बीती जनवरी की बात है. राष्ट्रीयकृत बैंक के एक अधिकारी बिहार विधानसभा में विपक्षी दल के एक वरिष्ठ नेता के सरकारी आवास में बैठे थे. बैंक के अधिकारी नेता जी को इस बात के लिए मना रहे थे कि अगर वे कोशिश करें तो सरकार अपने विशाल धन का कुछ हिस्सा उनके बैंक में जमा कर देगी. उनका कहना था कि इससे बैंक के आला अधिकारी काफी खुश होंगे और उनके करियर का ग्राफ भी ऊंचा होगा.
इसी बातचीत के दौरान हमारा वहां पहुंचना हुआ. नेता जी से साक्षात्कार के सिलसिले में हमारा पहले से समय निर्धारित था. बैंक अधिकारी अपनी रौ में थे. वे नेता जी को यह बार-बार याद दिला रहे थे कि उनका बैंक मोटी रकम जमा करने वाले ग्राहकों का विशेष सम्मान करने में हमेशा तत्पर रहता है. नेता जी का जवाब था, ‘देखिए, अब हम तो विपक्ष में हैं. सरकार हमारी सुनती कहां है. किसी सत्ताधारी नेता से बात कीजिए.’ बैंक अधिकारी की बातों से लग रहा था कि उनका सत्ताधारी दल के किसी प्रभावी नेता से सीधा संपर्क नहीं था इसलिए वे विपक्षी दल के नेता के यहां पहुंचे थे. शायद उनकी सोच रही हो कि उनके माध्यम से ही सत्ताधारी नेताओं तक पहुंच बनाई जा सकती है. हालांकि यह कोई चकित करने वाली घटना नहीं है. बैंक अधिकारी करोड़ों या कई बार लाखों रुपये जमा करने की हैसियत रखने वाले आम ग्राहकों का भी दरवाजा खटखटाते रहते हैं ताकि उनके बैंक में जमा रकम का आंकड़ा बढ़े. ऐसे ग्राहकों को बैंक काफी सुविधाएं भी देते हैं और उपहार भी. बैंक की भाषा में वे इसे कस्टमर रिलेशनशिप कहते हैं.
इस घटना का जिक्र एक विशेष कारण से महत्वपूर्ण है. जब तहलका ने पटना स्थित भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा तीन अप्रैल को बिहार सरकार द्वारा आमद और खर्च पर जारी की गई रिपोर्ट पर जानकारी लेनी चाही तो लेखाकार भवन से जुड़े एक अधिकारी ने कुछ ऐसी ही कहानी सुनाई. इसके बाद उस अधिकारी ने उस घटना का भी उल्लेख किया जिसके कारण पिछले एक पखवाड़े से राज्य में तूफान मचा हुआ है. यह घटना है बिहार सरकार द्वारा सरकारी खजाने से महज चार दिन में 937 करोड़ रुपये निकाल लिए जाने की. यह घटना 28 मार्च 2011 से 31 मार्च, 2011 के बीच की है. यानी वित्त वर्ष समाप्त होने के दिन तक. ये अधिकारी विधानमंडल के उन नियमों का हवाला देते हैं जिनके तहत राज्य सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह सरकारी कोष से पैसे निकालने के बाद उन पैसों का इस्तेमाल संबंधित वित्त वर्ष में जरूर कर ले. वर्ना उसे ये पैसे फिर से सरकारी कोष में जमा कराने पड़ते हैं. सूत्रों के मुताबिक चूंकि ये पैसे वित्त वर्ष के अंतिम चार दिन में निकाले गए इसलिए संभावना बनती है कि सरकार ने इस रकम का उपयोग नहीं किया होगा बल्कि इसे किसी बैंक में जमा कर दिया होगा. कैग के अधिकारी कहते हैं, ‘ये पैसे बैंक में आम तौर पर दो ही तरह से रखे जा सकते हैं. बचत खाते में या चालू खाते में. बचत खाते के पैसे पर बैंक ब्याज देते हैं. चालू खाते पर ब्याज अदा नहीं किया जाता. अगर ये पैसे चालू खाते में होंगे (कैग अधिकारी के अनुसार इसकी पूरी गुंजाइश है) तो सरकारी रुपये को इस रकम पर सालाना मिल सकने वाले ब्याज यानी कम-से-कम 37 करोड़ का नुकसान होगा और संबंधित बैंक को इतना या इससे भी अधिक का मुनाफा.
सवाल यह है कि वित्त वर्ष के अंतिम चार दिन में जब सरकार को यह पता है कि वह इन पैसों का इस्तेमाल नहीं कर पाएगी तो आखिर उन पैसों को निकाला ही क्यों गया. कैग के ये अधिकारी कहते हैं, ‘बैंकों के ‘कस्टमर रिलेशनशिप’ की कहानी को आप इस घटना से जोड़ कर देखिए. सब समझ जाएंगे.’
कैग अधिकारी बताते हैं कि हड़बड़ी में ऐसे बिल भी जमा करा दिए गए हैं जिनमें निकाली गई रकम से ज्यादा के खर्च का हिसाब दिया गया है
सवाल उठता है कि क्या सचमुच बैंक और सरकार के कुछ लोग ऐसा करते हैं. कैग के अधिकारी इस सवाल का सीधा जवाब तो नहीं देते पर इतना जरूर कहते हैं, ‘हम इसकी जांच में जुट गए हैं.’ यहां जनवरी महीने में विपक्षी दल के उन नेता और बैंक अधिकारी की बातचीत के पहलुओं को थोड़ा विस्तार दिया जाये तो शक की सुई पिछली सरकारों की तरफ भी जाती है. कैग रिपोर्ट 2011 कहती है कि राज्य सरकार ने निकाले हुए काफी पैसों के खर्च का हिसाब 2003 से नहीं दिया है और 2011 तक यह रकम 22 हजार करोड़ रुपये हो गई है.
तीन अप्रैल को जब यह रिपोर्ट राज्य विधान परिषद और विधानसभा में पेश हुई तो काफी हंगामा हुआ. राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव, लोक जनशक्ति पार्टी प्रमुख रामविलास पासवान और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शकीलुर्रहमान ने मार्च के अंतिम चार दिनों में निकाली गई 937.75 करोड़ रुपये की रकम के मामले की सीबीआई से कराने की मांग तक कर डाली. अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी कहते हैं, ‘सैकड़ों करोड़ रुपये का निकाला जाना और उन पैसों का हिसाब तक नहीं देना. सरकार की अक्षमता की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है?’
लेकिन इन सब मुद्दों पर राज्य के वित्त विभाग के मंत्री सुशील कुमार मोदी का एक अलग ही तर्क है. वे कहते हैं ‘कैग का यह आरोप सौ फीसदी सही नहीं है, क्योंकि कैग के दफ्तर में एसी (निकाली गई रकम) और डीसी (खर्च की गई रकम) बिल बोरियों में रखे पड़े हैं लेकिन कैग में मानवसंसाधन की कमी के कारण इसकी जांच नहीं हो सकी है.’ हालांकि मोदी की इस बात पर कैग के अधिकारी कहते हैं, ‘जब बिल तैयार था तो सरकार ने इसे आखिरी क्षण में क्यों भेजा.’ कैग के अधिकारियों का तो यहां तक कहना है कि हड़बड़ी में सरकारी कर्मियों ने खर्च के सैकड़ों ऐसे बिल भी जमा करा दिए हैं जिनमें निकाली गई रकम से ज्यादा के खर्च का हिसाब दिया गया है. अधिकारी सवाल करते हैं कि जो अतिरिक्त रकम मिली ही नहीं उसे खर्च कैसे कर दिए?
घोटाले की गूंज
कैग की यह सालाना रिपोर्ट इस लिहाज से भी राज्य सरकार की मंशा और ईमानदारी पर करारा प्रहार है कि इस बार संस्था ने घोटाले, घपले और चोरी की बात साफ-साफ कही है. इस बार कैग का लहजा कितना सख्त है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस दिन यानी तीन अप्रैल को 11 बजे कैग की रिपोर्ट बिहार विधानमंडल में पेश की गई उसी दिन शाम को तीन बजे पटना स्थित भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक आरबी सिंह ने प्रेस कान्फ्रैंस बुला ली और साफ साफ घपलों, घोटालों और सरकारी धन की लूट की बात कही. उन्होंने कहा कि मार्च, 2011 तक गबन, हानि और चोरी के एक हजार से भी अधिक मामलों में सरकार को 409 करोड़ से भी अधिक की चपत लग चुकी है. ऐसी स्थिति में सरकार को अपना वित्तीय प्रबंधन सुधारने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि आम जनता को भी इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है.
कैग की इस रिपोर्ट से जहां विरोधी दल आक्रमक हो गए हैं वहीं सत्ताधारी गठबंधन रक्षात्मक मुद्रा में है. सुशील मोदी ने सदन में बयान दिया कि इस मामले में सीबीआई की बजाय पब्लिक अकाउंट कमेटी से जांच कराई जाएगी.
2010 में जारी कैग रिपोर्ट के बाद भी बिहार प्रशासन में कोहराम मच गया था. अदालती हस्तक्षेप के बाद एक सरकारी कर्मचारी काम-काज छोड़कर हर प्रखंड कार्यालय में बाकायदा शामियाना लगा कर डीसी बिल भरने में लग गए थे. लेकिन इस बार की रिपोर्ट से साफ हो गया है कि राज्य सरकार ने पिछले अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है.