अक्सर कहा जाता है कि बिना लालच के कोई किसी का नहीं होता। यह सच भी है। माता-पिता भी बच्चे पैदा करते हैं, उनकी परवरिश करते हैं; तो उसके पीछे उनका यह लालच होता है कि बच्चे बड़े होकर उन्हें रोटी देंगे; उनकी सेवा करेंगे। आजकल बिना लालच के कोई ईश्वर का भी नहीं होता, तो किसी और का कैसे हो सकता है। कम-से-कम संसार में तो नहीं होता। इसका अर्थ यही हुआ कि चाहे वह कितना भी महान् क्यों न हो, किसी-न-किसी प्रकार के लालच में फँसा हुआ है।
आजकल धर्मों में भी यही तो हो रहा है। धर्मों का एक भी ठेकेदार यानी धर्मों के तथाकथित धर्माचार्य बिना लालच के न तो धर्म के किसी स्थल पर समय देते हैं और न ही लोगों की अगुवाई करते हैं। लोगों को नि:स्वार्थ भाव से ईश्वर की सेवा का उपदेश देते-देते उनका अपना नि:स्वार्थ भाव ख़त्म हो जाता है। धर्म के वाहक बने हुए हैं; लेकिन उनका मन एक आम अज्ञानी की तरह गृहस्थी में रमा हुआ है। न केवल गृहस्थी में रमा हुआ है, बल्कि हवस भी मन में कूट-कूटकर भरी हुई है। कई तो बिलकुल ही लम्पट हो चुके हैं। ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी के लिए दिन-रात दोनों हाथों से धन बटोरने में लगे हुए हैं। अर्थात् उनके अन्दर लालच जगा हुआ है। वे एक सन्त या फ़क़ीर की तरह केवल दो रोटी और दो जोड़ कपड़ों और किसी टूटी-फूटी झोंपड़ी के सहारे जीवन नहीं काटना चाहते। उनमें इस तरह का जीवन जीने का हौसला नहीं रहता। वे बेसब्र हो जाते हैं। सब्र नाम का शब्द वे अपने जीवन के शब्दकोष से मिटा देते हैं। इतनी फ़क़ीरी में वे जीवन काटना ही नहीं चाहते। उनकी सोच में यह भाव भर जाता है कि अगर फ़क़ीरी में ही जीवन जीना पड़े, तो फिर ईश्वर की क्या ज़रूरत? वे क्यों ईश्वर की सेवा करें? क्यों लोगों को धर्म का उपदेश दें? अगर वे ख़ुद को ईश्वर के निकट दिखाने के लिए रेशमी कपड़े भी नहीं पहन पाये, मेवा-मिष्ठान भी नहीं खा सके, ठाट-बाट से नहीं रह सके, तो फिर फ़ायदा क्या? आख़िर अपने इस ठाट-बाट को जायज़ ठहराने के लिए ही तो उन्होंने ईश्वर को सबसे सुखी और आनन्दित दर्शाया है। आज इन तथाकथित धर्माचार्यों की स्थिति यह है कि ये अपने-अपने धर्मों को धन्धे की तरह इस्तेमाल करके उनसे जमकर पैसे कमा रहे हैं। हर तथाकथित धर्माचार्य ने अपने धर्म के किसी-न-किसी अड्डे पर धन कमाने के लिए क़ब्ज़ा कर रखा है।
आज दुनिया में जितने भी धार्मिक स्थल बने हुए हैं, सब चन्द लोगों की कमायी का ज़रिया बने हुए हैं। कोई सरकार भी किसी भी पाखण्डी धर्मगुरु का विरोध करने का साहस नहीं कर पाती। नेता और धार्मिक नेता सत्ता के लालच में, धन के लालच में धर्मों में होने वाली फूहड़ता, पाखण्ड और कुरीतियों पर नहीं बोलते; उलटा उन्हें बढ़ावा देते हैं। बढ़ावा क्यों न दें? इसमें ही उनके ऐश-ओ-आराम निहित हैं। कुकर्म करने के बाद भी उनकी सुरक्षा उनका अन्धानुकरण करने वाले इसी वजह से करते हैं। इसके अलावा इससे अच्छा धन्धा कोई और नहीं, जिसमें अनाप-शनाप धन अर्जन से लेकर सत्ता तक पहुँच बड़े सुलभ काम हैं। कोई नहीं पूछता कि इतना धन इकट्ठा क्यों कर लिया? सब और भी धन देते जाते हैं, भले ही तथाकथित धर्माचार्यों के पास कितना भी धन हो। फिर भी सब बिना माँगे धन उनके चरणों में उड़ेते रहते हैं। लेकिन हालात के मारों को कोई नहीं देना चाहता। क्योंकि उनमें धूर्तता नहीं है। वे छल नहीं करना जानते। वे ईश्वर के नाम पर किसी को डराते नहीं। उन्हें अपना ही स्वर्ग-नर्क नज़र नहीं आता। वे ख़ुद ही इन दो कल्पनाओं से डरे हुए हैं। फिर दूसरों को क्या डराएँगे? उन्हें धर्म का हथियार की तरह इस्तेमाल करना भी नहीं आता। सरकारें भी इन तथाकथित धर्माचार्यों के पास जमा अथाह धन पर टैक्स लेने से कतराती हैं। उन्हें पता है कि ये धर्माचार्य भले ही पाखण्डी हों; लेकिन इन्हें छेडऩा, इनके साथ आम आदमी जैसा सुलूक करना महँगा पड़ेगा। इन धर्माचार्यों के पीछे धर्म के मोह में खड़ी भीड़ कुछ भी कर देगी।
कभी तथाकथित धर्माचार्यों के ठाट-बाट देखे हैं? किसी राजे-महाराजे से कम नहीं होते। क्यों ये लोग फ़क़ीरों, सन्तों जैसा जीवन नहीं जीते? क्योंकि वास्तव में ये ख़ुद धर्म से कोसों दूर हैं। इसीलिए आज कोई कबीर, नानक, रैदास, भुल्लेशाह, ओशो, विवेकानन्द, दयानन्द, रामकृष्ण, मीराबाई, सूरदास, रसख़ान, रहीम, बहिणाबाई, बुद्ध, महावीर नहीं होता। क्योंकि आज के तथाकथित धर्माचार्यों ने सांसारिक मोह-माया को नहीं छोड़ा है। ये लोग ईश्वर की उपासना भी लालच के चलते ही करते हैं। लालच के चलते ही अलग-अलग धर्मों को मानने वालों में झगड़ा कराते हैं।
सोचिए, अगर इन तथाकथित धर्माचार्यों को इन सभी ज़रियों से कोई आमदनी न हो, तो क्या ये लोग अपने-अपने धर्म स्थलों में उसी तरह सेवा करेंगे, जिस तरह धन के लालच में करते हैं? कभी नहीं। क्योंकि इससे उनका धन कमाने और पाप छिपाने का उद्देश्य मर जाएगा। फिर लोग ऐसे पाखण्डी धर्म के लालची ठेकेदारों को क्यों ठो रहे हैं?