संगठन की मज़बूती के प्रयासों को इससे लग रहा है धक्का
क्या पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भाजपा में जाने की तैयारी कर रहे हैं? पंजाब कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत, जो मीडिया के सामने पंजाब कांग्रेस के संकट की बात को हमेशा अपने अंदाज़ में टाल देते हैं; ने सितंबर के पहले हफ़्ते में अचानक यह कहकर सबको चौंका दिया कि ‘यस, ऑल इस नॉट वेल इन पंजाब कांग्रेस’ (हाँ, पंजाब कांग्रेस में सब कुछ सही नहीं है)। तो क्या पंजाब कांग्रेस में कुछ बड़ा होने वाला है? चर्चा है कि भाजपा मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को पार्टी में शामिल करवाने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है। पंजाब ही नहीं छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस नेतृत्व के सामने मुख्यमंत्री पद के लिए दो नेताओं में छिड़ी जंग गम्भीर संकट की तरह खड़ी होती दिख रही है। उधर राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कभी उनके सहायक (डिप्टी) रहे सचिन पायलट के बीच एक साल में भी सुलह नहीं हो पायी है। कांग्रेस अपनी इन समस्यायों से उबरने की कोशिश कर रही है। यह भी सम्भावना है कि जल्दी ही कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर भी स्थायी व्यवस्था कर लेगी।
कांग्रेस की दिक़्क़त यह है कि केंद्र में उसकी सात साल से सरकार नहीं और जिन राज्यों में है, वहाँ मुख्यमंत्री पद के लिए नेता आपस में लड़ रहे हैं। आलाकमान लाख चाहकर भी इस संकट का हल नहीं निकाल पा रहीं। भाजपा इसे अपने लिए मुफ़ीद मान रही है और उसके क्षेत्रीय नेता अपने भाषणों में कांग्रेस की इस लड़ाई को ख़ूब भुना रहे हैं। कांग्रेस के लिए यह संकट की स्थिति इसलिए भी है; क्योंकि उसे अगले साल कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव लडऩे हैं। कांग्रेस की इस लड़ाई का जनता में निश्चित ही उलटा संकेत जाने के भय से कांग्रेस घिरी है।
पहले पंजाब की बात करते हैं, जहाँ मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच छिड़ी जंग में भाजपा अपने लिए रास्ता तलाश कर रही है। अगस्त के आख़िर में अमरिंदर सिंह जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से मिलने दिल्ली गये थे, तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से भी मिले थे। इसके बाद ही यह चर्चा शुरू हुई कि कैप्टन आलाकमान द्वारा सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने और उसके बाद सिद्धू द्वारा सरकार के ख़िलाफ़ बयानों के बावजूद आलाकमान (राहुल-प्रियंका) के चुप रहने से बहुत ख़फ़ा हैं और वह कोई रास्ता तलाश कर रहे हैं।
क्या अमरिंदर सचमुच दशकों पुरानी अपनी पार्टी कांग्रेस से उम्र के इस मोड़ पर विद्रोह करेंगे? यह एक बड़ा और मुश्किल सवाल है। भाजपा कोशिश कर रही है कि अमरिंदर उसके साथ आ जुड़ें, तो वह पंजाब में किसानों से पैदा हुई अपने ख़िलाफ़ बड़ी नाराज़गी और जलियांवाला बाग़ के सौन्दर्यीकरण से उठे विवाद के दाग़ को किसी हद तक धो सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही जलियांवाला बाग़ सौन्दर्यीकरण का आभासी (वर्चुअल) उद्घाटन किया था।
लोगों में इस बात को लेकर बेहद नाराज़गी है कि मोदी सरकार ने अंग्रेजी हुकूमत के ज़ोर-ओ-ज़ुल्म की निशानी को मिटा दिया। लोग इसे शहीदों का अपमान मान रहे हैं, जिनके आगे लोग वहाँ शीश नवाते हैं। वहाँ लाइट शो आयोजित करने से भी लोग बहुत बिफरे हैं। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के मसले पर मोदी के हक़ वाले बयान को लेकर भी लोग राजनीतिक सन्दर्भ में देख रहे हैं। लेकिन ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा में नहीं जा रहे हैं। उनके नज़दीकी कम-से-कम तीन नेताओं ने नाम न छापने की शर्त पर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता से बातचीत में इस चर्चा को ‘कोरी बकवास’ बताया। हालाँकि उन्होंने यह बात स्वीकार की कि कैप्टन नाराज़ हैं और उनकी नाराज़गी की बड़ी वजह सिद्धू हैं। इन नेताओं में से एक ने यह बात स्वीकार की कि ‘यदि कैप्टन ज़्यादा नाराज़ हुए, तो अपनी अलग पार्टी बनाने की भी सोची जा सकती है।’
अलग पार्टी की बात इसलिए वज़न रखती है कि यदि ऐसा करके कैप्टन अगले चुनाव में 30 सीटें जीत जाते हैं, तो कांग्रेस से सौदेबाज़ी करके दोबारा मुख्यमंत्री बन सकते हैं। वैसे कैप्टन इस तरह की राजनीति करने के लिए नहीं जाने जाते, क्योंकि उन्हें सोनिया गाँधी का क़रीबी माना जाता है। भले वह राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के उतने निकट न हों। ऐसे में उनके लिए कांग्रेस छोडक़र जाने की सम्भावना होने के बावजूद यह उतना सरल नहीं दिखता। वैसे भी कांग्रेस यह संकेत दे चुकी है कि अगला चुनाव पार्टी अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही लड़ेगी।
चुनाव के लिहाज़ से पंजाब कांग्रेस के लिए कुछ महीने पहले तक बड़ी सम्भावना वाला प्रदेश था। ऐसा नहीं है कि अब उसके लिए अवसर ख़त्म हो गया है। ज़मीनी स्तर पर अभी भी कांग्रेस अपने मुख्य विरोधियों अकाली दल, आप और भाजपा से आगे दिखती है। लेकिन कैप्टन अमरिंदर और सिद्धू की लड़ाई से उसे काफ़ी नुक़सान हुआ है। यदि चुनाव तक अमरिंदर कांग्रेस में ही रहते हैं और दोनों में जंग जारी रहती है, तो विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए काफ़ी बड़ी चुनौतियाँ रहेंगी।
किसान आन्दोलन ने पंजाब की राजनीति में काफ़ी बदलाव लाया है। किसानी पंजाब के सभी वर्गों के लिए अहम रही है। पंजाब में एक उसूलहै कि खेती और संस्कृति (कल्चर और एग्रीकल्चर) को बचाने के लिए कोई भी बलिदान दिया जा सकता है। ऐसे में किसान आन्दोलन कम-से-कम भाजपा के लिए तो गले की फाँस ही बनकर आया है। किसानों का आन्दोलन लगातार जारी है और हाल में हरियाणा के करनाल में किसानों पर भाजपा सरकार की पुलिस के लाठीचार्ज, जिसमें दर्ज़नों किसान लहूलुहान हो गये और एक किसान की मौत भी हो गयी; से भाजपा को हरियाणा में ही नहीं, पंजाब में और भी राजनीतिक नुक़सान हुआ है। पंजाब में किसान आन्दोलन से भाजपा की चुनावी सम्भावनाएँ क्षीण हुई हैं। वैसे भी पंजाब में भाजपा कभी अपने बूते कोई राजनीतिक ताक़त नहीं रही। उसका सहारा अकाली दल रहा है, जिससे फ़िलहाल उसकी दूरी चल रही है। ऐसे में अमरिंदर सिंह भाजपा में जाने का फ़ैसला सिर्फ़ इस कारण से कर लें कि नवजोत सिंह सिद्धू के आने से उनके दोबारा पंजाब का मुख्यमंत्री बनने की सम्भावना क्षीण हुई है; तो यह हैरानी की बात होगी। कारण साफ़ है कि भाजपा में जाने से तो उनके मुख्यमंत्री बनने की कोई सम्भावना दूर-दूर तक नहीं दिखती।
इसका एक ही तरीक़ा हो सकता है कि अमरिंदर सिंह पंजाब में अपनी कोई राजनीतिक पार्टी खड़ी कर लें। इससे वह चुनाव बाद के परिदृश्य के लिहाज़ से अपने राजनीतिक भविष्य का फ़ैसला कर सकते हैं। हालाँकि इसके लिए यह भी ज़रूरी होगा कि वह अपने बूते 30 से ज़्यादा सीटें लेकर आएँ, जो फ़िलहाल सम्भव नहीं दिखता। कारण यह है कि चुनाव अगले साल ही हैं और उन्हें इसकी तैयारी करने के लिए वक़्त भी चाहिए।
पंजाब की राजनीति को समझने वाले मानते हैं कि कांग्रेस में रहकर अमरिंदर के लिए कहीं ज़्यादा सम्भावनाएँ हैं। परदे के पीछे यह भी कहा जाता है कि अमरिंदर कांग्रेस में ही रहे, तो अगले चुनाव में सिद्धू को चुनाव में हरवाने की भी कोशिश हो सकती है, ताकि वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ से ही बाहर हो जाएँ। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, अमरिंदर ने कांग्रेस में अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है। हाल में करनाल में किसानों पर लाठीचार्ज को लेकर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के साथ जिस कटुता के स्तर पर अमरिंदर सिंह का ट्विटर वार हुआ है, उससे नहीं लगता वह भाजपा में जाने की सोच रहे हैं।
कांग्रेस के लिए समस्या यह है कि उसे पंजाब की लड़ाई को जल्दी निपटाना होगा; क्योंकि राज्य के प्रभारी हरीश रावत उत्तराखण्ड में व्यस्त होने वाले हैं, जहाँ कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश कर सकती है। सच तो यह है कि रावत ने 3 सितंबर से उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव के लिए अपनी मुहिम शुरू भी कर दी है। कांग्रेस उत्तराखण्ड में अपने लिए काफ़ी सम्भावनाएँ देख रही हैं। इसलिए वह रावत को लम्बे समय तक पंजाब में नहीं फँसाये रखना चाहती है।
दरअसल पंजाब में कांग्रेस विधायकों में इस बात पर नाराज़गी है कि चुनाव के समय किये गये वादे अमरिंदर सरकार ने पूरी नहीं किये हैं। इसके अलावा धार्मिक रूप से संवेदनशील गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी का मामला भी है, जिसमें कोई ठोस कार्रवाई अभी तक नहीं हुई है। सिद्धू और उनके समर्थक विधायकों के अलावा अन्य विधायक भी यह मसला आलाकमान के सामने उठा चुके हैं। यह माना जाता है कि आलाकमान ने अमरिंदर को चुनाव के वादे चुनाव से पहले पूरे करने को कहा है।
अमरिंदर सिंह के सही राजनीतिक रूख़ का पता दिसंबर तक चलेगा। उनके लिए ग़ुस्सा पैदा करने वाली एक ही बात है और वह है कि उनके जैसे वरिष्ठ नेता के ख़िलाफ़ सिद्धू के बयानों पर कांग्रेस नेतृत्व चुप्पी साध लेता है। अमरिंदर के नज़दीकियों का कहना है कि आलाकमान को इस मामले में हस्तक्षेप करके सिद्धू को चाहिए कि वह कम-से-कम कैप्टन के ख़िलाफ़ व्यक्तिगत हमले न करें।
ऐसे में पंजाब की राजनीति में आने वाले एक-दो महीने काफ़ी अहम हैं। कांग्रेस की राजनीति पंजाब की पूरी राजनीति को प्रभावित करेगी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू सूबे में राजनीतिक आधार नहीं रखते। अमृतसर से तीन बार (भाजपा में रहते हुए) सांसद बनना उनकी ज़मीनी राजनीतिक पकड़ को ज़ाहिर करता है। भले सिद्धू अपने बड़बोलेपन के कारण भाजपा और कांग्रेस के भीतर आलोचना का सामना करते रहे हों, राज्य में वह कांग्रेस के लिए वोट हैं; इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। हाँ, यदि अमरिंदर सिंह कहीं भाजपा में ही जाने का फ़ैसला कर लेते हैं, तब पंजाब की चुनावी राजनीति के परिदृश्य पर निश्चित ही असर पड़ेगा। पंजाब जैसी ही समस्या का सामना कांग्रेस छत्तीसगढ़ में भी कर रही है। अनिर्णय की स्थिति से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनके स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव के बीच जंग छिड़ी हुई है। राज्य के इतिहास में यह पहली बार है कि वहाँ इस तरह की राजनीतिक अस्थिरता की सम्भावना बन रही है। अभी तक यह साफ़ नहीं है कि कांग्रेस के दो गुटों की लड़ाई वहाँ क्या रूप लेगी? बघेल मुख्यमंत्री पद छोडऩा नहीं चाहते और सिंहदेव ढाई साल पहले के वादे के मुताबिक मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं।
कांग्रेस आलाकमान के लिए दिक़्क़त यह है कि उसकी अपनी स्थिति यह कहती है कि मुख्यमंत्री के रूप में बघेल जनता का भरोसा जीतने में सफल रहे हैं। पार्टी को लगता है कि ऐसी स्थिति में बघेल का जाना पार्टी को महँगा भी पड़ सकता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सिंहदेव परिपक्व राजनीतिक नेता हैं और राज्य को सँभालने की क्षमता रखते हैं। लेकिन जनता में जैसी छवि बघेल बनाने में सफल रहे हैं, उससे ज़मीन पर कांग्रेस सत्ता के क़रीब तीन साल बाद भी विरोधी भाजपा के मुक़ाबले काफ़ी मज़बूत दिखती है। हालाँकि वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम से उसे नुक़सान की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।
कांग्रेस की इस लड़ाई को देखते हुए भाजपा ने अभी से जनता के बीच जाना और कार्यक्रमों का आयोजन करना शुरू कर दिया है। भाजपा देख रही है कि यदि कांग्रेस की जंग बढ़ती है, तो सत्ता में उसके लौटने का रास्ता खुल सकता है। पिछले चुनाव में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को तीन-चौथाई बहुमत मिला था, लिहाज़ा उसकी सरकार काफ़ी टिकाऊ रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि बघेल सरकार चुनाव से पहले किये वादों पर काम भी कर रही है। लिहाज़ा भाजपा के पास सरकार की निंदा करने के कोई ज़्यादा मुद्दे थे नहीं थे; लेकिन कांग्रेस के दो बड़े नेताओं के बीच सत्ता की लड़ाई से मानों भाजपा की लॉटरी निकल गयी है।
सिंहदेव और बघेल के बीच इस उठापटक से जनता में यह सन्देश जा रहा है कि कांग्रेस के नेता कुर्सी के भूखे हैं। भाजपा यही चाहती थी कि कांग्रेस के बीच ही ऐसे समीकरण बनें कि उसे जनता के बीच बघेल सरकार की खिंचाई करने का मसाला मिल जाए। यह अब उसे मिल गया है और उसने जन भागीदारी वाले कार्यक्रमों के ज़रिये सरकार पर हमले तेज़ कर दिये हैं। कांग्रेस के लिए इस सरकार के सफलता इसलिए भी ज़रूरी है कि उसे 15 साल के लम्बे अंतराल के बाद छत्तीसगढ़ में सत्ता हासिल हुई है।
नेताओं के बार-बार दिल्ली जाने से राज्य की परियोजनाओं और विकास कार्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और इसका सीधा असर जनता पर पड़ेगा। कांग्रेस के नेता इसे राजनीति की सामान्य प्रक्रिया बताते हैं और उनका कहना है कि यह सब प्रजातंत्र का हिस्सा है। लेकिन राज्यों में कांग्रेस नेताओं की लड़ाई से आलाकमान की पेचीदगियाँ बढ़ गयी हैं। छत्तीसगढ़ में 2023 में विधानसभा के चुनाव होने हैं और उससे पहले नेतृत्व परिवर्तन से कांग्रेस को नयी शुरुआत करनी पड़ेगी।
छत्तीसगढ़ को लेकर कांग्रेस में यही साफ़ नहीं है कि क्या विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर ढाई-ढाई साल का कोई समझौता हुआ था या नहीं? सिंहदेव के समर्थक इस समझौते के आधार पर ही मुख्यमंत्री पद का दावा कर रहे हैं, जबकि बघेल का ख़ेमा कह रहा है कि ऐसा कोई समझौता हुआ ही नहीं है। पिछले तीन महीने में कांग्रेस में यही जंग चल रही है। देश की सत्ता में इतने दशक तक रही कांग्रेस की इस स्थिति को दयनीय ही कहा जाएगा।
पिछले दो महीने में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छ: बार से ज़्यादा दिल्ली इसी सिलसिले में जा चुके हैं। उधर मुख्यमंत्री पद पर नज़र गड़ाये बैठे सिंहदेव भी कई बार दिल्ली जा चुके हैं। दिलचस्प यह है कि पार्टी के विधायक और मंत्री भी अपने-अपने नेताओं के साथ दिल्ली पहुँच जाते हैं। ज़ाहिर है इसका असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ा है। कांग्रेस इसे समझ नहीं रही या समझ के भी अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार रही है, यह पता नहीं।
राजस्थान में एक साल से ज़्यादा हो चुका है। सचिन पायलट की पार्टी में अपनी अवस्था को लेकर कुछ माँगें थीं; लेकिन इनका समाधान नहीं हो पाया है। उनके समर्थक विधायकों की शिकायत है कि सरकार में उनकी चलती नहीं, क्योंकि अफ़सर उनकी सुनते नहीं। मंत्रियों की सुझायी परियोजनाएँ ठण्डे बस्ते में पड़ी हैं।
अब यह साफ़ हो चुका है कि कांग्रेस के भीतर सोनिया गाँधी और राहुल-प्रियंका की पसन्द के नेताओं के बीच लकीर खिंच चुकी है। पंजाब से लेकर छत्तीसगढ़ और राजस्थान तक यह लड़ाई शुरू हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि 10 जनपथ और राहुल और प्रियंका के बीच कोई खाई पैदा हो गयी है। यह लड़ाई प्रदेश स्तर के नेताओं के मामले तक सीमित है, जहाँ सोनिया गाँधी पुराने नेताओं को खोना नहीं चाहतीं; जबकि राहुल गाँधी अपनी एक टीम खड़ी करना चाहते हैं। लेकिन इसी चक्कर में कांग्रेस की फ़ज़ीहत हो रही है और भाजपा उसका मज़ाक़ उड़ा रही है।
कांग्रेस में प्रशांत किशोर आएँगे?
कांग्रेस के बीच आजकल चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की बड़ी चर्चा है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के राजनीतिक सलाहकार के पद से इस्तीफ़े के बाद उनके कांग्रेस में शामिल होने के कयास लगाये जा रहे हैं। कांग्रेस के नेता इस मसले पर बँटे दिखायी दे रहे हैं। विरोध करने वालों का मानना है कि एक ग़ैर-राजनीतिक चुनावी रणनीतिकार को एक नेता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। हाल में वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल के घर पर एक बैठक हुई थी, जिसमें प्रशांत किशोर के कांग्रेस में आने की ख़बरों पर भी चर्चा हुई थी। कहते हैं कि कुछ नेताओं ने इस पर विरोध किया था और उनका कहना था कि राजनीति की दिशा राजनीतिक तय करते हैं; चुनावी रणनीतिकार नहीं। हालाँकि इसी बैठक में ऐसे नेता भी थे, जिन्होंने किशोर को पार्टी के लिए लाभकारी बताया और इस बात का समर्थन किया कि उन्हें कांग्रेस में आना चाहिए। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पार्टी नेतृत्व प्रशांत किशोर को पार्टी में शामिल करने के लिए बाक़ायदा सलाह कर रहा है; ताकि सबकी राय जानी जा सके। दो वरिष्ठ नेता ए.के. एंटनी और अंबिका सोनी नेताओं से बातचीत करके जल्दी ही एक रिपोर्ट आलाकमान को देंगे।
समितियों का गठन
आने वाला समय कांग्रेस के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। संगठन को सक्रिय करने के लिए सोनिया गाँधी ने हाल में दो समितियों का गठन किया है, जिसमें मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक समिति में जी-23 के नेता गुलाम नबी आज़ाद और दो अन्य नेता भी शामिल हैं। इसके अलावा दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुद्दों पर देशव्यापी आन्दोलन चलाने के लिए भी एक समिति का गठन किया गया है। इससे यह संकेत मिलता है कि मध्य प्रदेश की राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में मज़बूत किया जा रहा है। कमलनाथ पहले से ही दूसरे दलों से बातचीत के मामले काफ़ी सक्रिय रहे हैं।