडिया ने मिल कर एक अभियान चला दिया है कि लोग भूलते जाएं। उनके जहन में कुस्मूतियां और गंदगी भर जाए और विस्तृति बढ़ती रहे। दूसरी तरफ साहित्य और स्मृति में बंदमूल होता है। वह भूलता नहीं है। भले, क्षमा करता चलता है। साहित्य में स्वतंत्रता का सीधा संबंध सत्य और स्मृति से होता है। आप स्वतंत्र नहीं है। अगर आप सत्य बोल व्यक्त नहीं कर सकते कल्पित और याद नहीं कर सकते।
यों तो दुनिया भर में उदार शक्तियां बेहद दबाव में हैं। लेकिन भारत में हिंसा-हत्या-लिंचिंग घृणा की एक नई नागरिक शैली विकसित हो गई है। चार लेखकों बुद्धिजीवियों की दिन दहाड़े हत्या और उनके अपराधी बरसों बाद भी न पकड़े गए, न दंडित हुए, इस भयक्रांत परिवेश में लेखकों में आत्म सेंसरशिप घर कर सकती है। यह स्वतंत्रता का एक और हनन होगा। यह विचित्र है कि घृणा कि वे अपने पर प्रहार करें और लेखक बुद्धिजीवी स्वतंत्र नहीं है कि सत्य पर इसरार या उसकी अभिव्यक्ति करें।
स्वतंत्रता का एक ज़रूरी पक्ष बहुलता भी है। बिना संसार, अस्तित्व, आस्था विचार, दृष्टि शैली नवाचार प्रयोग आदि की विविधता की स्वंतत्रता सच्चे अर्थों में संभव नहीं, संसार की भाषाई विविधता और समृद्धि को बचाने के लिए पर्यावरण बचाओ जैसे विश्व आंदोलन की आज दरकार है।
बीसवीं सदी ने हमें सिखाया है कि सत्य, विचार, अनुभव, दृष्टि आदि की एकनिष्टता अनंत तानाशाही को प्रेत्साहित करती है। यह स्वतंत्रता नष्ट ही नहीं करती बल्कि एकनिष्ठता के नाम पर जनसंहार से बाज भी नहीं आती। एक बड़ी विडंवना यह है कि स्वतंत्रता में इजाफा करने के सभी उपकरण जैसे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं आदि इन दिनों बहुत ही उत्साह और अचूक अनैतिक हेकड़ी से स्वतंत्रता में कटौती करने में लगे हैं।
पीईएन इंटरनेशनल
इस संस्था (जीईएनइंटरनेशनल) ने पहली बार पुणे में यानी भारत में अपना पहला वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया। उसने भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में आ रही बाधाओं, उस पर किए प्रहारों, हिंसा और हत्या की कड़ी निंदा की और कई कानूनन उपायों को करने करने की मांग की। दुर्भाग्य से मोदी मीडिया के अधिकांश ने न तो वक्तव्य छापा और न इस अधिवेशन की कोई रिपोर्ट ही। जबकि इसमें 80 देशों के लेखक प्रतिनिधि शामिल हुए।
पीईएन (यानी पोस्ट, ऐसेइस्ट, और नावेलिस्ट) की स्थापना लंदन में 1921 में हुई थी। उसका उद्देश्य लेखकों के बीच हर कहीं समझ और बौद्धिक सहयोग बढ़ाना, ऐसी समझ बढ़ाने में साहित्य की भूमिका पर इसरार करना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खड़े होना और ऐसे लेखकों के लिए आवाज़ उठाना था जो परेशान, चुप होने के लिए विवश किए जाते, उन्हें कैद किया जाता हो और कई बार अपने नज़रिए के कारण मारे जाते हों। लेखकों का यह पहला विश्वव्यापी संगठन है और ऐसा पहला गैर सरकारी आयोजन जो मानव अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध रहा है। पीईएन ने लगातार यह आग्रह किया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और साहित्य में अटूट संबंध है। उसने इस पर भी बल दिया कि साहित्य किन्हीं सरहदों में महदूद नहीं किया जा सकता और सारे राजनीतिक संघर्षों के बीच भी लोगों के बीच साहित्य का साझा विनियम होना चाहिए।